लगता नहीं कि वही भाजपा है, जिसका गठन अटल-आडवाणी ने किया था
राजेश पटेल
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छह अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। संस्थापक श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी और भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी थे। पहले अध्यक्ष अटल जी बने। 1984 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के मात्र दो सांसद जीते। अटल-आडवाणी नहीं। गुजरात की मेहसाणा से एके पटेल और आंध्र प्रदेश की हनामकोंडा सीट से चंदूपाटिया जंगा रेड्डी जीते थे। अटल-आ़डवाणी ने संयम नहीं खोया। भाषा की मर्यादा को बनाए रखा।
खैर, इसे छोड़िए। कमजोर तो नम्र होता ही है। अटल जी के पास जब सत्ता की ताकत थी, तब भी उन्होंने दुरुपयोग नहीं किया। विरोधी पार्टियों को तोड़ने के लिए नहीं किया। याद होगा, जब अपनी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के दौरान सदन में भाषण में कहा था कि जोड़-तोड़ से सरकार बने, तो मैं उसकी प्रधानमंत्री रहना पसंद नहीं करूंगा। चाहते तो कुछ भी कर लेते। प्रधानमंत्री थे।
वाजपेयी पहले नेता थे, जो गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने थे। वाजपेयी ने तीन बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। एक 13 दिन, दूसरी बार 13 महीने और फिर पूरे पांच साल तक रहे। अटल सरकार के खिलाफ विपक्ष तीन बार अविश्वास प्रस्ताव लाया, जिसमें से विपक्ष एक बार ही कामयाब हो सका और एक वोट से अटल सरकार गिर गई थी।
1996 के चुनाव परिणामों के बाद 16 मई 1996 को अटल बिहारी वाजपेयी ने देश के 11वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी। लेकिन एक मत के चलते बीजेपी बहुमत सात नहीं कर पाई, परिणाम स्वरूप समय से पहले ही बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा और सरकार 13 दिन बाद गिर गई थी।
दरअसल, बीजेपी को लोकसभा में 161 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 140 सीटें मिली थीं, लेकिन फ्लोर टेस्ट के दौरान वाजपेयी सरकार के पक्ष में 269 वोट और उनके विरोध में 270 वोट पड़े थे। इस्तीफा देने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में यादगार भाषण दिया था। उन्होंने लोकसभा में कहा था कि सदन में एक व्यक्ति की पार्टी है, वो हमारे खिलाफ जमघट करके हराने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें पूरा अधिकार है।
ईडी, सीबीआइ, इनकम टैक्स विभाग उस समय नहीं था, ऐसी बात नहीं है। अटल ऐसे नेता थे, जिनको विरोधी विचारधारा के लोग भी सुनते थे। जहां खड़ा होकर भाषण देना शुरू करते थे, वहीं पर रेला लग जाता था। अंतिम सांस तक राजनीति की शुचिता और भाषा की मर्यादा को कायम रखा। तोड़-फोड़ की राजनीति को कभी पसंद नहीं किया।
आज वही भारतीय जनता पार्टी है और अटल-आडवाणी के शिष्य इसके कर्ता-धर्ता हैं। तीसरी बार सत्ता में आने की हवश ने अटल की विचारधारा को काफी पीछे छोड़ दिया। पहले दागी बताओ, उसके पीछे ईडी, सीबीआइ, आयकर विभाग छोड़कर उसे भाजपा में शामिल होने को विवश करो। यही काम तो हो रहा है।
असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा से लगायत मुकुल रॉय, अशोक चह्वाण, मधु कोड़ा की सांसद पत्नी गीता कोड़ा सहित ढेरों नाम हैं, जिनका भूत जगजाहिर है। अभी राज्यसभा चुनाव के दौरान जो हुआ है और जो हो रहा है, उसे भी देख रहे हैं। उत्तर प्रदेश के ऊंचाहार विधानसभा सीट से विधायक मनोज पांडेय के बारे में कौन नहीं जानता कि उन्होंने क्यों अखिलेश यादव का साथ छोड़ा। जिनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में इसी योगी सरकार ने विजिलेंस को खुली जांच करने का आदेश दिया हुआ है।
इस आदेश के करीब तीन साल हो गए, जांच पूरी है या अधूरी। इसमें क्या निकल कर आया। कोई नहीं जानता। राज्यसभा चुनाव में यह हथियार बनेगा, कोई नहीं जानता था। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को ही लूट लेने की योजना पर तेजी से काम चल रहा है। वहां सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। कांग्रेस के अंदर स्थितियां नहीं संभलीं तो कभी भी सुक्खू सरकार को इस्तीफा देना पड़ सकता है।
सवाल उठ रहा है कि क्या यही अटल-आडवाणी वाली भारतीय जनता पार्टी ही है, जिसके पहले अध्यक्ष की सरकार एक वोट से गिर गई और उन्होंने तोड़-फोड़ की राजनीति नहीं की। जिस हिंदुत्व की फसल को भाजपा की मौजूदा पीढ़ी काट रही है, उसे अटल-आडवाणी ने अपने खून-पसीने से सींचा है। उनके विचारों को कुछ तो आत्मसात करते। लोकतंत्र में सत्ता आती है, जाती है। स्थायी रहते हैं विचारों के सपने। जिनको साकार करने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए, लेकिन नैतिकता के साथ। अटल जी ऐसा ही करते थे। अटल जी के 16 अगस्त 2018 को निधन होने के बाद उनके अस्थिकलश को देश भर में घुमाया गया। अगले साल 2019 की प्रथम व दूसरी तिमाही में लोकसभा का चुनाव था।
उनके आदर्शों पर चलने की कसमें इतनी बार खाई गईं कि गिनती की पराकाष्ठा भी पार हो गई। काश, इस शपथ को याद कर कुछ कदम तो उसके अनुसार चलने का प्रयास करें। यदि ऐसा होता है तो लोकतंत्र की जय होगी। लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च है। लेकिन यहां वोट लेने के बाद नेता निरंकुश हो जा रहे हैं। अटल जी होते तो ऐसा हरगिज नहीं होने देते, जैसा आज उनकी पार्टी कर रही है। भाजपा के बढ़ते ग्राफ में जो ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं दिख रही हैं, वह अट्टहास कर रही हैं। मानो अटल जी को मुंह चिढ़ा रही हों कि लो… तुम्हारी भाजपा को भी अलग कहलाने लायक नहीं छोड़ा।
(राजेश पटेल इस पोर्टल के प्रधान संपादक हैं।)