जिस वर्ग ने अपने समाज की बौद्धिक संपदा पर निवेश किया, वह राजा बना
बौद्धिक संपदा मानकर भी पढ़ने वाले की इज्जत जरूरी
कुमार दुर्गेश
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प्रभुत्व निरंतर वैचारिक युद्ध लड़ने से स्थापित होता है। यह एक दिन, एक साल, एक युग की लड़ाई जीत कर बैठ जाने से नहीं होता है। निरंतर वैचारिक लड़ाई लड़नी पड़ती है।
वैचारिक युद्ध जीतने के लिए साम, दाम, दान, दंड, भेद जरूरी है। भारत में तमाम कुचक्र इन्हीं नीतियों से रचे जाते हैं, इन्हीं के द्वारा तोड़े जाते हैं।
ब्राह्मण, खत्री, वैश्य, कायस्थ, ठाकुर भारत में लंबे समय से शासक वर्ग रहा है। 8 प्रधानमंत्री ब्राह्मण हुए। आपको इसमें आश्चर्य की जरूरत नहीं है। ब्राह्मणों ने अपने हिसाब से साहित्य का सृजन किया है, पढ़ाई-लिखाई के महत्व को समझ कर सदुपयोग किया। बीएचयू जैसे संस्थान के लिए कोई मालवीय, शांति निकेतन के लिए कोई रवींद्र नाथ ठाकुर ओबीसी, दलित जातियों में नहीं दिखाई देता है।
ओबीसी जातियों का माइंडसेट पढ़ाई-लिखाई को सिर्फ कमाई का जरिया भर मानता है। अपर कास्ट पढ़ाई-लिखाई को कमाई का जरिया के साथ-साथ बौद्धिक संपदा मानकर पढ़ने वाले की इज्जत करता है, बढ़ा चढ़ा कर प्रशंसा भी करता है।
मैने दर्जनों ओबीसी स्नातक युवाओं को हिकारत के भाव से यह सवाल उठाते हुए सुना है कि साहित्य, सामाजिक, राजनीतिक, इतिहास की पुस्तकें पढ़ कर क्या होगा। अपर कास्ट में जाहिल से जाहिल व्यक्ति भी ज्ञान के महत्व को कम करने वाला विचार नहीं रखता है।
ऐसे माइंडसेट के कारण ही अपर कास्ट कम संख्या के बावजूद लगातार शासक बना हुआ है। ऐसी ही घटिया मानसिकता के कारण ओबीसी वर्ग का सामूहिक बौद्धिक स्तर रसातल में है और भीड़ भेड़ की तरह है।
इस शताब्दी में भारत में वैचारिक युद्ध काफी तेज होने वाला है। ज्यों ज्यों समतामूलक समाज की दिशा में काम होगा, त्यों त्यों अपर कास्ट वैचारिक युद्ध में एकजुटता से साम, दाम, दान, दंड, भेद का इस्तेमाल करेगा।
अभय कुमार दुबे, वेदप्रताप वैदिक, चित्रा त्रिपाठी जैसे हजारों लोग पैदा करने के लिए अपर कास्ट ने बौद्धिक संपदा पर निवेश किया है। ये अंततः उसी वर्ग के लिए काम आयेंगे।
ओबीसी वर्ग को यह लड़ाई लड़ने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। मगर ओबीसी वर्ग कहाँ है? औरतें खेत में काम करती हैं, थोड़ा समृद्धि आई तो टेलीविजन पर धारावाहिक, सास-बहू के झगड़े देखती हैं। थोड़ा और समृद्धि आई तो सर्राफा बाजार, शापिंग काम्प्लेक्स, सिनेमा हॉल में विचरण करती हैं।
ओबीसी युवा खेत में, नौकरी में, कारोबार में संघर्ष से पार पाते हैं तो जमीन में, मकान में, पूजा में निवेश करते हैं। मगर बौद्धिक संपदा में जीरो निवेश के साथ अपनी अगली पीढ़ी के लिए वैचारिक दरिद्रता छोड़ जाते हैं।
यदि ऐसा ही रहा तो ओबीसी वर्ग के भेड़ों की भीड़ अपर कास्ट के कुमार विश्वासों, मनोज मुंतशिरों की धुन पर थिरकते हुए समता, अधिकार, न्याय, सभ्य होने के मायने का सवाल भूलती रहेगी। वह भूल जाएगा कि उसके विरुद्ध में वैचारिक युद्ध शुरू हैं और वह अपनी शिकस्त पर ताली बजा रहा है।
यह सदीं ज्ञान और जमीन की है। ओबीसी वर्ग जमीन पर है, किन्तु ज्ञान के मामले में कोसों पीछे हैं। जो सोच सकते हैं, समझ सकते हैं, उन्हें चाहिए कि हुश्न और शराब के सिवाय ज्ञान में निवेश का नशा भी जरूरी है।
अंत में
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घर में किताबों का संग्रह कीजिए। विज्ञान, साहित्य, इतिहास, समाज की पुस्तकों में निवेश आने वाली नस्लों के लिए भी काम आएगा।
लेखक सामाजिक चिंतक हैं।