इच्छवाकु वंश, लिच्छवी गणराज्य से लेकर गुप्तकाल तक के प्रमाण हैं यहां
हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म से है इसका है गहरा संबंध
रविशंकर उपाध्याय
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ऐतिहासिक गाथाओं में वर्णित तथा महान परम्पराओं से परिपूर्ण वैशाली भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक है। वाल्मिकी रामायण में यह लिखा हुआ है कि इच्छवाकु वंश के राजा विशाल ने वैशाली की स्थापना की थी।
जब भगवान राम और लक्ष्मण मिथिला जा रहे थे तो उनका स्वागत वैशाली की रानी सुमति ने किया था। वह राजा विशाल की दसवीं पुश्त थीं। वैशाली में आज भी राजा विशाल का गढ़ है, जहां उनके महल के अवशेष हैं।
छठी शताब्दी ई.पू. में यह वैशाली शक्तिशाली लिच्छवी गणराज्य की राजधानी थी। जहां से दुनिया भर में लोकतंत्र की परिकल्पना ने जन्म लिया। इसे चौबीसवें जैन तीर्थकर भगवान महावीर की जन्मस्थली होने का गौरव प्राप्त है।
इस नगर का भगवान बुद्ध तथा बौद्ध धर्म से भी घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। भगवान बुद्ध ने अनेक “वर्षावास” यहाँ व्यतीत किए तथा अन्त में अपने निर्वाण की घोषणा भी वैशाली में ही की। भगवान बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित आठ अनोखी घटनाओं में से एक बन्दरों द्वारा बुद्ध को ‘मधु’ भेंट करना यहीं घटित हुई।
बुद्ध के पवित्र शारीरिक अवशेषों पर लिच्छवियों ने एक स्तूप का निर्माण किया। स्तूप के अवशेष यहाँ आज भी देखे जा सकते हैं। वैशाली को द्वितीय बौद्ध संगीति के आयोजन स्थल का भी गौरव प्राप्त है।
वैशाली के कोल्हुआ ग्राम में मौर्य सम्राट अशोक ने एक पत्थर का सिंह स्तम्भ तथा ईंटों द्वारा निर्मित एक स्तूप का निर्माण कराया। उत्खनन के दौरान शुंग व कुषाण काल के अनेक संकलित एवं छोटे स्तूपों के अवशेष के साथ-साथ कुटागारशाला, संघाराम एवं बौद्ध साहित्य में वर्णित मरकटहृद के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।
चौथी शताब्दी ई. के प्रारम्भ में लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी का विवाह गुप्त राजा चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ हुआ। इस वैवाहिक सम्बन्ध से वैशाली को राज प्रतिनिधि के रूप में महत्व प्राप्त हुआ। गुप्त साम्राज्य के साथ ही वैशाली का भी वैभव समाप्त हो गया। इसकी भव्यता के ‘अवशेषों का कुछ उल्लेख चीनी यात्री हवेन सांग ने भी किया है।
चीनी यात्रियों के उल्लेखों के बाद सर अलेक्जेण्डर कनिंघम ने 1861-62 में इसे प्राचीन वैशाली के रूप में पहचाना। तत्पश्चात टी. ब्लाच (1903- 04 ई.) तथा डी. बी. स्पूनर (1913-14 ई.) द्वारा यहाँ उत्खनन किया गया। हाल के वर्षो में किये गये। वैशाली के अवशेषों पर महत्वपूर्ण सूचनाएँ श्री कृष्णदेव और श्री विजयन्तमिव (1950 ई.) श्री अनन्त सदाशिव अल्टेकर, बी.पी. सिन्हा तथा सीता राम राय (1957-61 ई.) के रिपोर्टों में दी गई है। यहां का पुरातत्व संग्रहालय भी बेहद खास है।
इस संग्रहालय की स्थापना, स्थानीय वैशाली संघ द्वारा संचालित संग्रहालय के विलय के साथ 1971 ई. में हुई। इसमें वैशाली के प्राचीन टीलों के उत्खनन तथा सतह से प्राप्त पुरावशेषों का संग्रह है। ये सभी पुरावशेष लगभग छठी शताब्दी ई. पू. से बारहवी शती ई. के विस्तृत काल से सम्बन्धित है।
संग्रहालय में प्रस्तर प्रतिमाएं, मृण्मय मानव व पशु-पक्षी की खिलौनानुमा आकृतियाँ, हाथी दांत, अस्थि तथा सीप से निर्मित वस्तु आभूषण, मुद्राएं, चांदी व कांसे के आहत सिक्के तथा कांस्य के ढले सिक्के प्रदर्शित हैं।
यही नहीं यहां पहली-दूसरी शताब्दी ई. का ट्वायलेट पैन भी मौजूद है, जो यह प्रमाणित करता है कि यहां महिलाओं का संघ भी मौजूद था, साथ ही यह बताता है कि हम स्वच्छता को लेकर आज से लगभग दो हजार साल पहले संजीदा थे।
इस पुरावशेष की पहचान शौचालय में प्रयोग होने वाले वस्तु के रूप में की गई थी, जो कोल्हुआ उत्खनन में एक संघाराम से प्राप्त हुआ था एवं इसी आधार पर इस संघाराम की पहचान स्त्रियों के संघाराम के रूप में किया गया है।
बौद्ध साहित्यों के अनुसार जब भगवान बुद्ध वैशाली के कूटागारशाला में निवास कर रहे थे तभी उनकी मौसी महाप्रजापति जिन्होंने बालक सिद्धार्थ का लालन पालन भी किया था, का आगमन हुआ। राजा शुद्धोधन की मृत्यु के उपरान्त संतापग्रस्त महाप्रजापति गौतमी भगवान बुद्ध से मिलने पहुँची थी।
आनन्द के अनुरोध एवं काफी वाद विवाद के उपरान्त भगवान बुद्ध ने उन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध अपने 500 सहयोगियों के साथ संघ में प्रवेश की अनुमति देकर नारी को समान अधिकार प्रदान किया था। तत्पश्चात् यहां की राजनर्तकी आम्रपाली को भी संघ में प्रवेश दिया गया। वैशाली की नगरवधू भी इसी महिला संघ की सदस्य हो गई थी। आप जब भी वैशाली जाइए तो इन सभी जगहों पर अवश्य जाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इनकी पुस्तक बिहार के व्यंजन काफी प्रसिद्ध हुई है।)