भारतीय समाज की संरचना लंबे समय तक एक विचारधारा द्वारा संचालित रही है, जिसने कुछ जातियों को श्रेष्ठ और शेष समाज को हीन बना डाला। इस व्यवस्था ने न केवल सामाजिक और आर्थिक स्तर पर बहुसंख्यकों—श्रमिकों, किसानों, पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों—को वंचित किया, बल्कि उनकी चेतना, आत्मगौरव और संस्कृति को भी छीन लिया। आज बहुसंख्यकों को केवल समान अवसरों के लिए संघर्ष की आवश्यकता नहीं, बल्कि उनकी मुक्ति के लिए विचारों की गहराई से पुनर्गठन के आंदोलन की जरूरत है।
सत्ता केवल सेना, पुलिस और डंडे से हीं नहीं चलती, बल्कि असल में यह संस्कारों, ग्रंथों, भाषा, आस्थाओं और परंपराओं को परिवर्तित और नियंत्रित कर बहुसंख्यकों से शिक्षा और ज्ञान के अवसर छीनकर उसके बदले सत्ताधारियों द्वारापने विचार थोपने से चलती है।
जब बहुसंख्यकों को बताया जाता है कि वह जन्म से ही नीच है और वो उच्च वर्गों की हीं सेवा करने के लिए पैदा लिया है, तो यह केवल सामाजिक हिंसा नहीं बल्कि मानसिक और वैचारिक गुलामी का निर्माण है।
इस देश में सदियों से यही हुआ है—धार्मिक ग्रंथों, कर्मकांडों और पवित्रता की झूठी अवधारणाओं ने इस देश के बहुसंख्यकों को उसके अपने इतिहास, ज्ञान और आत्मगौरव से काट दिया है।
अब समय आ गया है कि बहुसंख्यक समाज अपनी मुक्ति के लिए अपने समाज के अंदर से ऐसे नए नेतृत्वों को खड़ा करे जो न केवल जन्म से उनके समुदाय से हो, बल्कि वो अपनी निजी विकास के बदले सामाजिक विकास के लिए प्रतिबद्ध हो। वो न सिर्फ राजनीतिक तौर पर लड़ सके, बल्कि सांस्कृतिक और वैचारिक मोर्चों पर भी सामाजिक मुक्ति के लिए संघर्षरत हो।
ऐसा नेतृत्व जो समाज के दर्द को समझता हो, जो उसकी भाषा में बात करे, उनके अनुभवों को केंद्र में रखे और एक नए समाज की कल्पना करे जिसमें न्याय, समानता और गरिमा सर्वोपरि हों।
शिक्षा, मीडिया, धर्म, साहित्य और विश्वविद्यालय—ये सभी संस्थाएँ समाज की चेतना गढ़ती हैं। जबतक ये संस्थाएँ बहुजन विरोधी विचारों से संचालित होंगी, तबतक बहुजन मुक्ति असंभव है। इसलिए जरूरी है कि इन संस्थाओं को बहुसंख्यक दृष्टिकोण से पुनर्गठित किया जाए। पाठ्यक्रमों में परिवर्तन, मीडिया में प्रतिनिधित्व, उनके साहित्य और लोकसंस्कृति का पुनरुद्धार—ये सब इसी दिशा के कदम हैं।
चेतना का संघर्ष: क्रांति का असली मैदान
बहुसंख्यक मुक्ति आंदोलन एक लंबी वैचारिक लड़ाई है—यह केवल सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि प्रतीकों, भाषाओं, देवी-देवताओं, त्योहारों, इतिहास और दर्शन की पुनर्व्याख्या की लड़ाई है। यह संघर्ष है अपने खोए हुए गौरव को वापस पाने का, अपनी भाषा के अलावा अंग्रेजी जैसी एक समृद्ध भाषा को अपनाने का जो बौद्धिक रूप से समृद्ध हो, अपने नायकों को पुनः स्थापित करने का, और अपने सपनों को मूर्त रूप देने का।
बहुसंख्यक मुक्ति का रास्ता: शिक्षा, संस्कृति और संगठन
बहुसंख्यक मुक्ति के चार स्तंभ हैं—
गुणवत्तापूर्ण समान शिक्षा के मौलिक अधिकार:
ऐसी शिक्षा जो सिर्फ डिग्री तक सीमित न होकर उनकी चेतना विकसित करने का औजार बने, जो सही और गलत, झूठ और सच, गुलामी और मुक्ति तथा शोषक और मुक्तिदाता के भेद को समझ पाए।
गुणवत्तापूर्ण समान स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार:
स्वास्थ से बड़ी कोई पूंजी नहीं, और स्वास्थ पर किए जानेवाला खर्च कमजोर वर्गों की गुलामी और गरीबी की सबसे महत्वपूर्ण वजह हैं। विश्व स्वास्थ संगठन के मुताबिक इस देश का साढ़े पांच करोड़ बहुसंख्यक आबादी हर वर्ष अपनेपरिजनों के इलाज का खर्च चुकाने की वजह से गरीब बन रहा है। स्वास्थ के मौलिक अधिकार इस देश से अगले दस - पंद्रह सालों में गरीबी खत्म कर सकता है और बहुजन को मुख्यधारा से जोड़ सकता है। यह इसलिए भी सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है, क्योंकि इस देश का हर व्यक्ति करदाता है, देश करदाताओं के पैसों से चलता है न कि किसी नेता, पूंजीपति और पार्टी के दान से।
सांस्कृतिक परिवर्तन: बहुजन समाज को ऐसी संस्कृति अपनाने की जरूरत है जो आत्महीनता, ऊंच - नीच, भेदभाव और छुआछूत नहीं बल्कि आत्मगौरव और आत्मसम्मान पैदा करे।
सामाजिक संगठन का निर्माण:
जिसका उद्देश्य केवल चुनाव जीतना नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के लिए जरूरी विचारों को जन - जन तक पहुंचाना और उसे बदलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे।
बहुसंख्यक समाज की मुक्ति सिर्फ सत्ता के परिवर्तन से नहीं, बल्कि विचारों, प्रतीकों और संस्कृति के स्तर पर चलने वाली एक दीर्घकालीन क्रांति से संभव है। अगर यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन से संभव होता तो कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री बहुसंख्यक आबादी से बने लेकिन वो बहुसंख्यकों को मुक्ति दिलाने में अक्षम रहे।
आज के प्रधानमंत्री तो अपने आपको बहुसंख्यक वर्ग का बताकर सत्ता पाने के लिए वोट मांगते हैं, लेकिन सत्ता पाने के बाद अपने मालिक के इशारे पर बहुसंख्यकों के शोषण में दिनरात लगे रहते हैं।
ऐसे प्रतीकात्मक जन्मजात गुलाम और बहुरूपिए शोषक बहुसंख्यक राजनेताओं को पहचानकर उसके विरुद्ध असहयोग आंदोलन चलने की आवश्यकता है, जो सामाजिक विकास के ऊपर खुद के विकास और सामाजिक सुख के ऊपर खुद के सुख - सुविधाओं को तरजीह देता हो।
यह क्रांति तब तक अधूरी रहेगी जब तक इस देश का बहुसंख्यक समाज अपने आत्मगौरव, आत्म-चेतना और आत्मनिर्भरता को पुनः प्राप्त करने और ब्राह्मणिकल वर्चस्ववाद को खत्म करने के लिए अपने समाज के प्रतिबद्ध बुद्धिजीवियों को चुनना शुरू नहीं करेंगे। अपने वोट की कीमत को समझकर उसे कुछ पैसों के लिए बेचना बंद नहीं करेंगे।
यह वैचारिक संघर्ष आज की सबसे जरूरी क्रांति है—एक ऐसी क्रांति जो नारा नहीं, विचार बने; जो भीड़ नहीं, दिशा बने; और जो चुनाव नहीं, परिवर्तन बने।
लेखक: प्रो. (डॉ.) ओम शंकर
विभाग: कार्डियोलॉजी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी।