मेरठ का वह कोतवाल जिसने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की पहली मशाल जलाई
सन् 1857 की क्रांति कोई रातोंरात फटने वाला ज्वालामुखी नहीं था। असल में यह कई माह पहले से तैयार हो रही कार्ययोजना थी। जो 31 मई 1857 को शुरू होनी थी। लेकिन, अंग्रेजों के प्रति गुस्सा इतना बढ़ गया था कि दस मई को ही बाहर निकल आया।
अंग्रेजों की रिपोर्ट भले ही इसे केवल असंतुष्ट सैनिकों का विद्रोह बताकर अपने अत्याचारों पर पर्दा डालने वाली रही हो, मगर यह आम जनमानस की खुली बगावत थी। इसने पूरे ब्रितानी भारत को अपनी चपेट में ले लिया। पहली बार हिन्दुस्तान में विदेशी राज के खिलाफ इतना बड़ा व ईंट से ईंट बजाने वाला स्वाधीनता का संग्राम हुआ। इसे ही इतिहासकारों ने गुलाम भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा।
इस क्रांति की रूपरेखा पहले से ही तय थी। इसके लिए कई माह से अंदरखाने आग सुलग रही थी। जनश्रुतियों के अनुसार इस क्रांति के प्रतीक के तौर पर रोटी और कमल का फूल चुना गया। रोटी किसानों व गांव वालों को जोड़ने के लिए थी। सैनिकों के लिए शौर्य का प्रतीक कमल का फूल था। गांव-गांव रोटी घुमाई जा रही थी। ताकि आंदोलन का माहौल बन सके। दूसरी ओर सैनिक छावनियों में कमल का फूल घुमाया जा रहा था, जो भारतीय सैनिकों में जोश का संचार कर रहा था। उसी दौरान दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिनके कारण निश्चित समय के पहले ही क्रांति का ज्वालामुखी फूट पड़ा।
पहली घटना जो सैनिकों में अंसतोष को लेकर थी, नई एनफील्ड बंदूक के पीछे कथित तौर पर गाय व सूअर की चर्बी का लगना था। उसे फायर करने के लिए मुंह से खींचना होता था। गाय व सूअर की चर्बी लगी इन बंदूकों ने हिंदू व मुसलमान सैनिकों में रोष पैदा कर दिया। वे अंदर ही अंदर तिलमिला उठे। बात धर्म भ्रष्ट होने की थी।
उधर प. बंगाल के बैरकपुर में एक सैनिक मंगल पांडेय ने धार्मिक कारण से बगावत कर दी थी कि इस बंदूक का इस्तेमाल नहीं करेगा। अपने अधिकारियों के आदेश को मानने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप अंग्रेजों ने मंगल पांडेय को 8 अप्रैल को बैरकपुर छावनी में ही फांसी पर चढ़ा दिया। मगर भारतीय सैनिकों में इसका गहरा असर पड़ा। वे गोरों को मजा चखाने के लिए मौके की तलाश में जुट गए।
उसी दौरान मेरठ के पांचली गांव में किसानों के साथ भी एक घटना घटी, जिसमें अंग्रेजों ने किसानों पर बर्बर कार्रवाई की। लोकश्रुतियों के अमुसार तीन किसानों की किसी बात को लेकर अंग्रेजों से कहा सुनी हो गई। पांचली गांव के किसानों ने आवेश में आकर अंग्रेजों को बाधकर पीटा व खेतों में जबरन काम करवाया। अंग्रेजों ने बाद में आकर गांव के मुखिया लंबरदार मोहर सिंह गुर्जर को चेतावनी दी कि उन तीन किसानों को उनके हवाले किया जाए, नहीं तो पूरे गांव को तोप से उड़ा दिया जाएगा। मजबूरी में तीनों किसानों को अंग्रेजों के हवाले कर दिया गया। उनको बिना किसी मुकदमे के ही फांसी पर चढ़ दिया गया।
अंग्रेजों की इस कार्रवाई से किसानों का खून खौल उठा। वे भड़क गए। अपनी गुलामी को कोसने लगे। संयोग से मेरठ सदर थाना के कोतवाल धन सिंह गुर्जर पांचली गांव के ही थे। अपने गांव वालों पर इस जुल्म ने उनको अंदर से झकझोर दिया। यही गुस्सा 10 मई 1857 को फूट पड़ा।
मई के महीने में जब चिलचिलाती धूप रहती है। गंगा-यमुना का दोआबा लू की चपेट में रहता था, तब 1857 में एक साधू के मेरठ के कोतवाल से धन सिंह गुर्जर से मिलने, सैनिकों से मिलने व आसपास घूमकर किसानों को एकजुट करने की अफवाह फैलती थी। बाद में इतिहासकारों ने इस साधू को आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती बताया।…जारी
(‘1857 के क्रांतिनायक कोतवाल धन सिंह गुर्जर’ पुस्तक से)