पर्यावरण, जल संरक्षण, स्वच्छता, शिक्षा तथा संस्कार की शिक्षा का अनुपम संगम है यह सरकारी विद्यालय
महाभारत काल के राजा भूरिश्रवा के किले के नीचे है उच्च प्राथमिक विद्यालय चकलठिया
मिर्जापुर जनपद के जमालपुर ब्लॉक में शेरवां के पास है यह मिडिल स्कूल
राजेश पटेल, चकलठिया शेरवां (जमालपुर, मिर्जापुर)। एक ऐसा सरकारी विद्यालय, जहां बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं दिया जाता। यहां उन्हें देश का जिम्मेदार नागरिक बनने का पूरा प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां इस तरह से शिक्षा दी जाती है कि बच्चे और कुछ बने या न बनें, इंसान जरूर बन जाएंगे। उन पर विश्वास करने लायक रहेगा।
मिर्जापुर जिले के जमालपुर ब्लॉक के शेरवां में उच्च प्राधमिक विद्यालय चकलठिया है। यह अदलहाट-चकिया मार्ग के दक्षिणी किनारे पर है। इसके ऊपर पहाड़ है, जहां महाभारतकालीन राजा भूरिश्रवा का किला है। यही उनकी राजधानी थी।
विद्यालय परिसर में घुसने पर ही वहां की खासियत महसूस होने लगती है। हरे-भरे पेड़। रंग-बिरंगे फूल। साफ-सुथरा वातावरण। लताओं से लिपटा भव्य गेट। शिक्षक व छात्र अपने-अपने कर्तव्य के प्रति सजग। यही तो इस विद्यालय को अन्य से अलग रखती है।
चहारदीवारी के निर्माण और मैदान में मिट्टी भराई के बाद इसे हरा-भरा करने के कार्य की शुरुआत 2020 से हुई। जो पौधा सूख जाता है, उस स्थान पर नए पौधे लगा दिए जाते हैं। नियमित देखरेख के चलते इस समय ढाई सौ से ज्यादा छोड़े-बड़े पेड़-पौधे हैं। सागौन है। अशोक, मीठी नीम, कनेल, मोरपंखी, आंवला आदि।
देखरेख के लिए बच्चों की समितियां
इन पौधों की देखरेख के लिए बच्चों की टोलियां बनाई गई हैं। टोलियों में छात्रों की अदला-बदली होती रहती है। पौध लाने की जिम्मेदारी शिक्षक आनंद विक्रम सिंह व राजेश सिंह की होती है। इनको रोपने व सिंचाई के लिए राकेश, दीपक, आजाद, राहुल, जीशान, सुधा, सपना व निशा को इस समय जिम्मेदारी सौंपी गई है। निराई-गुड़ाई की जिम्मेदारी सनी, अभय, मृदुल, ओम बाबू, आफरीन व फरजाना की है। क्या मजाल कि किसी पेड़ की जड़ के दो फीट के व्यास में कोई घास ऊपर निकल जाए। इसी तरह से सिंचाई के प्रति भी बच्चे सजग रहते हैं। किसी को कुछ भी नहीं सहेजना पड़ता।
दरअसल उनको पेड़-पौधों के महत्व के बारे में शिक्षकद्वय द्वारा इतना बता दिया गया है कि वे इनको ईश्वर से कम नहीं समझते। बच्चों ने बताया कि जो सांस दे, वहीं ईश्वर। पेड़-पौधों से ही हमें सांस मिलती है।
बच्चे ही स्कूल का मालिक
इस स्कूल का मालिक बोले तो बच्चे ही हैं। मुख्य प्रवेश द्वार, ऑफिस, आलमारी तथा हर कमरे के ताले की चाबी बच्चों के पास ही रहती है। प्रतिदिन विद्यालय को समय से खोलने की जिम्मेदारी बच्चों की ही है। इसके लिए भी एक टीम बना दी गई है। इस टीम में आलोक, धीरज, फैजान, आर्यन और आकाश को फिलहाल शामिल किया गया है। ये बच्चे अपनी जिम्मेदारी को बखूबी समझते हैं। शिक्षक व रसोइया को कभी इसमें हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता।
मान लीजिए की आलोक के पास किसी दिन चाबी है और उसे अगले दिन विद्यालय नहीं आना है तो वह अपनी जिम्मेदारी टीम के दूसरे सदस्य को सौप देता है। बच्चे इसे लेकर इतने सजग रहते हैं कि शिक्षको को कुछ कहना ही नहीं पड़ता।
किसी शिक्षक की गैरमौजूदगी में क्लास संभालने की भी जिम्मेदारी निभा लेते हैं बच्चे
गजब प्रतिभा के धनी हैं यहां के बच्चे। यदि किसी क्लास में शिक्षक किसी कारण से नहीं हैं तो बच्चे ही अपनी क्लास को संभाल लेते हैं। तुरंत कोई छात्र ब्लैकबोर्ड के पास चला जाता है और शिक्षक की भूमिका में हो जाता है। वह बच्चों को बांधे रखता है। अपनी समझ के मुताबिक वह पूरी घंटी संबंधित विषय को पढ़ाता रहता है।
शुक्रवार को जब यह रिपोर्टर स्कूल में पहुंचा तो शिक्षक राजेश सिंह मुझे पौधों को दिखाने के लिए विद्यालय परिसर का भ्रमण कराने लगे। विद्यालय के पीछे खिड़की से देखा तो एक बच्चा अन्य बच्चों को पढ़ा रहा था। मैंने पूछा, तब बच्चों की इस काबिलियत के बारे में पता चला।
तीनों कक्षाओं में बच्चों की संख्या ढाई सौ से ज्यादा, शिक्षक मात्र दो
विद्यालय का माहौल और शिक्षण की व्यवस्था स्तरीय होने से आसपास के गावों के अभिभावक अपने बच्चों को इसी स्कूल में पढ़ाने को प्राथमिकता देते हैं। प्रभारी प्रधानाध्यापक आनंद विक्रम सिंह ने बताया कि अभी बच्चों की संख्या 240 है। पिछले वर्ष 260 थी। सितंबर तक नामांकन होना है। लिहाजा इस साल संख्या 270 के आसपास हो सकती है। कुछ बच्चों को जमीन पर भी बैठना पड़ता है।
कक्षाएं तीन और शिक्षक मात्र दो। लिहाजा एक कक्षा को हमेशा खाली रहना है। यदि प्रभारी प्रधानाध्यापक किसी बैठक या अन्य सरकारी कार्य से कहीं गए तो दो कक्षाएं खाली रह जाती हैं। ऐसी स्थिति में बच्चे ही शिक्षक की भूमिका में आ जाते हैं। कक्षा आठ के छात्र आर्यन, आलोक व फैजान को छठवीं व सातवीं कक्षा को संभालने की जिम्मेदारी दे दी जाती है।
छुट्टी के समय भी प्रार्थना, वाह भाई वाह
इस विद्यालय में दो बार प्रार्थना होती है। सुबह तो होती ही है, स्कूल की छुट्टी के बाद भी बच्चे मैदान में एकत्रित होते हैं। प्रार्थना करते हैं। इसके बाद ही लाइन से विद्यालय परिसर से बाहर निकलते हैं। इस प्रार्थना के पहले व्यायाम भी अनिवार्य रूप से बच्चे करते हैं।
त्यौहार के बाद विद्यालय खुलने पर मध्याह्न भोजन में पूड़ी-सब्जी जरूर बनती है
आजकल की जो मानसिकता है, सरकारी विद्यालयों में वही बच्चे पढ़ते हैं, जिनके अभिभावक गरीब तबके के हों। आम तौर पर त्यौहारों के अवसर पर सभी के घर कुछ न कुछ पकवान बनते हैं। लेकिन कुछ परिवारों की आर्थिक स्थिति ऐसी होती है कि वे त्योहारों पर भी कुछ अलग नहीं बना पाते। ऐसे बच्चों का ध्यान रखते हुए इस स्कूल में त्यौहार के बाद जिस दिन विद्यालय खुलता है, उसी दिन पूड़ी-सब्जी जरूर बनती है।
इन परंपराओं की शुरुआत की पं. राजनाथ उपाध्याय ने
इस विद्यालय के प्रधानाध्यापक के रूप में पं. राजनाथ उपाध्याय 2011 से 2019 तक रहे। सेवानिवृत्त होने के बाद बीमार हो गए तथा कुछ माह के बाद निधन हो गया। इन सारी परंपराओं की शुरुआत उन्हीं ने की थी। जो आज तक कायम है। सहायक अध्यापक राजेश सिंह ने बताया कि जब तक उपाध्याय जी प्रधानाध्यापक थे, उन्होंने आलमारी की चाबी कभी अपने पास नहीं रखी। चेकबुक भी निकालनी होती थी तो कोई बच्चा ही खोलकर देता था। है न, यह विश्वास की पाठशाला और बच्चों को जिम्मेदार बनाने का ट्रेनिंग सेंटर।
( स्व, पं. राजनाथ उपाध्याय की कार्यप्रणाली और कर्तव्य के प्रति समर्पण अनुकरणीय है। उनके बारे में भी शीघ्र ही। पढ़ते रहिए…sachchibaten.com)