हिन्दी की गति, नियति और हम
दिवस विशेष/जयराम शुक्ल
विश्व हिन्दी दिवस प्रति वर्ष 10 जनवरी को मनाया जाता है। विश्व में हिन्दी का विकास करने और इसे प्रचारित-प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था। इसीलिए इस दिन को ‘विश्व हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
महत्वपूर्ण और दिलचस्प बात यह कि संसद और उसके बाहर अंग्रेजी में भाषण देने वाले पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस के रूप मनाये जाने की घोषणा की थी। आठ साल पहले इन्हीं दिनों भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन रचा गया था। सरकारी स्तर पर कई दिशा निर्देश निकले, संकल्प व्यक्त किए गए। लगा मध्यप्रदेश देश में हिन्दी का ध्वजवाहक बनेगा, पर ढाँक के वही तीन पात।
सरकार हिन्दी को लेकर कितनी निष्ठावान है, यह जानना है तो जा के भोपाल के अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय की दशा देख आइए।
सही पूछा जाए तो अहिंदी क्षेत्रवासियों ने ही हिन्दी का बाना उठाया। बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, रवींद्र नाथ टैगोर, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सुब्रह्मण्यम भारती, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जैसे मनीषी थे जिन्होंने हिन्दी की प्राण प्रतिष्ठा में मदद की।
ये सभी यह मानते थे कि हिन्दी ही देश को एक सूत्र में बांध सकती थी। क्योंकि यह संघर्ष की भाषा है, यह स्वाधीनता का स्वर है। महात्मा गांधी स्वीकार करते थे कि उनकी हिन्दी कमजोर है फिर भी यह भाषा राष्ट्र की आन, बान, शान है।
संविधान में हिन्दी को जब राजभाषा स्वीकार किया गया तो ये बात कही गई कि निकट भविष्य में देश अंग्रेजी की केंचुल उतार फेंकेगा, लेकिन यह एक झांसेबाजी थी।
भारतीय प्रशासनिक एवं समकक्षीय सेवाएं जिनसे देसी लाट साहब तैयार होते हैं, वहां हिन्दी के संस्कार नहीं दिए गए। ये देश के नए राजे महाराजे हैं और हर बाप अपने बेटों का भविष्य इन्हीं की छवि में देखता है।
इसलिए सरकारी स्कूलों के समानांतर पब्लिक स्कूलों का कारोबार आजादी के बाद न सिर्फ जारी रहा, वरन दिन दूना रात चौगुना बढ़़ता रहा। साठ के दशक तक आते आते यह धारणा मजबूत हो गई कि अंग्रेजी अफसर जनती है और हिन्दी चपरासी।
इन्हीं दिनों जब डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने हिन्दी का आंदोलन चलाया तो मध्य व पिछड़ा वर्ग इसलिए जुडा़ कि उनके बच्चों के लिए भी भविष्य का रास्ता हिंदी से भी साफ होगा। समाजवादी नेताओं ने इसका फायदा उठाया। कई राज्यों की सरकारें बदलीं।
इधर डॉ. लोहिया सत्तर का दशक नहीं देख पाए, उधर इनके चेलों ने लोहिया के संकल्पों को विसर्जित करना शुरू कर दिया। चरण सिंह और मुलायम सिंह लोहिया टोपी लगाकर बात तो हिन्दी की बढ़ाने की करते थे, पर बेटों को विलायत पढ़ने के लिए भेजते रहे।
हिन्दी सरकारी और राजनीतिक दोनों के दोगलेपन का शिकार हो गई और आज भी जारी है।लाटसाहबियत में अंग्रेजी अभी भी है, कल भी रहेगी। नेता कुछ भी बोलें उसे, फर्जी समझिए।
हिन्दी अब तक न्याय की भी भाषा नहीं बन पाई। उच्चनन्यायालयों में नख से शिख तक अंग्रेजी है। मुव्वकिलों को हिन्दी की एक एक चिंदी का अंग्रेजी रूपांतरण करवाना होता है और उसके लिए भी रकम खर्चनी पड़ती है। यहां अंग्रेजी शोषण की भाषा है।
कल्पना करिए, यदि उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी व देश की अन्य भाषाओं को उनके क्षेत्र के हिसाब से चलन में आ जाए तो अंग्रेजी का एकाधिकार टूटने में पलभर भी नहीं लगेगा। मंहगे वकीलों की फीस जमीन पर आ जाएगी और न्याय भी सहज और सस्ता हो जाएगा।
हिन्दी और देशी भाषाओं की लड़ाई लड़ने वाले श्यामरुद्र पाठक की सुधि लेने वाली न भाजपा है न स्वदेशी आंदोलन वाले। सन् 2011 में यूपीए सरकार के खिलाफ लंबी लडा़ई लड़ी। सालों साल धरने पर बैठे रहे। एक दिन सरकार ने पकड़कर तिहाड़ भेज दिया। तब से पता नहीं कि वे कहां हैं।
श्यामरुद्र पाठक कोई मामूली आदमी नहीं हैं। उच्च शिक्षित व हिंदी माध्यम से विज्ञान विषय में पीएचडी करने वाले, हिंदी माध्यम से आईएएस की परीक्षा पास करने वाले। हर मुद्दे पर गत्ते की तलवार भांजने वाले चैनलिया एंकरों को भी इधर देखने की फुरसत नहीं।
मोदी जी भले ही हिन्दी की बात करें, पर वे ऊंची अदालतों और लाट साहबी की भाषा हिन्दी को बना पाएंगें, अभी तो आसान नहीं दिख रहा है। इसका कारण स्पष्ट है, पिछली सरकारों से लेकर अब की सरकार में भी बडे़ वकील ही प्रभावशाली मंत्री हैं। ये जब कुछ नहीं रहते, तब वकील होते हैं। जब अंग्रेजी ही इनकी विशिष्टता है त़ो भला ये क्यों राय देंगे कि हिन्दी और देशी भाषाओं को न्याय की भाषा बनाई जाए।
सरकार के नीति निर्देशक प्रारूप यही अंग्रेजीदा लाट साहब लोग बनाते हैं तो ये अपनी ही पीढ़ी के पांव में कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे। सो यह मानकर चलिए कि ये सरकारों में आने जाने वाले लोग बातें तो हिन्दी की बहुत करेंगे, कसमें खाएंगे और संकल्प भी लेंगे, पर हिन्दी की बरकत के लिए करेंगे कुछ भी नहीं।
हिन्दी को हिन्दी के मूर्धन्य भी नहीं पालपोस रहे हैं। उनकी रचनाओं, कृतियों को पढ़ता कौन है..जो पीएचडी कर रहे होते हैं वे, या वे जिन्होंने समालोचकों का हुक्का भरा व उसके प्रतिद्वंदी को गरियाया वो, फिर कमराबंद संगोष्ठियों में अपनी अपनी सुनाने की प्रत्याशा में बैठे साहित्य के कुछ लोभार्थी और लाभार्थी। यदि ये माने कि हिन्दी इनके माथे बची है या आगे बढ़ रही है तो मुगालते में हैं।
हिन्दी में कोई बेहतरीन बिक्री वाली पुस्तक क्यों नहीं निकलती…? मैंने ही कमलेश्वर की..कितने पाकिस्तान ..के बाद कोई पुस्तक नहीं खरीदी। क्योंकि ऐसी पठनीय थी ही नहीं। प्रेमचंद, निराला, दिनकर और इनके समकलीन ही पुस्तक की दुकानों में अभी भी चल खप रहे हैं।
वस्तुत: जो लोकरुचि के लेखक हैं, उन्हें ये महंत और उनके पंडे साहित्यकार मानते ही नहीं। बाहर ‘गॉडफादर’ और लोलिता जैसे उपन्यासों को साहित्यिक कृति का दर्जा है। यहां ऐसी कृतियों को लुगदी साहित्य करार कर पल भर में खारिज कर दिया जाता है।
हिन्दी के कृतिकार अपने ख़ोल में घुसे हैं । यही इनकी दुनिया है। हिन्दी को बाजार पालपोस रहा है। यह उत्पादक और उपभोक्ता की भाषा है। बाजार के आकार के साथ साथ हिन्दी का भी आकार बढ़ रहा है। फिल्में हिन्दी को सात समंदर पार ले जा रही हैं। जिस काम की अपेक्षा साहित्यकारों से है, वह काम अपढ़ फिल्मकार कर रहे हैं।
हिन्दी की गति उसकी नियति से तय हो रही है। जैसे फैले, फैलने दीजिए। अपन तो यही मानते हैं कि जैसे घूरे के दिन भी कभी न कभी फिरते हैं, वैसे ही हिन्दी के भी फिरेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)