इतिहास खुद लिखना होगा, नहीं तो पीढ़ियां भुला देंगी …1
स्वाधीनता संग्राम में सर्वोच्च बलिदान देने वाले कोतवाल धन सिंह गुर्जर की वीरगाथा
मेरठ में उन दिनों एक साधू घूमा करता था। जिसका नाम पता किसी को नहीं मालूम। वह अंदरखाने किसी गुप्त योजना को आकार दे रहा था। गोरों के प्रति सैनिकों के गुस्से को और हवा दे रहा था। गांव वालों व किसानों पर हो रहे जुल्म को दिखाकर किसानों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा कर रहा था। तब का मेरठ बहुत अलग था। तब वहां काली नदी में खूब पानी बहता था। मेरठ की तहसील व कोतवाली तक पानी आ जाता था। आजकल तो मेरठ के लोग काली नदी को जानते तक नहीं।
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मेरठ की कोतवाली में उसी दौरान एक नए रौबदार कोतवाल की नियुक्ति हुई, जो पास के ही पांचली गांव के मोहर सिंह का लड़का था। बड़ी मूंछें, लंबा व सुंदर चेहरा, उन्नत ललाट वाले कोतवाल धन सिंह गुर्जर शीघ्र ही लोकप्रिय हो गए। इनका पूरा नाम धन सिंह चपराणा था, लेकिन प्यार से लोग इनको धन्ना नाम से भी पुकारते थे।
वह क्रांति कोई त्वरित जन विद्रोह नहीं था। बल्कि पहले से तैयार व सोची समझी गदर थी। इसमें आम किसान से लेकर सेना के जवान तक शामिल थे। इस जनविद्रोह को अंग्रेजों ने केवल सैनिकों का असंतोष कहकर अपने अत्याचारों को ढंकने का प्रयास किया है। असल में यह कंपनी द्वारा आम भारतीय की कमर तोड़कर की गई ज्यादतियों का एक ठोस जवाब था। इसकी गूंज लंदन तक पहुंची व ब्रितानी सरकार ने कंपनी को हटाकर सीधा नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया।
इस जनक्रांति के व्यापक व दूरगामी प्रभाव रहे, जैसे कि देश की स्वतंत्रता तक सभी क्रांतिकारियों ने भारत की आजादी के प्रथम संग्राम से प्रेरणा ली। मेरठ से कोतवाल धन सिंह गुर्जर के नेतृत्व में शुरू हुए इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम में किसानों व सैनिकों ने जान की बाजी लगा दी। अपने देश को आजाद कराने में, उन्होंने नतीजों की चिंता नहीं की। अंग्रेजों के जुल्म व ज्यादतियों के खिलाफ क्रांति का ऐसा बगावती बिगुल बजाया, जो 90 वर्षों तक लगातार गूंजता रहा। आजादी के हर परवाने में ऊर्जा व जोश भरता रहा।
10 मई 1857 को शाम पांच बजे मेरठ के गिरजाघर का घंटा बजते ही क्रांति के इस बिगुल को बजाया था मेरठ सदर थाने के कोतवाल धन सिंह गुर्जर ने।...जारी
(‘1857 के क्रांतिनायक कोतवाल धन सिंह गुर्जर’ पुस्तक से)