जयंती पर विशेषः मा. कांशीराम को भारत रत्न क्यों नहीं ? Why not ‘BHARAT RATN’ for Kanshiram
दलित समाज में राजनैतिक व सांस्कृतिक चेतना का ज्वार पैदा करने वाला और कोई नहीं
जयंती पर विशेषः मान्यवर कांशीराम को भारत रत्न क्यों नहीं ? Why not ‘BHARAT RATN’ for Kanshiram
लंबे तक समय तक देश में कांग्रेस का शासनकाल रहा। बीजेपी का भी कुल मिलाकर एक दशक हो ही चुका है। दोनों की विचारधारा अलग-अलग। लगता है कि एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं। लेकिन, विचारधारा में एक स्थान पर दोनों में एका है। वह है दलित चेतना के उभार को दबाना। चाहे जैसे भी। उपेक्षा करके, डरा कर, लालच देकर या अन्य तरीके से भी। यदि ऐसा न होता तो मान्यवर कांशीराम को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा जा चुका होता। जबकि सही मायने में मान्यवर कांशीराम ने ही महात्मा गांधी व डॉ. आंबेडकर के कार्यों को आगे बढ़ाया। आज 15 मार्च को मान्यवर की जयंती है, सो यह चर्चा भी लाजमी है।
एक नजर अभी तक भारत रत्न से नवाजे जा चुकी विभूतियों पर …
क्रम संख्या | नाम | वर्ष |
1 | चक्रवर्ती राजगोपालचारी | 1954 |
2 | सी.वी. रमन | 1954 |
3 | सर्वपल्ली राधाकृष्णन | 1954 |
4 | भगवान दास | 1955 |
5 | एम. विसवेशरैय्या | 1955 |
6 | जवारहलाल नेहरू | 1955 |
7 | गोविंद वल्लभ पंत | 1957 |
8 | डी. केसव कर्वे | 1958 |
9 | बिधान चंद्र रॉय | 1961 |
10 | पुरुषोत्तम दास टंडन | 1961 |
11 | राजेंद्र प्रसाद | 1962 |
12 | जाकिर हुसैन | 1963 |
13 | पांडुरंग वामन काने | 1963 |
14 | लाल बहादुर शास्त्री | 1966 |
15 | इंदिरा गांधी | 1971 |
16 | वी.वी. गिरी | 1975 |
17 | के. कामराज | 1976 |
18 | मदर टेरेसा | 1980 |
19 | विनोबा भावे | 1983 |
20 | खान अब्दुल गफ्फार खान | 1987 |
21 | एम.जी. रामचंद्रन | 1988 |
22 | बी.आर. अंबेडकर | 1990 |
23 | नेल्सन मंडेला | 1990 |
24 | राजीव गांधी | 1991 |
25 | सरदार वल्लभभाई पटेल | 1991 |
26 | मोरारजी देसाई | 1991 |
27 | अब्दुल कलाम आजाद | 1992 |
28 | जे.आर.डी. टाटा | 1992 |
29 | सत्यजीत राय | 1992 |
30 | ए.पी.जे. अब्दुल कलाम | 1997 |
31 | गुलजारी लाल नंदा | 1997 |
32 | अरुणा आसफ अली | 1997 |
33 | एम.एस.सुबुलक्ष्मी | 1998 |
34 | चिदंबरम सुब्रमण्यम | 1998 |
35 | जयप्रकाश नारायण | 1999 |
36 | रवि शंकर | 1999 |
37 | अमर्त्य सेन | 1999 |
38 | गोपीनाथ बारदोलई | 1999 |
39 | लता मांगेशकर | 2001 |
40 | बिस्मिल्लाह खान | 2001 |
41 | भीमसेन जोशी | 2008 |
42 | प्रो. सी.एन.आर. राव | 2013 |
43 | सचिन तेंडुलकर | 2013 |
44 | अटल बिहारी वाजपेयी | 2014 |
45 | मदन मोहन मालवीय | 2014 |
46 | प्रणब मुखर्जी | 2019 |
47 | भूपेन हजारिका | 2019 |
48 | नानाजी देशमुख | 2019 |
भारत रत्न पाने वाली 48 विभूतियों में 23 ब्राह्मण
जाति के आधार पर देखें, तो इनमें 23 ब्राह्मण हैं यानी 47.5 प्रतिशत सिर्फ एक जाति ब्राह्मण समुदाय के लोग हैं। 11 अन्य ऊंची जाति के (द्विज) लोग हैं। छह मुस्लिम, एक क्रिश्चियन (मदर टेरेसा), एक पारसी (जेआरडी टाटा) एक विदेशी (नेल्सन मंडेला), एक देवदासी (एमएस शुभलक्ष्मी), एक आसामी द्विज (हजारिका), एक दलित (डॉ.आंबेडकर) और एक पिछड़ा (के. कामराज) हैं। कुल आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए, तो 66 फीसदी से अधिक द्विज और 12 फीसदी मुसलमान हैं। मुसलमानों में अधिकांश उच्च जातीय मुसलमान हैं, सिर्फ एक पिछड़ी जाति का मुसलमान है। यदि हिंदुओं की ऊंची जाति और मुसलमानों की ऊंची जाति को जोड़ लिया जाए, तो हिंदू-मुस्लिम अपर कास्ट का योग 80 फीसदी बनता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शेष दलित, आदिवासी या पिछड़ी जाति के हैं। मदर टेरेसा विदेशी मूल की भारतीय ईसाई हैं और नेल्सन मंडेला विदेशी हैं; सिर्फ के. कामराज और डॉ. आंबेडकर दलित-बहुजन समाज के हैं।
पिछड़ी जाति के सिर्फ केे.कामराज को मिला है भारत रत्न
इनमें पिछड़ी जाति के के. कामराज कांग्रेस को कांग्रेस के प्रति उमकी वफादारी का पुरस्कार भारत रत्न के रूप में उनकी मौत के एक वर्ष बाद यानि 1976 में ही मिल गया। वर्ष 1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद कांग्रेस के सामने सवाल था कि अगला प्रधानमंत्री किसे बनाया जाए? तब वित्त मंत्री रहे मोरारजी देसाई के मन में पीएम बनने की आकांक्षा हिलोरें ले रही थीं। पार्टी के भीतर भी देसाई की पकड़ मजबूत थी, मगर के. कामराज ने उनके मंसूबे पर पानी फेर दिया था। कामराज उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे। अधिकतर कांग्रेसी चाहते थे कि कामराज ही प्रधानमंत्री बनें, मगर उन्होंने कहा कि राष्ट्रनिर्माण के लिए पार्टी का फिट रहना जरूरी है। उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री के नाम का प्रस्ताव रख दिया। और, शास्त्री जी प्रधानमंत्री बन गए।
डॉ. आम्बेडकर को भी भारत रत्न देने में मौत के बाद लगे 34 साल, सरदार पटेल को मौत के 41 साल बाद मिला
डॉ. आंबेडकर को तो भारत रत्न देने में मौत (1956) के 34 साल बाद (1990) में भारत रत्न दिया गया। बाबा साहेब जैसे मनीषी को भारत रत्न देने में इतनी देर कैसे और क्यों की गई। इसके जवाब के लिए मंथन तो करना पड़ेगा। जबकि इंदिरा गांधी को उनके जीवन काल 1971 में ही और राजीव गांधी को उनकी मौत जिस साल हुई, उसी साल 1991 में ही भारत रत्न दे दिया गया। राष्ट्रीय एकीकरण के मामले में सरदार पटेल के योगदान को भी कांग्रेसी सरकारों ने कमतर ही आंका, तभी तो निधन के 41 साल बाद राजीव गांधी के साथ ही भारत रत्न से नवाजा गया। पं. जवाहर लाल नेहरू का निधन 1964 में हुआ था, लेकिन उनको भारत रत्न से 1955 में ही नवाज दिया गया।
पिछड़े व दलितों में राजनीतिक-सांस्कृतिक चेतना जगाने वाले कांशीराम को कब मिलेगा भारत रत्न
अब मान्यवर कांशीराम को ही ले लें तो यह साफ नजर आता है कि अब तक की केंद्र की सरकारों को उनका पिछड़ों, दलितों व वंचितों में राजनैतिक व सांस्कृतिक चेतना जगाने का अभियान रास नहीं आया। ऐसा नहीं होता तो मान्यवर कांशीराम का निधन 2006 में हुआ था। उनको तो जीवन काल में ही भारत रत्न दे दिया जाना चाहिए था, लेकिन मरणोपरात्न 17 साल बाद भी इस पर विचार नहीं किया जा सका है। इसके मूल में क्या कारण हैं। यह समझना गलत होगा कि जिन महानुभावों को भारत रत्न मिला है, देश के प्रति उनका योगदान कमतर था। लेकिन, कांशीराम ने एक दलित परिवार में जन्म लिया था।
राजनीतिक उपलब्धियों के अलावा, कांशीराम ने उत्तर भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक आइकॉन्स को फिर से सामने लाने में भी एक अहम भूमिका अदा की। ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, डॉ. आम्बेडकर, साहूजी महाराज, फातिमा शेख़, बिरसा मुंडा और पेरियार ईवी रामासामी जैसे दलित-बहुजन नेताओं को भी याद किया जाने लगा।
मान्यवर ने शोषित समाज को शोषण से मुक्त होने के लिए जो सबसे बड़ा हथियार दिया, वह राजनीतिक ही नहीं था। इस बात को हमें ठीक से समझना चाहिए। उन्होंने राजनीतिक बदलाव की भूमिका का निर्माण करने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श को बदलने की जरूरत पर जोर दिया था।
बहुजन समाज के लिए अच्छे या बुरे की पहचान करने में कांशीराम साहब बहुत माहिर थे। वे जानते थे कि सदियों से इन बहुजनों की वास्तविक समस्या धार्मिक और सामाजिक समस्या रही है। इसीलिए उन्होंने एक बड़ी राजनीतिक शक्ति का निर्माण करने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव की दिशा में पहले कदम उठाए थे। कांशीराम साहब जिस राजनीतिक क्रांति का नक्शा बना रहे थे, वह असल में सामाजिक क्रांति, संस्कृति क्रांति से होकर गुजरती थी। लेकिन दुर्भाग्य से उनके जाने के बाद सामाजिक और सांस्कृतिक और धार्मिक बदलाव का कार्य राजनैतिक कार्य की तुलना में पीछे रह गया। और इसी बात का दुष्परिणाम हम देखते हैं कि उत्तर भारत में बहुजन आंदोलन सिर्फ राजनीति तक सीमित रह गया है। लेकिन इस असफलता के बावजूद कांशीराम साहब का राजनीतिक मॉडल काफी हद तक सफल रहा और उस मॉडल ने भारत के बहुजनों को पहली बार उनकी असली ताकत का एहसास कराया। शायद यही कारण है कि मान्यवर कांशीराम को भारत रत्न देने पर विचार नहीं किया जा रहा है। यह सरकारों का पिछड़ा, दलित व वंचित समाज के विरोधी होने का परिचायक है। देखना है कि पिछड़ा, दलित व वंचित समाज में राजनैतिक व सांस्कृतिक चेतना जगाने वाले को कभी भारत रत्न मिलता भी है या नहीं। बहुजन की राजनीति करने वाले दलों की ओर से भी मजबूती से यह मांग नहीं उठ रही है, यह और चिंता की बात है। कभी-कभी मांग उठती भी है तो वह प्रेस विज्ञप्ति तक ही।
-राजेश पटेल
लेखक वेब पोर्टल sachchibaten.com के प्रधान संपादक हैं।