जो हुआ ही नहीं, उसे हुआ बताकर धार्मिक उन्माद फैलाने की सुनियोजित कोशिश थी महाकाल की घटना
बादल सरोज
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खबर यह है कि इंदौर हाईकोर्ट ने उज्जैन के अदनान मंसूरी को जमानत दे दी है। वे पिछले पांच महीनों से जेल में थे। कोर्ट में आये तथ्यों से भी पुष्टि हो गयी है कि असल में वैसी कोई घटना हुई ही नहीं थी। मगर यह खबर सिर्फ इतनी भर नहीं है, इस पर आने से पहले जान लेते हैं कि मामला क्या है?
हुआ यह था कि हर वर्ष सावन के महीने के सोमवार को महाकाल की सात सवारी निकाली जाती हैं। पिछले वर्ष जुलाई माह में श्रावण मास होने के कारण यह 17 जुलाई 2023 को निकाली जा रही थी। सवारी के रास्ते में अशरफ हुसैन मंसूरी का मकान पड़ता है। अचानक हो हल्ला मचा कि मकान के ऊपर खड़े दो बच्चों में से किसी ने निकल रही सवारी पर थूक दिया है।
शोर शराबा हुआ और इसके बाद गोदी मीडिया ने अपना मोर्चा संभाल लिया। हिंदुत्ववादी संगठनों ने आसमान सिर पर उठा लिया। स्थानीय पुलिस शाम तक दोनों बच्चों और एक और कथित आरोपी अदनान मंसूरी जो कि अशरफ हुसैन का बेटा है और मुश्किल से 18 साल का हुआ था, उसे गिरफ्तार करके थाने पर ले आई।
धारा 95 ए सहित चार अन्य धाराएं तीनों पर लगा दी गईं। इन मुकदमों में बच्चों को बाल सुधार गृह और अदनान को जेल भेज दिया गया। दो महीना- पूरे 68 दिन- बाद दो नाबालिग बच्चों को बाल न्यायालय से जमानत मिल गई और उसके बाद 151 दिन बाद आरोपी अदनान को इंदौर हाईकोर्ट ने जमानत दे दी ।
इस मामले में जिसे भयानक रूप से तूल दिया गया था का सच तब सामने आया जब शिकायतकर्ता सावन लोट- जो कि इंदौर निवासी है और उज्जैन में सवारी देखने आया था- ने अदालत में बयान देकर एफआईआर के प्रमुख बिंदुओं से इनकार कर दिया। इसी के साथ दूसरे गवाह अजय खत्री ने भी आरोपियों को पहचानने से इनकार कर दिया।
प्रमुख शिकायतकर्ता सावन लोट ने बताया कि हम तो सवारी देखने गए थे और गिरफ्तारी के बाद उत्सुकता में भीड़ के साथ-साथ थाने चले गए। वहां पुलिस ने बुलाकर हमारे हस्ताक्षर करवा लिए। उच्च न्यायालय ने इस मामले में एक बात और पायी कि जांच अधिकारी ने आरोपियों की शिनाख्त परेड भी नहीं कराई थी। उच्च न्यायालय ने मामले में संज्ञान लेते हुए अदनान को भी जमानत दे दी।
बहरहाल खबर इतनी भर भी नहीं है, खबर यह है और पर्याप्त डरावनी है कि उकसावेपूर्ण वारदातें गढ़ने, उनकी खबरें चलाने और जनता में एकतरफा जूनून और उन्माद भड़काने की फैक्ट्री धुआंधार तरीके से न सिर्फ चौबीस घंटा सातों दिन चल निकली है, बल्कि उसने संविधान में निष्पक्ष, तटस्थ और क़ानून सम्मत भूमिका निबाहने के लिए गठित की गयी संस्थाओं को भी अपने कलपुर्जों में शामिल कर लिया है।
उज्जैन की यह घटना इसकी एक मिसाल है; जो हुआ ही नहीं उसे हुआ बताकर, धार्मिक अनुयायियों द्वारा जिसे पवित्र और श्रद्धेय माना जाता है ऐसे आयोजन को अपवित्र किये जाने की सरासर झूठी खबर फैलाकर, विधानसभा चुनावों के पहले आग भड़काने की आपराधिक साजिश रची गयी। इस आपराधिकता में खुद वह संस्था- पुलिस – मर्जी से शामिल हुयी, जिसका काम ठीक इस तरह के कामों को सख्ती से रोकने का है।
भले कुछ देर से सही, इसकी असलियत उजागर होना फौरी राहत की बात हो सकती है, मगर निश्चिंतता नहीं जगाती। इसलिए कि जो डैमेज किया जाना था वह हो चुका है; सारे अखबारों, टीवी चैनलों ने इस घटना को लेकर जो टनों कागज काले किये, जो लाखों, करोड़ों डिजिटल डाटा बर्बाद किये, वे अपना काम कर चुके हैं।
उन्हें देखने पढ़ने वाले समाज के बीच मुस्लिम समुदाय की वीभत्स छवि बनाई जा चुकी है। उनके प्रति मानसिकता दूषित की जा चुकी है- इस फैल चुके जहर काे उतार पाना, उसे निष्प्रभावी करना आसान काम नहीं है।
कायदे से तो इन सारे सूचना माध्यमों- अखबारों और चैनलों – को अपने मुखपृष्ठ पर हाईकोर्ट से आयी इस खबर को छापना और प्राइम टाइम में दिखाना, बार बार दिखाना चाहिए था। इस पर सम्पादकीय और विशेष आलेख लिखे जाने चाहिए थे। भारत के नागरिकों के एक हिस्से के बारे में अपनी झूठी खबरों से बनी गलत राय के बारे में सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए थी।
ऐसा करना तो दूर की बात रही, अदालत के इस फैसले की भी ज्यादातर मीडिया ने अनदेखी की है। क्योंकि ऐसी खबरें उनके जहर फैलाऊ, आग लगाऊ एजेंडे में फिट नहीं बैठतीं।
यह भारत दैट इज इंडिया में बसने वाले मनुष्यों के साथ अपराध है, उनकी सोच को ख़ास तरह से ढालने, उसे अनुकूलित करने, उसकी कंडीशनिंग करने की धूर्त कोशिश है। उसे विषाक्त बनाने की महापरियोजना का हिटलर से सीखा नुस्खा है।
आमतौर से दूसरे देश सैकड़ों हजारों करोड़ रुपये खर्च करके जिन्हें अपना दुश्मन मानते हैं उन देशों की जनता में फूट, विग्रह, वैमनस्य पैदा करने की साजिशें रचते हैं। जिन देशों के खिलाफ यह किया जाता है उन देशों की सरकारें इन साजिशों को बेअसर कर देने में अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं।
मगर यहां इससे ठीक उलटा हो रहा है; शासन में बैठे लोग इन्हें अंजाम दे रहे हैं, उनकी समर्थक जमातें, संगठन और उनका पालित पोषित मीडिया इसे हवा दे रहा है। ये वे लम्हे हैं जिनकी खता से अगर ठीक ठाक तरीके से निबटा सुलझा नहीं गया तो वे सदियों को सजा देने की हिमाकत कर सकते हैं।
अदनान मंसूरी फिलहाल जमानत पर बाहर आ चुके हैं। हालांकि यह बात समझ से परे है कि जब खुद अदालत के सामने यह तथ्य आ गया कि शिकायतकर्ता ने कोई शिकायत करने, घटना की जानकारी तक होने से मना कर दिया है, गवाह ने ऐसा कुछ देखने और पहचानने से भी इनकार कर दिया। इस तरह प्रथम दृष्टया जब कोई घटना हुई ही नहीं तो मामले को खत्म करने का आदेश देना बनता था।
इस आदेश में इस आपराधिक कारगुजारी से जुड़े पुलिस वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही का निर्देश भी आना चाहिए था। बहरहाल फिलहाल विधिसम्मत राज का प्रावधान करने वाले संविधान की 75वीं वर्षगांठ के ठीक पहले, वह संविधान जिसके हक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी देता है भारत का वह नागरिक जेल से तो बाहर आ गया लेकिन अपने घर नहीं आ पाया।
क्योंकि उनका घर, जिस आरोप का न शिकायतकर्ता मिला न गवाह, उस आरोप में बुलडोजर द्वारा गिराया जा चुका है। उन्हें कोई नया घर मिलेगा इस बात की उम्मीद बुलडोजर पर बैठी सरकार से करना फिजूल में गलतफहमी पाल कर वक़्त जाया करने के सिवा कुछ नहीं है ।
(बादल सरोज, लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)