September 10, 2024 |

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अनुप्रिया पटेल को अभी नीतीश कुमार के बराबर तौलना कुर्मी समाज की नासमझी का परिचायक

Sachchi Baten

उतावलापन कुछ ज्यादा ही है यूपी के कुर्मी समाज में

 

राजेश पटेल

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उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज में उतावलापन कुछ ज्यादा है। शायद इसी कारण उत्तर प्रदेश में इस समाज का कोई मजबूत नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आ पा रहा है। वह चाहता है कि समाज का जो भी नेता उभरे, उसके हाथ में जादू की छड़ी हो। उसे घुमाए और समस्याओं का हल सामने आ जाए। उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज के तथाकथित ठीकेदारों को शायद यह नहीं पता कि नेतृत्व एक दिन में तैयार नहीं होता है। इसके लिए वर्षों या दशकों तक इंतजार करना पड़ता है। और एक नेता के पीछे चलना होता है।

आजादी के बाद प्रमुख पदों पर तमाम कुर्मी नेता आसीन हुए, लेकिन समाज की इसी प्रवृत्ति के कारण वे सर्वमान्य नेता नहीं बन सके। इनमें कुछ नामों को गिनाना जरूरी है, जिनके निधन के बाद तो उनकी जयंती व पुण्यतिथि मनाते तो हैं, लेकिन जब तक जीवित रहे, उनके पीछे चलने में अपनी तौहीनी समझते रहे। महामना रामस्वरूप वर्मा, चौधरी नरेंद्र सिंह, जय राम वर्मा जी, रामदेव वर्मा आदि आदि। डॉ. सोनेलाल पटेल के पीछे यह समाज नहीं चला तो और क्या बात की जाए। डॉ. सोनेलाल पटेल के पास इतनी संपत्ति थी कि वह चाहते तो आजीवन बैठकर लग्जरी जीवन का आनंद ले सकते थे।

लेकिन, डॉ. पटेल को राजनीति में कुर्मी समाज की उपेक्षा देखी नहीं गई और घर-परिवार छोड़कर मैदान में कूद पड़े। घर में पत्नी और चार बेटियों को छोड़कर खेत-खलिहानों में पुआल पर सोना उनको अच्छा लगने लगा था। क्योंकि वह ठान चुके थे कि राजनीति में कुर्मी समाज की हैसियत स्थापित करनी है। लेकिन अफसोस इस बात का कि उनको समाज ने एमएलए लायक भी नहीं समझा।

पुलिस की पिटाई में अधमरा हो जाने के बावजूद प्रदेश स्तर पर एकजुट होकर कुर्मी समाज आंदोलन भी नहीं कर सका। उनके समकालीन कुर्मी नेता ही उनका तिरष्कार करते थे। वोटकटवा तक बोलते थे। हालांकि इन सब बातों का उनकी सोच व सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता था। वह दूरद्रष्टा थे। जानते थे कि जब किसी परिवर्तन के लिए यात्रा शुरू होती है तो सबसे पहले विरोध अपने लोग ही करते हैं। उनकी पहचान कुर्मी नेता के रूप में भले बन गई थी, लेकिन कुर्मी उनको नेता नहीं मानते थे। अब जब वह नहीं हैं तो उनकी जयंती व पुण्यतिथि लोग मनाते हैं और कहते हैं कि आजादी के बाद कुर्मी समाज में राजनैतिक चेतना जगाने का काम डॉ. सोनेलाल पटेल ने किया। किसी अन्य ने नहीं।

इतना झेलने के बाद भी कुर्मी समाज की स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखता। खासकर उत्तर प्रदेश में। बिहार की स्थिति बदल गई है। वहां के कुर्मी नीतीश कुमार को अपना नेता मान चुके हैं। अकेले कुर्मी के दम पर सत्ता के शीर्ष पर बैठना असंभव है। इस बात को बिहार के कुर्मी जानते हैं। इसलिए नीतीश कुमार भाजपा के साथ रहें या राजद के। कुर्मी उनके ही साथ रहेंगे। समाज का निर्विवाद समर्थन मिलने से ही नीतीश कुमार पर्याप्त विधायक न रहने के बावजूद बिहार की सत्ता पर लंबे समय से काबिज हैं। बिहार के कुर्मी बिना शर्त उनके साथ हैं।

इधर उत्तर प्रदेश में स्थिति इसके ठीक विपरीत है। डॉ. सोनेलाल पटेल की बेटी यूपी में कुर्मी नेता के रूप में जानी जाती हैं। 2014 से वह भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। वह जानती हैं कि ताकत बढ़ाने के लिए सहारा चाहिए ही होता है। अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाने के लिए दूसरी पार्टी का सहारा लेने वाली कोई पहली नेता नहीं हैं। इसके पहले बहुजन समाज पार्टी ने भी ऐसा ही किया था। और पहले जाएं तो चौधरी चरण सिंह भी मुख्यमंत्री खुद की पार्टी की बदौलत ही नहीं बन पाए थे। वीपी सिंह ने भी जनमोर्चा बनाया था, जिसमें कई पार्टियां शामिल थीं। यदि अनुप्रिया पटेल भी अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाने के लिए यह कर रही हैं तो कौन सा गुनाह कर रही हैं।

जबसे महिला आरक्षण बिल संसद में पारित हुआ है, दूसरे लोग कम, कुर्मी समाज के लोग अनुप्रिया पटेल को ज्यादा निशाने पर लिए हुए हैं। जबकि इसमें उनकी कोई गलती नहीं दिखती। उन्होंने तो संसद में अपने भाषण में कहा ही था कि विपक्ष के लोग यदि इसमें ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण की बात कर रहे हैं, तो वह गलत नहीं हैं। वह साफ कहती हैं कि विधानसभा और संसद में संख्या बल का खेल होता है। जो बहुमत में होता है, वह अपनी बात मनवा लेता है।

इसके बाद बिहार में जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी हुई तो इस पर कुर्मी समाज के लोग उनको निशाने पर लिए हुए हैं। जबकि अनुप्रिया पटेल जातीय जनगणना की मांग अरसे से करती रही हैं। संसद में भी इस मुद्दे को कई बार उठाया है। संसद के बाहर भी लगभग हर मीटिंग में और मीडिया के सामने इसको लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराती रहती हैं। कुर्मी समाज के लोगों को इतनी सी बात समझ में नहीं आती है केंद्र व उत्तर प्रदेश की सरकार उनके भरोसे नहीं है। यदि दोनों सरकारों से यदि अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल एस इन मुद्दों को लेकर समर्थन वापस भी ले ले तो भी सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

नीतीश कुमार ने भी जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी करने के बाद कहा कि इसकी मांग वह लंबे समय से करते चले आ रहे थे। केंद्र में मंत्री थे, तभी से। नीतीश कुमार की इस बात को उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज को समझना चाहिए कि वह कहना क्या चाहते हैं। इसी तरह से अनुप्रिया पटेल केंद्रीय मंत्री हैं, इसके बावजूद ओबीसी, एससी और एसटी के मुद्दों को उठाने से परहेज नहीं करतीं। लोकसभा में अब उनकी पार्टी के सदस्य मात्र दो हैं, जिनमें एक खुद हैं तो उनकी बात सुनेगा कौन।

अनुप्रिया पटेल को नीतीश कुमार की तरह निर्णय लेने वाला बनाने के लिए कुर्मी समाज को इंतजार करना होगा। इससे भी बड़ी बात यह है कि उनके पीछे बिना शर्त चलना पड़ेगा। अभी तो उनके राजनैतिक कैरियर की शुरुआत ही कह सकते हैं। यह अलग बात है कि अपने राजनैतिक कौशल की बदौलत वह केंद्र में राज्य मंत्री का पद पा गई हैं। ताकत बढ़ रही है। उनको सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाना कुर्मी समाज की ही जिम्मेदारी है। नीतीश के मामले में बिहार के कुर्मी इसी तरह की समझदारी दिखा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के कुर्मियों को भी उतावलापन छोड़कर यह समझदारी दिखानी चाहिए।

 

-लेखक www.sachchibaten.com के प्रधान संपादक हैं

 

 


Sachchi Baten

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