राजस्व विवादों में प्रदेश बन रहा हत्याओं का सिरमौर
-राजस्व विभाग भ्रष्टाचार का बन गया है अड्डा
-संगठित अपराध कम हुए, पर जमीनी विवादों में बढ़ी हत्याएं
-69 हजार से अधिक रेवेन्यू केस पेंडिंग
-रसूख और बाहुबलियों मात्र की सुनते हैं राजस्व अधिकारी
हरिमोहन विश्वकर्मा, लखनऊ। ज़मीन से जुड़े विवाद के बाद देवरिया नरसंहार सहित दूसरी हत्याएं प्रदेश में कानून व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा करती हैं। राज्य से संगठित अपराध के खात्मे के बावजूद राजस्व विवाद से जुड़ी हत्याएं राजस्व विभाग एवं पुलिस की लापरवाही और भ्रष्टाचार का नतीजा हैं।
राज्य के कुल 2333 राजस्व न्यायालयों में चल रहे 7 लाख से ज्यादा जमीन विवाद के मुकदमे इसकी भयावहता की कहानी खुद कहते हैं। प्रदेश के 350 तहसीलों में हजारों ऐसे मुकदमे हैं, जिन्हें राजस्व कर्मियों की सूझबूझ से सुलझाया जा सकता है, लेकिन लेखपाल से लेकर एसडीएम और पुलिस तक की कमाऊ नीति और भ्रष्टाचार ऐसा होने देने में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है।
उत्तर प्रदेश में होने वाली हत्याओं एवं जानलेवा मामलों का एक बड़ा हिस्सा तहसील एवं पुलिस प्रशासन के भ्रष्टाचार एवं धन उगाही का नतीजा होता है। उच्च स्तर से निर्देश के बावजूद तहसील पर बैठा अधिकारी जमीन संबंधी विवादों का शीघ्रता से निपटारा करने की बजाय कमाने का रास्ता तलाशता है।
पिछले साल अक्टूबर में भूमि की सीमा संबंधी विवाद के लगभग 66,000 मामले लंबित थे। इनमें ज्यादातर मुकदमे पूर्वी उत्तर प्रदेश से जुड़े हुए हैं। पश्चिमी यूपी में स्थिति थोड़ी बेहतर है। यहां जोत बड़ी होने के चलते जमीनी विवाद कम है। पूर्वी यूपी में जनसंख्या घनत्व अधिक है, लिहाजा जोत भी छोटी है।
जोत छोटी होने के चलते पैमाइश के मामले ज्यादा होते हैं। पूर्वी यूपी में खेतों के सीमांकन को लेकर अक्सर विवाद होते हैं, लेकिन ये ऐसे मामले हैं, जिन्हें राजस्वकर्मी आसानी से सुलझा सकते हैं। पैमाइश कराकर ऐसे विवादों को कुछ घंटों में सुलझाया जा सकता है, लेकिन धन उगाही के लिये ऐसे मामलों को लटकाया जाता है, और नतीजा हत्या और मारपीट की घटना में सामने आती है।
देवरिया जैसा कोई जघन्य कांड हो जाए तो शीर्ष स्तर पर सक्रियता से जिम्मेवार अधिकारियों और कर्मचारियों पर कार्रवाई होती है, लेकिन ज्यादातर मामलों में उन पर कोई आंच नहीं आती। आंकड़ों को देखें तो रिवेन्यू से जुड़े 69,786 केस कोर्ट में पेंडिंग पड़े हुए हैं।
योगी सरकार एवं कोर्ट की सक्रियता से बीते पांच सालों में राजस्व से जुड़े कुल 223573 केस का निपटारा हुआ है, लेकिन तहसील एवं राजस्व परिषद स्तर पर भी लाखों केस अभी पेंडिंग हैं। जमीन संबंधी विवादों में लेखपाल से लेकर एसडीएम और पुलिस का पहला प्रयास उगाही का होता है।
जमीन विवाद का निपटारा कराने की बजाय पूरा सिस्टम वसूली के प्रयास में जुट जाता है, और मामले को बेहद पेचीदा बना देता है। जो पक्ष पैसा देने में सक्षम होता है, उसके हिसाब से मामले को उलझाया जाता है, जैसा कि देवरिया के प्रेम यादव मामले में हुआ। परिणाम यह होता है कि यह विवाद सालों साल चलते रहते हैं, और किसी दिन जघन्य कांड में तब्दील हो जाते हैं।
जमीन विवाद का एकमात्र कारण बाहुबलियों की दबंगई ही सही, यह बात भी सही है कि जमीन विवाद के अधिकांश मामलों में यादव, ठाकुर या ब्राह्मण बिरादरी के लोग ही प्रतिवादी नजर आ रहे हैं। समर्थ होने के चलते जमीन विवाद विकराल रूप ले लेते है जिसका भी बड़ा कारण राजस्व विभाग एवं अधिकारियों का रवैया है। देवरिया कांड में भी तहसील प्रशासन का कमाऊ रवैया घटना का बड़ा कारण रहा है।
एक और हाल में मामला यूपी के ही जौनपुर जिले में आया है, जहां पूर्व डीजीपी जगमोहन यादव पर गांव में मंदिर की 8 बीघे जमीन पर अवैध कब्जे का आरोप लग रहा है। जौनपुर के मुंगरा बादशाहपुर थाना क्षेत्र के तरहटी गांव निवासी पूर्व डीजीपी जगमोहन यादव को कोई कमी नहीं है। उन्होंने तरहटी गांव में मंदिर की जमीन पर कब्जा कर लिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर जगमोहन यादव के खिलाफ मुकदमा तो दर्ज हो गया है, लेकिन पूरी सरकारी मशीनरी उनके दबाव में काम कर रही है।
मंदिर की जमीन ही नहीं गांव में कमजोर लोगों की जमीनों पर भी जगमोहन यादव ने दावा ठोक रखा है। ग्राम प्रधान चंद्रेश गुप्ता ने पुलिस में तहरीर देकर कहा है कि विरोध करने पर वो जान से मारने की धमकी दे रहे हैं लेकिन इतना सब होने के बावजूद सरकारी अमला अपने पूर्व डीजीपी के साथ है।
कुछ ऐसा ही मामला अभी झाँसी में आया है। हालांकि यहां बवाल होने के पहले ही नगर निगम ने बुलडोजर चलवाकर 40 करोड़ की ज़मीन समतल करवा ली है। पिछले 40 साल से 10 पुलिस वालों के परिवार यहां राजस्व विभाग की मिलीभगत के चलते कब्जे कर रह रहे थे।
वास्तव में एक समय ऐतिहासिक महत्व के रानीमहल में कभी कोतवाली हुआ करती थी। तभी नगरपालिका ने पुलिस के परिवारों को रहने के लिए 1938 में यह ज़मीन औपचारिक रूप से दे दी थी। बाद में कोतवाली नई बिल्डिंग में शिफ्ट हो गई, पुलिस कॉलोनिया बन गई, पर कुछ पुलिस वालों ने ये कब्ज़ाए हुए क्वार्टर नहीं छोड़े। उलटे खाली करने के नाम पर 10-10 लाख की मांग और कर डाली। अगर नगर निगम और जिला प्रशासन सख्त न होता तो यहां भी हादसे संभावित थे।