राजस्थान में मुख्यमंत्री से राज्यपाल तक सभी ब्राह्मण
-मप्र में ओबीसी तो छत्तीसगढ़ में दलित सीएम
-निर्णय जातीय समीकरण संतुलन या मोदी -शाह की निष्कंटक राह का नतीजा
हरिमोहन विश्वकर्मा, नई दिल्ली। छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा द्वारा जिन तीन मुख्यमंत्रियों के नामों की घोषणा की गयी है, अगर उसका विश्लेषण करना हो तो बड़े से बड़ा राजनीतिक पंडित इस बात का विश्लेषण नहीं कर सकता कि इनको चुनने का आधार क्या है।
आप जितना अनुमान लगाने की कोशिश करेंगे, उतना उलझते जाएंगे कि आखिर इन तीनों राज्यों में किस फार्मूले के तहत सीएम नियुक्त किये गये हैं। ऐसा लगता है कि सारे आधार दरकिनार करके सिर्फ एक आधार देखा गया। वह यह कि जो भी स्थापित नेता हैं, उन्हें छोड़कर किसी ऐसे को बना देना है, जिसका नाम सुनकर लोग भौचक्क रह जाएं और प्रधानमंत्री मोदी के हर काम को मास्टर स्ट्रोक कहने वालों का मान बना रहे।
अब यह तो मई 2024 में लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद पता चलेगा कि मोदी के ये मास्टरस्ट्रोक कितने काम आये, लेकिन फिलहाल इतना जरूर लग रहा है कि तीनों राज्यों में जीत से भाजपा कार्यकर्ता जितने उत्साहित थे, जैसे जैसे मुख्यमंत्रियों के नाम की घोषणा होती गयी, उनका उत्साह ठंडा पड़ता गया। मानो दिसंबर के सर्द मौसम में सबके मन पर घड़ों पानी पड़ गया हो।
मोदी ने संसद भवन में खड़े होकर एक बार हुंकार भरी थी कि ‘मुझे और कुछ आये न आये राजनीति करना आता है।’ 2001 से 2023 तक की उनकी राजनीतिक सफलता देखकर इस पर भरोसा भी होता है कि गुजरात के सीएम रहते हुए उन्होंने कैसे देश के पीएम बनने का सफर पूरा किया।
सीएम थे तो देश के सबसे पॉपुलर लीडर बने और पीएम बने तो दुनिया के सबसे पॉपुलर लीडर बन गये। उनकी सफलता बताती है कि उन्होंने राजनीति की जो स्क्रिप्ट लिखी, उस पर बनी फिल्में सुपर डुपर हिट हुईं। दो दशक की राजनीतिक यात्रा में उनके काम करने की शैली हमेशा से चौंकानेवाली ही रही है।
वो अपने काम काज और निर्णयों से हमेशा चौंकाते हैं। संभावना है कि चुनाव से पहले ही उन्होंने अपने मन में मुख्यमंत्रियों के नाम फाइनल कर लिये होंगे। भाजपा वैसे भी इस मामले में अलग सोच वाली पार्टी है। मसलन छत्तीसगढ नया राज्य बना तो दिलीप सिंहजूदेव मुख्यमंत्री के तय नाम थे, लेकिन रमन सिंह मुख्यमंत्री बने तो 15 वर्षों में अपने आपको स्थापित कर लिया।
हालांकि वो खुद एक्सीडेन्टल सीएम थे। क्योंकि 2003 में ऐन मौके पर दिलीप सिंहजूदेव भ्रष्टाचार के एक मामले में फंस गये थे और उनकी जगह अटल सरकार में राज्यमंत्री रमन सिंह को सीएम बनाने का निर्णय हुआ।
पंद्रह साल सीएम रहते हुए उन्होंने न सिर्फ भाजपा को जीत दिलाई, बल्कि अपनी पहचान भी बनायी। इसके बावजूद उन्हें इस बार सीएम नहीं बनाया गया। कारण शायद यह है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री देकर भाजपा ने आदिवासी बहुल सीटों पर लोकसभा में अपना दावा मजबूत किया है।
इसी तरह मध्य प्रदेश में मामा शिवराज को सब सीएम मानकर ही चल रहे थे। जिन्हें आशंका भी थी तो नरेन्द्र सिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल या फिर कैलाश विजयवर्गीय के नामों का अनुमान लगा रहे थे। लेकिन छत्तीसगढ़ के बाद चौंकने की बारी मध्य प्रदेश में थी।
मध्य प्रदेश में एक सीएम और दो डिप्टी सीएम का फार्मूला अपनाया गया। जिन मोहन यादव के नाम की घोषणा हुई, खुद उन्हें भनक नहीं थी कि वो सीएम बनने जा रहे हैं, इसलिए विधायक दल की बैठक में वो पिछली कुर्सी पर बैठे थे। मप्र में दो डिप्टी सीएम भी बना दिये गये, जिसमें एक दलित और एक ब्राह्मण है। हो सकता है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने देखने दिखाने को जातीय समीकरण अनुसार ओबीसी, दलित और ब्राह्मण तीनों को साध लिया है।
लेकिन सवाल है कि अगर जातीय विभाजन पर चुनाव हुए होते तो भाजपा को 48.5 प्रतिशत वोट नहीं मिलते। और चुनाव से पहले इस तरह का जातीय वर्गीकरण तो भाजपा ने किया नहीं था। फिर भी अगर ओबीसी, दलित, ब्राह्मण का फार्मूला ही लागू करना था तो शिवराज के साथ भी दो उपमुख्यमंत्री बनाकर लागू किया जा सकता था। आखिरकार वो भी तो ओबीसी समुदाय से ही आते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो जाहिर है, मोदी -शाह की टीम को नए फरमाबरदार चाहिए थे।
शिवराज, वसुंधरा या रमन इस जोड़ी के लिए चुनौती बनते दिखाई दे रहे थे, जो लोकसभा चुनाव में टीम मोदी की रणनीतियों में बाधक होता। मध्य प्रदेश की तरह ही राजस्थान में जितने नामों का अनुमान लगाया गया, उसमें से कोई सीएम नहीं बना। सीएम बने भजनलाल शर्मा, जिनका अपना खुद का कोई पुख्ता पोलिटिकल प्रोफाइल नहीं है। वसुंधरा राजे से मोदी -शाह की अनबन पुरानी है। इसलिए इस बात की आशंका तो कई लोगों को थी कि हो सकता है मोदी शाह वसुंधरा को सीएम न बनने दें। परंतु उनके अलावा जिन नामों का अनुमान लगाया जा रहा था, उसमें से किसी को सीएम नहीं चुना गया।
राजस्थान में ब्राह्मण प्रदेश अध्यक्ष पहले से था, राज्यपाल भी संयोग से ब्राह्मण है। अब ब्राह्मण सीएम भी बन गया। तब सवाल उठता है कि अगर छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में इतना जातीय गणित साधा गया तो राजस्थान में ऐसा क्यों नहीं किया गया? अगर ब्राह्मण मुख्यमंत्री देकर ही राजनीतिक समीकरण साधना था तो उसके लिए राजस्थान से बेहतर जगह मध्य प्रदेश थी।
सन्देश सीधा है, 2024 में केन्द्र में तीसरी बार मोदी सरकार की वापसी के लिए जातीय समीकरणों से अधिक महत्वपूर्ण “मोदी की गारंटी” है। यही लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी का मूलमंत्र भी है और कार्यकर्त्ताओं को सन्देश भी। इन तीन राज्यों में भाजपा द्वारा जिन नामों को सीएम के लिए नामित किया गया, उन्हें खुद इस बात का भरोसा नहीं रहा होगा कि वो सीएम बनने लायक हो गये हैं। हां, मोदी का साया समय के साथ उन्हें परिपक्व सीएम भविष्य में अवश्य बना सकता है। फिलहाल, तो उन्हें 2024 के लिए मोदी-शाह की रणनीतियों को अपने अपने राज्य में लागू करना है और मप्र के नए नवेले मुख्यमंत्री मोहन ने धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर हटाए जाने की घोषणा के साथ इन्हें अंजाम देना शुरू भी कर दिया है।