यदि सांसद, विधायक या माफिया के बेटे को ही जनप्रतिनिधि मानते हैं तो आप की मानसिकता गुलाम है
-कुमार दुर्गेश
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आचार्य चतुर सेन “वैशाली की नगर वधू” में अम्बापाली नाम की सुंदर कन्या के नगर वधू बनने का जिक्र करते हुए तत्कालीन स्थिति का वर्णन करते हैं।
उपन्यास के पात्रों में कोई सामंत का बेटा है तो कोई सेठ का बेटा है, कोई अमात्य का बेटा है तो कोई राजा का दासी पुत्र है, कोई राजपुत्र है तो कोई सेनानायक है।
यह सब मिलकर ही वैशाली, मगध, कोसल, अंग, बंग, चम्पा, काशी की समकालीन राजव्यवस्था को चलाते हैं।
चतुरसेन ने उपन्यास में तत्कालीन स्थिति का साहित्यिक वर्णन ही किया है, लिहाजा उस पर जोर देकर बहस नहीं की जा सकती। लेकिन थाह तो लगाया ही जा सकता है कि तब भी गणतंत्र की जननी वैशाली में भी एक खास वर्ग का दबदबा था।
मगध के बगल के गंगा पार वैशाली में गणतंत्र तो था, किंतु गणतंत्र में भी एक वर्ग था जो दबदबा कायम रखता था। धन कुबेरों, वनिकों, सामंतों का दबदबा था।
बालिका अंबापाली का पिता जब वैशाली लेकर वापस आया तो अम्बापाली के रूप पर आसक्त होने वाले सेठ पुत्र थे, सामंत पुत्र थे। आम लोग तो सोच भी नहीं रखते थे।
संथागार में जब अम्बापाली को नगर वधू बनाने या नहीं बनाने के लिए सभा हो रही थी तो संथागार में सैकड़ों सामंत पुत्र और सेठ पुत्र तलवार और भाले चमका रहे थे। वातावरण अशांत और उत्तेजित था। खून की नदी बहा देंगे, अम्बापाली सबकी हैं… उस पर हम सबका अधिकार है।
सभा में नगरजन जयघोष करते नहीं अघाते थे। किंतु नगर वधू अम्बापाली को पाने के लिए सेठ और सामंत पुत्र ही तलवार निकालने पर आमादा थे।
आखिर में अम्बापाली वैशाली राज्य की नगर वधू बन गई।
लिहाजा यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि राज काज में लगे लोगों में लोकतांत्रिक भावना निर्बल होती है। लोकतंत्र, राजव्यवस्था का विधि विधान के प्रति निष्ठा से अधिक इनकी भावना शासन करने की होती है, कब्जा जमाए रखने की होती है।
यह संदर्भ बिहार का है तो मौजूदा परिस्थितियों में चेत कर रहने के लिए ही लिख रहा हूं न कि इतिहास का ज्ञान बघार रहा हूं।
सेठ और सामंत पुत्र होना योग्यता की पहचान नहीं है। किंतु सेठ और सामंत पुत्रों के प्रति महज उनके लाव लश्कर की वजह से सलामी करना लोक का राजतंत्र के प्रति निष्ठा रखने का प्रतीक है।
किसी भी व्यवस्था में एक कुलीन वर्ग उभार ले ही लेता है। लोकतंत्र में भी एक कुलीन वर्ग का उभर आना कोई नई बात नहीं है।
किंतु बिहार को ज्यादा सजग रहने की जरूरत है। बिहार आंदोलनों से नेतृत्त्व पैदा करने वाला राज्य रहा है। इस राज्य में भी विधानसभा, लोकसभा के स्तर पर नेता, सेठ, सामंत, अपराधी पुत्रों का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है।
आम जनता, युवा उन्हें सलामी दे रहे हैं। न कोई योग्यता न कोई उपलब्धि, न कोई विचार… सोशल मीडिया पर वॉइसओवर कर एडिटेड वीडियो, रिल्स, पोस्टर, बंगले, गाड़ी, बंदूक का प्रदर्शन ही इनकी उपलब्धि है।
लाखों की संख्या में लाइक, कमेंट, जय जयकार करने वाले युवाओं की भीड़ इन पर ऐसे फिदा है जैसे ये सेठ, सामंत, नेता, अपराधी पुत्र नहीं अंबापाली जैसी रूपवती गणिका हो।
मदिरा पीकर मस्त होने वाली जनता की चेतना का आलम यह है कि आज मगध में विचारों की कद्र नहीं है। यदि बिहार की जनता इन्हीं अदाओं पर फिदा रहेगी तो अब कोई दूसरा गुदड़ी का लाल लालू प्रसाद न पैदा होगा, न वैद्य का बेटा नीतीश कुमार, न गरीब घर से कोई रामविलास पासवान जैसा नेता पैदा होगा।
यह नया ट्रेंड है। इससे बचिए।
यदि हरेक सांसद का बेटा, विधायक का बेटा, माफिया का बेटा ही जनता का प्रतिनिधि हो, ऐसी परंपरा कायम होगी तो फिर आपका वजूद क्या है? आपके नागरिक होने का महत्व क्या है? ऐसी मानसिकता के साथ आप जी रहे हैं तो यह गुलाम मानसिकता है।
(लेखक सामाजिक चिंतक हैं।)