Psychology of Change
परिवर्तन का मनोविज्ञान’ होता है, जिसे समझे बिना ‘परिवर्तन’ चाहना हवा हवाई है
यह तय है कि ‘परिवर्तन का मनोविज्ञान’ (Psychology of Change) या ‘’रूपान्तरण का मनोविज्ञान’ (Psychology of Transformation) किसी वस्तु का, यानि किसी निर्जीव अस्तित्व का नहीं ही होगा। यह ‘परिवर्तन का मनोविज्ञान’ अवश्य ही किसी सामाजिक चेतनशील प्राणी का ही हो सकता है। पशु जगत के अन्य जीव भी चेतनशील होते हैं, लेकिन वे क्या ‘सामाजिक’ प्राणी होते हैं?
यहाँ हमें समुदाय (Community) और समाज (Society) में अंतर समझना होगा। ‘समाज’ ‘सामाजिक संबंधों’ का जाल (Network/ Web) है, जो सिर्फ मानवों में ही होता है, जबकि समुदाय एक ‘सामुदायिक भावना’ पर आधारित एक ‘समूह’ (Group) होता है । एक ‘समुदाय’ सामान्य जीवन के सञ्चालन के लिए होता है, जबकि एक ‘समाज’ इससे बहुत अधिक व्यापक होता है। एक ‘समुदाय’ में ‘सहयोग’ (Cooperation) अवश्य होता है, लेकिन एक ‘समाज’ में इसके अतिरिक्त और बहुत कुछ होता है। एक ‘समुदाय’ सीमित उद्देश्य पर आधारित होता है, जबकि एक ‘समाज’ एक व्यापक उद्देश्य की पूर्ति करता है । इसी कारण मानव पशुवत ‘होमो सेपियंस’ (Homo Sapiens) से ‘होमो सोसिअस’ (Homo Socius) और ‘होमो फेबर’ (Homo Faber) भी बन सका।
तो हम एक ऐसे जीव और उसके समूह के परिवर्तन की बात कर रहे हैं, जिसका एक निश्चित ‘सामाजिक एवं सांस्कृतिक’ स्वरुप और संरचना होता है। यह जीव एक ‘मानव’ है, जो एक ‘सामाजिक’ प्राणी (Homo Socius) भी है, और एक ‘निर्माता’ प्राणी (Homo Faber) भी है। इस मानव का ‘समुदाय’ भी होता है, और ‘समाज’ भी होता है। इसीलिए एक ही व्यक्ति एक ही ‘समाज’ में एक ही साथ किसी का पुत्र/ पुत्री हो सकता है, और उसी के साथ वह किसी पिता/ माता, दामाद/ बहु, पोता/ पोती, भतीजा/ भतीजी, मामा/ मामी इत्यादि इत्यादि कई अनगिनत संबंधों का पद धारित किये हुए हो सकता है।
इसीलिए एक व्यक्ति पुरे गाँव या क्षेत्र का दामाद/ बहू मान लिया जाता है। स्पष्ट है कि एक व्यक्ति ‘समाज’ में एक ही साथ कई भूमिकाओं में कई उत्तरदायित्वों के साथ बंधा हुआ होता है, या जकड़ा हुआ होता है। यही सामाजिक सम्बन्धों का जाल है, जो सिर्फ मानवों में होता है, पशुओं या पशुवत समुदायों में ऐसा नहीं होता है। और इसी कारण मानव का ‘परिवर्तन का मनोविज्ञान’ होता है, जिसे समझे बिना ‘परिवर्तन’ चाहना हवा हवाई है।
जब कोई भी स्थिर होकर सामाजिक सम्बन्धों के जाल में अपनी भूमिका, कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व का मूल्यांकन करता है, तो उसे ‘सामाजिक सम्बन्धों’ के जाल में सामाजिक स्थिति में अपनी ‘सांस्कृतिक जड़ता’ (Cultural Inertia) एवं ‘सामाजिक जड़ता’ (Social Inertia) का अहसास होता है। जैसे वस्तुओं की जड़ता (Inertia of Objects) को समाप्त करने के लिए अतिरिक्त ‘ऊर्जा’ (प्रयास) की जरुरत होती है, उसी तरह इन जड़ताओं को मिटाने के लिए भी अतिरिक्त ‘ऊर्जा’ (प्रयास) के साथ साथ ‘सजगता’ (Carefulness), ‘सतर्कता’ (Vigilance) एवं ‘मनोवैज्ञानिक समझ’ की अनिवार्यता होती है। इसीलिए मैं अक्सर कहता हूँ कि किसी भी नीति निर्धारण में, चाहे बदलाव का हो, या विकास का हो, आपको ‘इतिहास’ (History), ‘मनोविज्ञान’ (Psychology) एवं ‘दर्शन’ (Philosophy) की गहरी समझ होनी ही चाहिए।
इस तरह समाज में एक व्यक्ति एक पद के साथ कुछ अधिकार पाता है और उसके साथ कुछ अनिवार्य उत्तरदायित्व का भी निर्वहन करता है, या करना होता है। इसीलिए ‘सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन’ की मुहिम चलाने वाले अधिकतर ‘क्रान्तिकारी’ नेतृत्व यानि नेतागण इस समझ के अभाव में कुछ नहीं कर पाते हैं, यानि ‘हवाई’ ही रह जाते हैं, और अपने ‘लक्षित समाज’ (Target Society) पर मूढ़ता (Foolishness) और जड़ता (Inertia/ Inertness) का आरोप लगाकर ‘आत्ममुग्धता’ में सराबोर रहते हैं। वे ‘सामाजिक गतिशीलता’ (Social Dynamism) और ‘सामाजिक गतिहीनता’ (Social Immobility) की संरचना और ‘सांस्कृतिक संरचना’ की अनिवार्य क्रियाविधि (Mechanism) और संरचनात्मक (Structural) एवं ढाँचागत (Framework) समझ की ओर ध्यान ही नहीं देते, या उनको इसे समझने का स्तर ही नहीं होता। यही ‘परिवर्तन का मनोविज्ञान’ समझना है। एक व्यक्ति का मनोविज्ञान कई दशाओं एवं अवस्थाओं के साथ ही उसका वर्तमान समाज भी निर्धारित करता है, या नियंत्रित करता है, या हस्तक्षेप करता है, या नियमित करता है।
अब इतनी लम्बी भूमिका, जो इस ‘परिवर्तन के मनोविज्ञान’ की अवधारणा को समझने के लिए आवश्यक भी था, को समझने के बाद इस ‘परिवर्तन के मनोविज्ञान’ को बड़ी स्थिरता से समझा जाय| कोई भी व्यक्ति किसी भी निर्णय में, चाहे वह व्यवहार हो, या विचार हो, या भावना से सम्बन्धित हो, अपने ‘दिल’ (Mind/ मन) और ‘दिमाग’ (Brain) दोनों का उपयोग करता है| ‘दिल’ से तात्पर्य ‘भावनात्मक’ (Emotional) अनुक्रिया एवं प्रतिक्रया से है, और ‘दिमाग’ से तात्पर्य उसके ज्ञान (Wisdom) एवं तर्कशीलता (Logic) से है। ‘विवेकशीलता’ (Rationality) का उपयोग या प्रयोग ‘दिल’ एवं ‘दिमाग’ दोनों से होता है, यानि उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। यह भी एक स्थापित सत्य है कि ‘दिमाग’ हमेशा ‘दिल’ से हार जाता है, यानि ‘भावना’ सदैव ‘बुद्धि’ यानि ‘ज्ञान’ पर जीत हासिल करता है।
जिस समाज के बहुसंख्यक में ‘आलोचनात्मक चिंतन’ (Critical Thinking) की समझ, स्तर एवं क्षमता ही नहीं होती, उस बहुसंख्यक को कोई भी चतुर उड़ा ले जाता है, या बहा ले जाता है। लेकिन उस बहुसंख्यक को इस उड़ने की गतिशीलता में भी अपनी बौद्धिक समझदारी की गतिकी (Dynamics) का ही अहसास होता है। ‘आलोचनात्मक चिंतन’ में अनिवार्य रूप से विश्लेषण करना, मूल्यांकन करना, शंका करना, और उसका सामान्य निष्कर्ष निकलना शामिल होता है।
इसमें दूसरों के व्यक्तिगत मनोविज्ञान को समझकर उसकी कमजोरियों, डरों एवं लोभों से फायदा उठाना होता है। उसके सामाजिक एवं सांस्कृतिक जड़ता या विरोध को मुलायम (Soft) करने के लिए उसकी भावनाओं पर काम करना होता है। उनकी प्रिय चीजों को बने रहने का या उसकी आपूर्ति का आश्वासन दिया जाता है, और जिनसे वे डरते हैं, या जिनके खो जाने यानि नष्ट हो जाने से सशंकित हैं, उनकी निश्चितता की गारन्टी दिया जाता है। अगर कोई दूसरों (लक्ष्य) की भावनाओं की उपेक्षा करता है, तो ऐसे नेतृत्व नकार दिए जाएंगे, और उनसे वे बहुसंख्यक उस नेतृत्व यानि बदलाव के कर्ता से नफरत करने लगेंगे। इसीलिए राज्य को व्यक्ति के मन में यानि दिल में शासन करना होता है, उसके ‘समूह’ या ‘समुदाय’ या ‘समाज’ पर तो ऐसे ही नियंत्रण हो जाता है। यह परिवर्तन का मनोविज्ञान है।
यदि कोई बदलाव करने वाला उपरोक्त मनोभावों का ध्यान नहीं रखता है, तो वैसे बहुसंख्यक (लक्षित वर्ग) आपको उनका ‘समय बर्बाद’ करने वाला मानेंगे, और आपको ‘शत्रु’ मान लेंगे एवं आपसे घृणा भी करेंगे। उनके दिल का दरवाजा खोलना ही पड़ेगा। पहले आपको उनका प्यारा बनना होगा। आप भी जानते हैं कि एक ‘सेल्समैन’ के ‘वस्तु’ के बिकने से पहले ‘सेल्समैन’ को ही बिकना होता है, यानि ग्राहक का प्रियपात्र बनना होता है। हमें हर सामने वाले को ‘महत्वपूर्ण’ एवं ‘सम्मानित’ महसूस कराना होता है। उनको समझने के मनोविज्ञान में इसका ध्यान रखा जाता है कि उनकी भावनाओं को, उनके ज्ञान को नजरअंदाज नहीं किया गया है। उनके ‘प्रेम’, ‘नफरत’ एवं ‘ईर्ष्या’ के भाव को जगा देने से यानि उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया तीव्र कर देने उनका ‘आत्म नियंत्रण’ कमजोर हो जाता है| इसे ‘दिल’ को झकझोरना भी कह सकते हैं। इससे उनकी बौद्धिक तर्कशीलता, यदि कुछ है तो भी, उड़ जाती है और आसानी से नियंत्रित हो जाते हैं।
हर व्यक्ति ‘बदलाव’ की जरुरत समझता है, लेकिन वह आदतों एवं परम्पराओं में जकड़ा हुआ होता है। इसीलिए बहुत ज्यादा बदलाव उन्हें आदतन अटपटा लगता है, और इसीलिए ज्यादा बदलाव का विरोध किया जाता है, यानि स्वीकार नहीं किया जाता है। हमें परम्परा के प्रति सम्मान दिखाते हुए मामूली सतही बदलाव दिखाना चाहिए, भले यह एक क्रान्तिकारी बदलाव की आधारशिला साबित हो। यानि क्रान्तिकारी बदलाव को भी मामूली और सतही बदलाव दिखना चाहिए, ताकि परम्परा स्थिर और अपरिवर्तनीय दिखे| ‘बुद्ध’ को कल्याणकारी ‘शीव’ यानि ‘शिव; में बदलने की गत्यात्मकता (Dynamism) को सावधानी से समझा जा सकता है।
यह सामान्य मनोविज्ञान है कि लोग परम्परागत ‘संस्थाओं’ में और ‘व्यक्तियों’ में नवीनीकरण चाहते हैं, लेकिन इसके साथ जुड़े वैसे परिणामों से वे चिढ जाते हैं, जो उनकी परम्परागत व्यक्तिगत आदतों को बदलती है या बदलने का प्रयास करती हैं। वे जानते हैं और मानते भी हैं कि नवीनता बौद्धिक रूप से सही है, वैज्ञानिक है और समुचित भी है, लेकिन मन की गहराइयों में वे सांस्कृतिक जड़ता से जड़े हुए होते हैं। चूँकि बदलाव एक शून्यता यानि खालीपन पैदा कर देता है, और इसीलिए बड़ा बदलाव आदमी को परेशान और विचलित कर देता है। इसीलिए वे सतही परिवर्तन चाहते हैं, और मूलभूत आदतों को बदलना नहीं चाहते हैं। इसके लिए पुराने जीवन मूल्यों एवं परम्पराओं को उनके स्थान पर नए जीवन मूल्यों एवं परम्पराओं से प्रतिस्थापित करना होता है, ताकि बदलाव की शून्यता नहीं रहे| इससे परिवर्तन से सशंकित लोगों की चिंताएँ शान्त यानि क्षान्त रहेगी। इस मनोविज्ञान को समझ कर और ध्यान में रख ही पहले इतिहास बदला गया है, और आगे भी बदला जायगा।
इस परिवर्तन के मनोविज्ञान में बदलाव में पुराने पदनाम, प्रक्रिया, संख्या, सामग्री के नाम एवं संख्या को स्थिर रखा जाता है। इससे सामान्य जन अपने को परम्पराओं से जुड़े रहने का अहसास कम नहीं होता है, और इसे इतिहास यानि सांस्कृतिक जड़ता का समर्थन मिलता है। इसीलिए इन तरीको के साथ हुए बदलाव का विरोध नहीं होता है। सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तनों को गुप्त रखने यानि छिपाने का एक तरीका यह है कि अतीत के सांस्कृतिक जीवन मूल्यों का जबरदस्त और सार्वजानिक समर्थन किया जाता है। ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्परा का भक्त दिखना आपके क्रान्तिकारी बदलाव के विचारों को आच्छादित कर छुपा देता है। पुराने स्वरूप के आवरण से पुरानी संस्कृति की उष्णता बनी रहती है, और लोगों की शंकाओं एवं बेचैनी को कम या समाप्त करती है। लोगो की निहित रुढ़िवादिता को सांस्कृतिक परम्परा मान कर उसके प्रति अटूट निष्ठा दिखानी पड़ती है। इसे ही युग बोध का ध्यान रखना समझा जाता है। लोगों को ‘अतीत’, ‘सुख’ और ‘परम्परा’ को उपलब्ध करने या वापस दिलाने का आश्वासन बहुत अच्छा लगता है।
एक बात का ध्यान रखना होता है कि जिन्हें सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव से लाभ नहीं होता है, या बदलाव से हानि होती है, वे बदलाव नहीं होने देना चाहते हैं। अत: संस्थाओं में मात्रात्मक स्थिरता (वाह्य स्वरूप) रखते हुए ही गुणात्मक (मौलिक बदलाव) किये जाते हैं। इस परिवर्तन के मनोविज्ञान को ही समझ कर कोई सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव कर सकता है।
-आचार्य निरंजन सिन्हा
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