गंगा-गंडक के संगम पर आस्था-लोक संस्कृति का महामिलन
सोनपुर से रविशंकर उपाध्याय
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गंगा और गंडक के संगम पर बसे सोनपुर की ओर जब आप निकलते हैं तो आपको आस्था से ओतप्रोत लोग जेपी सेतु से उतरते ही दिखाई दे जाते हैं और उसके साथ ही लोक संस्कृति के वे रंग भी दिखने लगते हैं, जो यहां के मेले की खास पहचान रही है।
पहलेजा घाट से सात किमी दूर ही हिंदुओं का विश्वप्रसिद्ध हरिहरनाथ का मंदिर है। यह दुनिया का इकलौता ऐसा मंदिर है, जहां श्री हरि विष्णु और हर हर महादेव स्थापित हैं। यह शैव और वैष्णव परंपरा मानने वालों की मिलन स्थली भी है, जो यह बताती है कि हरिहर नाथ की स्थापना ही विभिन्न विचारों के मिलन, एकता और बंधुत्व को बनाये रखने के लिए हुई थी।
यही सोनपुर गज और ग्राह की उस लड़ाई की साक्षी भूमि भी है, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश निरंतर देती रहती है। कोनहारा घाट पर आस्था की डुबकी लगाने के लिए पहुंचे लोग आपको बता जाते हैं कि गंगा और गंडक के संगम पर किस प्रकार आस्था और लोकसंस्कृति का महामिलन हो रहा है।
एशिया के सबसे बड़े पशु मेले का संरक्षण आवश्यक
एक जमाने में जंगी हाथियों के सबसे बड़े केंद्र सोनपुर मेले का इतिहास उतना ही भव्य है, जितनी इसकी बारे में सुनी जाने वाली कहानियां। कहानियां जिसमें कही जाती थी कि बिहार का सोनपुर मेला ऐसी जगह है, जहां एक वक्त में सबकुछ बिकता था ! हाथी की खरीदी यहां बड़े पैमाने पर होती थी।
ऐतिहासिक तथ्य है कि मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त, मुगल सम्राट अकबर और 1857 गदर के बिहारी नायक वीर बाबू कुंवर सिंह ने भी यहां से हाथी खरीदे थे। 1803 ई में गवर्नर रहे रॉबर्ड क्लाइव ने तो सोनपुर में घोड़े के लिए बड़ा अस्तबल भी बनवाया था, लेकिन यह मेला अब मेकओवर की मांग कर रहा है। चिड़िया बाजार के पास हमें युवा नेता विश्वजीत सिंह मिल गए और उन्होंने एक पते की बात बतायी।
उन्होंने सोनपुर मेले से जुड़ी एक पुरानी कहानी को उद्धृत करते हुए बताया कि अतीत में अक्सर जब इस मेले के ऊपर किसी तरह का संकट आया है, तब उस दौर के राजे-रजवाड़ों ने इसे सहारा देकर इसकी अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाए रखने में योगदान दिया है।
एक बार मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने इस मेले से 500 घोड़े खरीदे थे। इसी तरह मुगल बादशाह औरंगजेब ने एक बार मेला पर छाए संकट को दूर करने के लिए यहां से दुर्लभ नस्ल वाले सफेद हाथी खरीद कर उन्हें शाही सेना में शामिल किया था। यह अजीब विडंबना है कि अब इस मेले के मूल को सरकार तहस-नहस होने से नहीं बचा रही है।
2004 में 354 हाथियों से सजा था मेला
2004 में 345 हाथियों का बाजार इस मेला की शान था। उसी मेले में 50 लाख रुपये में एक हाथी बिका था। यह एक रिकॉर्ड था, जो अभी भी बरकरार है। अब तो हाथी का आना भी बंद हो गया, लेकिन यह आधिकारिक तौर पर सबसे ज्यादा महंगे जानवरों की बिक्री के रूप में निबंधित है। 2015 में 17 और 2016 में 13 हाथी यहां बिक्री के लिए आये थे। हालांकि वह रिकार्ड अबतक नहीं टूट सका। 2017 में एक हाथी आया और चला गया था और अब तक वही क्रम बरकरार रहा है।
कानून और सामाजिक द्वंद्व में गाय का बाजार प्रभावित हो गया
हम इसके बाद गाय बाजार की ओर मुड़ जाते हैं। गाय बाजार अब कानून और सामाजिक वैमनस्यता की मार झेल रहा है। 2017 में मेला शुरू होने के पहले सप्ताह में ही तकरीबन 900 गायें निबंधित हुई थीं, लेकिन इस बार उनकी संख्या केवल 27 है। यह काफी बड़ी गिरावट है, जिसके कारण गायों का बाजार सिमट कर रह गया है। इसके पहले बैल बाजार खत्म हो गया था। क्योंकि कृषि की नयी तकनीक और यंत्रों ने उसे लील लिया।
इसके बावजूद गाय बाजार का हाल देखकर स्थानीय लोग हैरत में हैं। स्थानीय जितेंद्र सिंह बताते हैं कि इनकी संख्या इतनी घटी है कि हमलोगों को बाजार देखकर हैरत होती है। जबकि 2010 में ही मेले में 50 लाख रुपये की गाय बिकी थी, यह भी एक रिकॉर्ड है। उस वक्त यहां देश के विभिन्न हिस्सों से गायें आती थीं। हरियाणा से आयी एक जर्सी गाय इस मेले की शान थी, जो पांच लाख रुपये में बिकी थी। पांच लाख रुपये वाली वह गाय 35 किलो दूध देती थी।
डांस करने वाली घाेड़े की जोड़ी देखेंगे तो मजा आ जायेगा
मेले में अभी डांस करने वाली घोड़े की जोड़ी खास आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। सिवान जिले के शेखपुरा के मो. इमाम खान यह जोड़ी लेकर पहुंचे हैं। यह जोड़ी ऐसी है कि जिसमें बादल घोड़ा है और रानी घोड़ी। दोनों के पैरों में घुंघरू लगा दीजिए और जगह दीजिए कि डांस शुरू। उन्हें इशारा करता है मो. नौसेर, जो देखभाल भी करता है। वह गाने भी सुनाता है और उसे ठुमके लगाने को मजबूर भी करता है। उसने 63 ईंच लंबी रानी घोड़ी की कीमत 15 लाख रुपये रखी है और बादल घोड़े की कीमत 7 लाख।
कहता है कि यह घोड़ी खास है सर। क्योंकि 15 महीने की इतनी खूबसूरत घोड़ी ढूंढे भी ना मिलेगी और नाचती भी है। वह इसे दूध पिलाता है और घी भी। कैल्शियम की खुराक भी देता है। लोग इसे देखने के लिए दूर दूर से आ रहे हैं।
चिड़िया बाजार सूना, चिड़िया बाजार थाना है गुलजार
कभी विदेशी पर्यटकों का दूसरा बड़ा आकर्षण रहा यहां का पक्षी बाजार कुछ वर्षों से सूना पड़ा है। यहां एक से बढ़ कर एक पक्षी को बिक्री के लिए लाया जाता था। अब यहां के पक्षी बाजार की चौखट उदास हो चुकी है। पक्षी की बिक्री इस मेले में नहीं हो रही है। ना तो यहां पहले की तरह तोता की चटर पटर और ना ही मोर, गौरैया, मैना, साइबेरियन, पहाड़ी मैना, कोयल समेत अनेक पक्षियों का कलरव सुनाई दे रहा है। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत पक्षी बाजार को बंद कर दिया गया है और इसी के साथ यहां का आकर्षण भी गायब हो गया है। हालांकि चिड़िया बाजार नहीं है, लेकिन चिड़िया बाजार थाने का अस्तित्व अभी भी बरकरार है।
100 साल से यूपी के बहराईच से आ रहे पापड़ी मिठाई निर्माता
सोनपुर मेले में मुख्य बाजार से चिड़िया बाजार रोड पर पश्चिम दिशा में बढ़िए तो यहां यूपी के बहराइच के कई पापड़ी वाले दिखाई देंगे। यह पापड़ी की कई वैराइटी के साथ-साथ हलवा पराठा और मियां मिठाई बेचते हैं। इन सारी मिठाईयों का यहां शतक वर्ष चल रहा है। बहराइची हलवा-पराठा ऐसे कि देखते ही जी ललच जाए। दाम 140 रुपये किलो। बेसन की स्पेशल पापड़ी 80 रुपये किलो और खजूर की पापड़ी भी इतनी ही कीमत में। बहराइच और उसके आसपास के दो दर्जन से अधिक बुजुर्ग युवक मेले में हलवा-पराठा बेच रहे हैं। बहराइच से आए वारिस अली जिनकी उम्र 75 साल है, वे कहते हैं कि दो पुश्त से वे यहां आ रहे हैं। उनकी उम्र ही निकल गई। इसके पहले इनके पिता और दादा भी सोनपुर आते थे। इनके अलावा बहराइच के तीन और परिवार यहां इस कारोबार के लिए पहुंचते हैं।
झारखंडी अचार ला देगा मुंह में पानी
सोनपुर मेले में झारखंड के विभिन्न शहरों से आए लोग आपके मुंह में पानी ला देंगे। इसका कारण यह है कि यहां पर 20 तरह के अचार मिल जाएंगे। आपको आंवले का पंसद है या ओल यानि सूरन का? बांस का या फिर आम का? सभी मिला कर चाहिए तो वह भी हाजिर है। कीमत है 120 रुपये किलो से लेकर 150 रुपये तक।
इस कीमत में आपके लिए गोड्डा, साहेबगंज, चतरा और दुमका से पहुंचे अचार के स्पेशल विशेषज्ञ मुंह खट्टा कराएंगे। दुमका जिले के बासुकीनाथ से आए रामानंद मंडल कहते हैं कि आप जो भी अचार चाहेंगे मिल जायेगा। हमारे पास कम से कम अचार और मुरब्बे की एक दर्जन से ज्यादा वेराइटी रहती हैं। गोड्डा के राकेश कहते हैं कि पहले तो वह इलाका भी बिहार ही ना था। यहां आकर कभी अलग नहीं लगता है। आपसी सद्भाव व भाईचारे में इस मेले जैसी कहीं कोई संस्कृति नहीं। लगता ही नहीं कि हम अपने घर से बाहर हैं।
चूंकि सोनपुर का मेला देश ही नहीं, विदेशों में भी प्रसिद्ध है। इसलिए मेला भर विदेशी पर्यटक भी खूब आते हैं। उनके रहने आदि के लिए सरकार ने अच्छी व्यवस्था की है। एक पर्यटक ग्राम ही बसा दिया गया है।
(रविशंकर उपाध्याय वरिष्ठ पत्रकार हैं। इनकी पुस्तक बिहार के व्यंजन ने काफी प्रसिद्धि पाई है।)