October 12, 2024 |

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राष्ट्रवाद का हिटलर की तरह उपयोग सही नहीं

Sachchi Baten

खतरनाक राष्ट्रवाद (Dangerous Nationalism)

 

राष्ट्रभक्ति, राजभक्ति और देशभक्ति में अंतर

 

आचार्य निरंजन सिन्हा

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जी हाँ, आप सही पढ़ रहे हैं। राष्ट्रवाद का भी खतरनाक उपयोग होता है या राष्ट्रवाद का खतरनाक उपयोग ही होता है, दोनों ही सही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि राष्ट्रवाद का सकारात्मक एवं रचनात्मक  उपयोग नहीं होता है।

राष्ट्रवाद एक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक उपयोग की एक ऐतिहासिक अवधारणा है। इसमे किसी व्यक्ति, समाज या समुदाय का व्यवहार, विचार एवं आदर्श उस ‘राष्ट्र’ के हित की ओर अभिमुख (Oriented) होता है। अर्थात किसी भी व्यक्ति, समाज, या समुदाय के किसी भी हित को उस ‘राष्ट्र’ के हित के सामने तुच्छ बना देना ही ‘राष्ट्रवाद’ है। मतलब उस राष्ट्र के लिए ‘घोषित हितों’ के सामने कोई भी व्यक्ति, कोई भी समाज या कोई भी समुदाय अपनी छोटी या बड़ी आवश्यकताओं, समस्याओं एवं मांगों को नहीं रखे, नहीं उठाये। यदि किसी व्यक्ति, समाज, या समुदाय को इसके लिए अपना जीवन ही दे देना पड़े, तो यह उसके लिए सौभाग्य की बात होनी चाहिए, यह राष्ट्र की अवधारणा है। यह सैद्धांतिक रूप में राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए होता है, परन्तु व्यवहारिक रूप में इसमें सामान्य जनता ही आती है। यह सब सही भी है, गलत भी है, नैतिक भी है, और अनैतिक भी है।

ऐसा क्यों? एक साथ सब कुछ? ध्यान दें। ऐसा इसलिए कि राष्ट्र के “हित” को कौन परिभाषित करेगा? और उस “राष्ट्र हित” में कौन कौन से तत्व शामिल होंगे? सारा खेल इसी में है। इन तत्वों को ‘पूंजीपति व्यवसायिक समूह’ निर्धारित करेगा। इसको ‘संचार माध्यम’ व्यापक अभिव्यक्ति देगा। ‘राजनीतिक शासन’ इसको संरचनात्मक आधार एवं फिजा (रौनक/ बहार) देगा| और ‘अज्ञानी, मूढ़ एवं नादान समर्थक’ इसको क्रियान्वित करेगा। तभी तो “देशी दंतमंजन का उपयोग” राष्ट्रवाद हो जाता है, और पहले से बनता आ रहा भारतीय “दंतमंजन” का उपयोग राष्ट्रवाद का विरोध हो जाता है। यह भारतीय बाबा का एक राष्ट्रवादी उदाहरण मात्र है। अन्य उदाहरण के लिए आपको इधर उधर नजरें घुमानी होगी। इन तत्वों का सम्यक विश्लेषण आगे करेंगे।

लेकिन राष्ट्रवाद का राजनीतिक उपयोग सबसे ज्यादा धारदार होता है, इसकी नैतिकता और अनैतिकता पर मैं अभी नहीं जाना चाहता हूँ। किसी राज्य या क्षेत्र या देश की जनता किसी को भी चुनती है या बहुमत देती है, तो उनसे एक बड़ी उम्मीद होती है। यह उम्मीद इसलिए होती है, क्योंकि जनता उसकी मंशा को सही मानती है और उसे नैतिक भी मानती है। जनता को उनमें पूरी आस्था होती है और उन पर पूरा विश्वास भी होता है। परन्तु जब राजनीतिक शासन सिर्फ हवाबाजी करती है, या काम कम और बातें ज्यादा करती हो और शासन को भी लंबा चलाना चाहता हो, तो यह “राष्ट्रवाद की दवा” बहुत असरदार होती है। चूंकि जनता को अपने निर्वाचित शासन या शासक की मंशा सही एवं नैतिक लगती है, इसलिए राष्ट्रवाद उस राजनीतिक शासन में उनकी आस्था एवं उनके विश्वास को और बढ़ा देता है तथा और मजबूत कर देता है। लेकिन यह राष्ट्रवादी “दवा” या “टानिक” किसी के “भोजन” का यानि किसी की भौतिक मूलभूत आवश्यकताओं का विकल्प नहीं हो पाता। इसका परिणाम यह होता है, जो कमोबेश हिटलर का हुआ था। हिटलर ने राष्ट्रवाद का उपयोग ऐसा ही किया। वह खुद एक साधारण सिपाही जैसे निम्न स्तर से निर्वाचित होकर ऊपर तक पहुंचा। लेकिन उसके समर्थक अंधभक्त भी जल्दी ही या कुछ समय में उस राष्ट्रवाद के खोल को पहने उस “जीव” को पहचान और समझ जाते हैं।

राष्ट्रवाद को समझने के लिए हमें ‘राजनिष्ठा’ यानि ‘राजभक्ति’, ‘देशनिष्ठा’ यानि ‘देशभक्ति’, और ‘राष्ट्रनिष्ठा’ यानि ‘राष्ट्रभक्ति’ को समझना चाहिए। सामान्यत: लोग इन तीनों में अंतर नहीं करते, और शासन भी यही चाहता है कि लोग ‘राजभक्ति’ को ही ‘देशभक्ति’ और ‘राष्ट्रभक्ति’ समझ ले। किसी व्यक्ति की राजनिष्ठा/ राजभक्ति (Royalism) उस राज्य, क्षेत्र या देश की ‘शासन व्यवस्था’ (Administrative System) या ‘शासक व्यक्ति’ (Ruler Person) में होती है। इस निष्ठा या भक्ति में उन लोगों की उनके प्रति श्रद्धा एवं आस्था होती है, विश्वास की शायद जरूरत ही नहीं होती है। आप भी जानते होंगें कि श्रद्धा एवं आस्था के लिए ‘तर्कसंगतता’ की जरुरत नहीं होती, परन्तु विश्वास ‘तर्क’ यानि ‘वैज्ञानिकता’ खोजता है। भारत में ‘राजभक्ति’ का आधार बहुत से लोगों के के लिए उस ‘राजव्यक्ति’ (Ruler) की ‘जाति’ के कारण होता है, अधिकतर के लिए उस ‘राजव्यक्ति’ का ‘धर्म’ होता है, और बहुत कम के लिए ‘राजव्यक्ति’ की शासन व्यवस्था की गुणवत्ता होती है।

किसी व्यक्ति की देशनिष्ठा/ देशभक्ति (Patriotism) उस देश के प्रति होती है, उस देश की जनता के प्रति होती है, उस देश की सम्पत्ति एवं सम्पदा के प्रति होती है, उस देश की सामासिक (Composite) संस्कृति के प्रति होती है, उस देश की अधिसंरचना एवं संरचना के प्रति होती है और ‘संभाव्य’ विकास के प्रति भी होती है। इसके लिए ‘तर्कसंगतता’ प्रमुख होती है, जबकि ‘राष्ट्रभक्ति’ में ‘भावना’ प्रमुख होता है। एक ‘देशभक्त’ अपने देश के सभी लोगों से प्यार करता हैं, जबकि एक ‘राष्ट्रभक्त’ अपने ही देश में “अपने लोगों’ की परिभाषा ही बदल देता है, क्योंकि राष्ट्र की अवधारणा में कुछ ऐसे ही तत्व होते हैं। एक ‘देशभक्त’ अपने देश में प्रतिक्रियावादी नहीं होता, जबकि एक ‘राष्ट्रभक्त’ अपने ही देश के किसी की संस्कृति, या भाषा, या परम्परा, या रिवाज, या पोशाक, या खानपान, या वेशभूषा, या आचार व्यवहार आदि के प्रति ‘प्रतिक्रियावादी’ हो सकता है या होता है।

राष्ट्रनिष्ठा/ राष्ट्रभक्ति (Nationalism) में ‘तर्कसंगतता’ के स्थान पर ‘भावनात्मकता’ प्रमुख होता है। वैसे भी ‘तर्क’ और ‘भावना’ में भावना ही तर्क पर हावी होता है, क्योंकि तर्क ‘बौद्धिकता’ से या ‘मस्तिष्क’ के निकट है और भावना उसके ‘दिल’ से निकलता है। राष्ट्रभक्ति में अपने लोगों से प्यार होता है, परन्तु दुसरे लोगों से घृणा भी होता है। अर्थात राष्ट्रभक्ति में अपने देश के “कुछ अपने लोगों” से प्यार होता है, लेकिन अपने ही देश के कुछ लोगों से घृणा भी होता है। यहाँ “अपने लोगों” की परिभाषा यानि अवधारणा अपने ही देश में अलग अलग भाषा/ संस्कृति/ धर्म या किसी अन्य के आधार पर अलग अलग हो सकती है और उसी ‘अपने’ और ‘पराये’ के अनुसार भयंकर प्रतिक्रिया के लिए भी तत्पर रहते हैं।

इसे ही आधुनिक युग में कुछ आधुनिक विचारक तथाकथित ‘राष्ट्रभक्ति’ के नाम पर देश को ही खंडित करने की साजिश समझते हैं, तो कुछ मात्र देश को ही ‘नुकसान’ करने को मानने तक सीमित रहते हैं। वास्तव में उस विशिष्ट ‘राष्ट्र’ को तो फायदा हो सकता है, परन्तु उस देश को तो निश्चित ही नुकसान होता है। यहाँ उस ‘राष्ट्रभक्त’ के ‘राष्ट्र’ की परिभाषा का आधार को समझना होगा कि उसका ‘राष्ट्र’ उसके ‘धर्म’ पर आधारित है, या उसके ‘भाषा’ पर आधारित है, या और किसी अन्य आधार (जाति या अन्य) पर आधारित है यानि वही तक सीमित है।

‘राष्ट्र’ (Nation) एक ‘काल्पनिक वास्तविकता’ (Imaginary Reality) है, जो एक ‘राष्ट्र राज्य’ (Nation State) के रूप में ही मूर्त होता है। एक ‘देश’ (Country) एक भौगोलिक सीमाओं में एक क्षेत्र होता है, जिसकी आबादी अपने में “ऐतिहासिक अपनापन” (Historical Affinity) महसूस करती है। ‘राष्ट्र’ के ‘राष्ट्र- राज्य’ में नहीं आने तक यह ‘राष्ट्र’ एक महज कल्पनाओं का विचार होता है। इस तरह एक ‘राष्ट्र’ एक ‘परिप्रेक्ष्य’ (Perspective) है, एक ‘अनुभव’ (Experience) है, और एक ‘अनुभूति’ (Feeling) है। इस ‘राष्ट्र’ यानि ‘राष्ट्रवाद’ में सामूहिक विश्वास होता है, सामूहिक आकांक्षा होती है, और कल्पनाओं पर आधारित ‘उड़ान’ होती है। इसमें कुछ ख़ास मान्यता बनाई जाती है। किसी ने इसका उपयोग ‘समाजवाद’ को स्थापित करने के लिए किया, तो किसी ने पूंजीवाद को और मजबूत करने के लिए इस ‘राष्ट्रवाद’ को अपनाया।

जोसेफ स्टालिन की परिभाषा के अनुसार एक राष्ट्र एक ‘’ऐतिहासिक ऐक्य’’ (Historical Oneness) की भावना है, जो एक लम्बे इतिहास में एक साथ रहने, भोगने और झेलने से आती है। अधिकतर यूरोपियन इसे धर्म, भाषा, या संस्कृति के आधार तक सीमित मानते हैं, जबकि इन परिभाषाओं को सर्व स्वीकार्य नहीं माना जाता। राष्ट्रवाद का इतिहास कोई तीन सौ साल भी पुराना नहीं है, परन्तु राष्ट्रवाद एक बेहद शक्तिशाली उपकरण (Tool) है, हथियार (Weapon) है, विचार (Thought) है, और मशीन (Machine) है। मशीन वह युक्ति (Device) होती है, जो बल (Force) एवं शक्ति (Power) की मात्रा (Quantity) एवं दिशा (Direction) ही बदल देती है।

विक्टर ह्यूगो ने एकबार विचारों की शक्ति को रेखांकित किया था। राष्ट्रवाद भी एक विचार है। एक विचार का जब ‘उपयुक्त समय’ आता है, तो वह विश्व की सबसे शक्तिशाली सैन्य शक्ति से भी शक्तिशाली हो जाता है, अर्थात  एक ‘उपयुक्त विचार’ विश्व की सबसे शक्तिशाली सैन्य शक्ति से भी शक्तिशाली हो जाता है। एक ‘राष्ट्र’ एक ‘भूराजनीतिक’ (Geo Political) अवधारणा हो सकता है, जबकि एक ‘देश’ एक ‘राजनीतिक भूगोल’ (Political Geography) की अवधारणा होता है|

राष्ट्रवाद के प्रतिपादक जॉन गॉटफ़्रेड हर्डर थे, जिन्होंने पहली बार इस शब्द का प्रयोग कर जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली। एक राष्ट्र कुछ संकेतों, प्रतीकों, विचारों, और आदर्शों के साथ व्यक्त होता है। यह एक विशाल अपरिचित आबादी को एक बंधन में बांधता है। यह एकता का  सबसे शानदार उपकरण है। जब राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा को जबरदस्ती लागू करवाया जाता है, तब यह ‘अतिराष्ट्रवाद’ या ‘अंधराष्ट्रवाद’ कहलाता है। राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा में अन्य के अलावा “तथाकथित धर्म” ही प्रमुख होता है, और यह “तथाकथित धर्म” राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा के कठोर आवरण में यही “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” ही “सही राष्ट्रवाद” हो जाता है। यहाँ यह ध्यान रहे कि किसी की ‘मूल संस्कृति’ से किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती है, परन्तु इस तथाकथित ‘मूल संस्कृति’ के आड़ में बौद्धिक षड्यंत्र कर साजिश कर दिए जाने में ही आपत्ति है।

और यह ‘राष्ट्रवाद’ एक ऐसी ‘दवा’ है, जिसे ‘सूंघने’ मात्र से ‘अच्छे अच्छे बुद्धिमान’ भी ‘पालतू’ (Domestic) की तरह ‘हांक’ (Drive) लिए जाते हैं। इस तरह यह ‘अतिराष्ट्रवाद’ या ‘अंधराष्ट्रवाद’ की चरम अवस्था को पाता है। राष्ट्रवाद के धार्मिक संस्करण के दो उदाहरण ईरान का इस्लामिक राष्ट्रवाद और भारत का हिन्दू राष्ट्रवाद है। इसके प्राप्त होने पर उस देश में सांस्कृतिक विविधता भी खत्म होने लगती है या सांस्कृतिक विविधता को मिटा दिया जाता है।

राष्ट्र एक संस्था (Institute) है। यह सबसे ‘सम्मोहक’ (Compelling/ Killing) राजनीतिक सिद्धांत है, जो बिना कोई काम किये ही जनता को ‘मोह’ (Fascinate) लेता है। इसीलिए चतुर राजनेता और राजनीतिक दल इसका उपयोग करते हैं, हालाँकि इसके दुरुपयोग के भी बहुत उदाहरण उपलब्ध हैं। एक हथोड़े से किसी की हत्या भी की जा सकती है, और उसी से निर्माण भी किया जा सकता है। इस ‘राष्ट्र की अवधारणा’ ने इतिहास के रूपांतरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसने राज्यों के भूगोल को बदला है, शासन के इतिहास को बदला है, और शासन व्यवस्था को नियंत्रित भी किया है। राष्ट्रवाद के आधार पर बने कार्यक्रम, आयोजन एवं राजनीतिक परियोजना में उस राष्ट्र के सदस्यों से अपेक्षा की जाती है, कि वे अपनी विभिन्न अस्मिताओं के ऊपर राष्ट्र के प्रति निष्ठा को ही प्राथमिकता देंगे और तथाकथित राष्ट्रीय हितों के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देंगे, अपने प्राणों को भी कुर्बान कर देंगे।

यह ‘राजभक्ति’, ‘देशभक्ति’, और ‘राष्ट्रभक्ति’ को समझने के लिए संक्षेप में व्याख्यापित किया गया है।

 

(लेखक आचार्य निरंजन सिन्हा ने बिहार राज्य कर विभाग पटना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है। आलेख में व्यक्ति विचार उनके अपने हैं। उनके अन्य आर्टिकल  आप https://niranjan2020.blogspot.com/ पर भी पढ़ सकते हैं।)


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