संत और बैरागी संत
मिर्जापुर जनपद के चुनार तहसील के जमालपुर ब्लाक में मेरे गांव लोढ़वां के ठीक पूरब, एक -सवा किलोमीटर पर 200 बीघा रकबा वाला ‘बेचिरागी मौजा’ सिलौटां है। बरसाती नाला से सटे उस पार पूरब तरफ, टीला पर हनुमान जी का 6′ × 7′ × 8′ का दक्षिण मुखी छोटा सा मंदिर है। चपटे मुंह वाले लगभग पांच फीट ऊंची सालिड पत्थर की हनुमान जी की मूर्ति है। सिलौटाँ की ज्यादातर जमीन हमारे गांव के लोगों की है, कुछ भमौरा गांव के लोगों की भी है। लेकिन इस मंदिर के पूजा पाठ की जिम्मेदारी शुरू से ही मेरे गांव लोढ़वां की रही है, आज भी है। मेरे गांव के पश्चिम ओर ओड़ी गांव है, जो आजकल प्रदेश के सिंचाई, जलशक्ति व बाढ़ नियंत्रण मंत्री स्वतंत्रदेव सिंह के कारण चर्चा में है।
हालांकि यहां सिलौटा स्थित हनुमान जी के मंदिर में पूजन के लिए मेरे गांव के अलावा आस – पास के सभी गांवों के लोग आते हैं, मसलन गोगहरां, चैनपुरा, चरगोड़वां, चौबेपुर, गौरीं, गुलौरीं, परानपुर, भभौरां, देवरीला, मुड़हुआ, हसौलीं, ओड़ी वगैरह के लोग। इस मंदिर के नाम पर न तो एक इंच जमीन है और न ही रत्ती भर कोई अन्य अचल सम्पत्ति। यही इस मंदिर की खासियत है और खामी भी।
खामी इसलिए कि सम्पत्ति न होने के कारण यहां कोई पुजारी या हनुमान भक्त सुबह शाम आकर नियमित पूजा पाठ, शाम की आरती या कम से कम दिया जलाने भी नहीं आता। दरअसल मैं पूजा पाठ भी और कई धंधों की तरह एक धंधा ही है। नाला के पश्चिम ‘देबादाई का बगीचा’ आम के पेड़ों से भरा पड़ा था, हमारे बचपन में, जो अब समाप्ति के कगार पर है । मेरे हिस्से के भी यहां तीन बड़े – बड़े आम के पेड़ थे, जिन पर खूब आम फलता था।
मेरे बचपन में देबादाई के बगीचा के अलावा भी चारों ओर बहुत सघन आम का बगीचा था। देबादाई बगीचे की जमीन में मेरे गांव के कई लोगों का नाम है, मेरा और मेरे परिवार के लोगों का भी। बाग होने के कारण यह जमीन चकबंदी के समय ‘चक बाहर’ रह गया।
सिलौटा में मेरे परिवार की भी खेती वाली जमीन थी। सन 1962 में चकबंदी में मेरा एक चक यहां अठरहवा में मिला। मंदिर प्रांगण में ‘दैतराबीर का चौरा’ है. पुराने लोग कहते थे कि दैतराबीर बाबा बहुत दयालु थे और कई बार कई किसानों की सहायता कुआर (अश्विन) महीने में खेतों की सिंचाई के लिए ‘ओड़िचा छोपवाने’ में किया करते थे। सूखा तो अब भी पड़ता है, लेकिन अब बाबा सहायता के लिए नहीं आते।
मंदिर के कुछ और पूरब नहर के पार ‘बहेर्रा बाबा’ बहेर्रा के विशाल पेड़ में रहते थे। वो, उस समय के सभी भूत – प्रेतों के मुखिया थे। रात में सभी दिशाओं से भूत – प्रेत ‘लुकारी’ भांजते हुए बहेर्रा बाबा के यहां आकर नाचते-गाते थे। भोर होने के पहले वापस। अब बहेर्रा का पेड़ नहीं है। यह कहानी फिर कभी।
अरे हां, यह मंदिर यहां कैसे बना, कौन बनवाया। पुराने लोग कहते थे कि चोर लोग चोरी करके यह मूर्ति कहीं से ‘टेका के’ ला रहे थे। पेशाब करने और सुस्ताने के लिए मूर्ति यहां उतारे। जब यहां से मूर्ति ले जाने के लिए उठाने लगे तो मूर्ति उठी नहीं. लाख कोशिश की लेकिन मूर्ति टस से मस नहीं हुई। सुबह हो गई। किसान खेतों में काम करने के लिए आने लगे. चोर भाग गए.
मेरे गांव की किसी अमीर विधवा ने तालाब खुदवाया, तालाब से निकली मिट्टी से काफी ऊंचा लंबा चौड़ा कच्चा फर्श बनवाया और एक बहुत छोटा सा मंदिर बनवा दिया। किसी ने मंदिर प्रांगण में एक कुआं खुदवा दिया। कुछ वर्षों पूर्व हैंडपंप लगा। अब कुएं को ढंक दिया गया है। उत्तर प्रदेश के पूर्व ओमप्रकाश सिंह जी ने यहां मंदिर से 5 फीट उत्तर एक कमरा बनवा दिया। पिछले कुछ वर्षों से यहां शादियां होने लगी हैं । यह कमरा स्टोर रूम के रूप में इस्तेमाल किया जाताहै। अब मंदिर के सामने दक्षिण किनारे पर भभौरा गांव के एक व्यक्ति ने अपनी स्वर्गीय प्यारी बिटिया की याद में एक बरामदा बनवा दिया है।
कुछ साल पूर्व मंदिर का जीर्णोद्धार कराना पड़ा। हुआ यूं कि मंदिर की छत कमजोर हो गई थी और हनुमानजी के सिर के ठीक ऊपर बरसात का पानी चूने लगा था। पानी चूने से हनुमानजी की मूर्ति काली पड़ गई थी। गांव के चंद लोगों को छत के नवीनीकरण का ध्यान आया। लगभग 40 हजार खर्च का अनुमान लगाया गया। इतनी बड़ी राशि का इंतजाम कैसे हो।
मेरे सामने प्रस्ताव आया। मैं अब मूर्ति पूजा में यकीन नहीं करता। लेकिन यह मामला मेरे गांव की प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ था।
मैंने प्राक्कलित ‘जीर्णोद्धार राशि’ का आधा यानि बीस हजार का चेक दे दिया।
कांता चाचा के निर्देशन में मेरे अज़ीज़ मित्र बिजय सिंह, मेरे चचेरे भाई मोती लाल सिंह, शिवदास चाचा की टीम सक्रिय हुई। देखते-देखते पर्याप्त रुपये आ गये और जीर्णोद्धार के बाद मंदिर का नक्शा ही बदल गया।
इसी बीच एक नया तत्थ्य नजर आया। मंदिर के उत्तर लगभग एक फर्लांग पर ‘गैर मजरूआ’ जमीन है। वहां एक पक्के कुएं का अवशेष है। उस कुएं में वैसे ही पतले ईंट लगे हैं जैसा मंदिर में लगे हैं।
हो सकता है कि उन दिनों वहां आबादी रही हो। और जहां भी कहीं आबादी, वहां अपने ईस्ट देवता का मंदिर। मेरा बचपन गाय चराने से शुरू हुआ था। भिक्छू भैया के पिता देवराज बड़का बाबू के साथ। कभी – कभी इधर सिलौटाँ की ओर भी आते थे। सिलौटा बगीचा इतना सघन था और भूतों की प्रचलित कहानियां इतनी डरावनी थीं कि दिन में भी हम बच्चों को अकेले इस इलाके में आने में डर लगता था। यह कहानी आगे कभी।
पुराने लोगों का कहना है कि ‘मंदिर नहीं बनवाना चाहिए’ । शायद इसलिए कि मंदिर में जब किसी देव की मूर्ति स्थापित की जाती है तो समारोह पूर्वक उस देव की मूर्ति में ‘प्राण प्रतिष्ठा’ की जाती है। यानि अब देव की पाषाण प्रतिमा में जीवन आ चुका होता है। अर्थात् अब नियमित पूजा – भोग – आरती जरूरी। आप (मंदिर बनवाने वाला) के बाद कौन यह सब करेगा ?
इसीलिए अमीर लोग जब मंदिर बनवाते थे तो मंदिर के नाम जमीन लिखते थे रजिस्ट्री, ताकि उनके बाद भी पूजा पाठ होता रहे।
बाबा राघव दास का प्रवेश
जब से मैंने होश संभाला, बाबा राघव दास को सिलौटा हनुमानजी मंदिर का पूजा-पाठ करते देखा। वो रात में भी अकेले ही यहां रहते थे। लोग कहते थे कि हनुमानजी खुद उनके साथ सोते थे। नहीं तो किसकी हिम्मत थी कि उस निर्जन में अकेले सो पाए। बड़ी इज्जत थी बाबा की.
एकदम गोर अंगार, छह फीट लंबे-चौड़े, खड़ाऊं पर तेज कदमों से चलने वाले, बुलंद आवाज के मालिक बाबा राघव दास। 10 बजे तक गाढ़ी दाल, बाटी, चोखा का भोग बनाने के बाद जब शंख बजाते थे तो शंख ध्वनि गांव तक पहुंचती थी। आस – पास खेतों में काम कर रहे किसानों को नाम लेकर पुकारते थे। ‘प्रसाद’ पाकर किसान धन्य हो जाते थे. जो भी आ जाय, प्रसाद मिलता था। लोग कौतूहल वश चर्चा करते थे कि बाबा के प्रसाद में अन्नपूर्णा जी खुद विराजती थीं, इसीलिए ‘प्रसाद’ कभी कम नहीं पड़ता था। मुझे भी प्रसाद ग्रहण करने का सौभाग्य कई बार मिला।
मेरे गांव का हर समर्थ किसान महीने में एक बार सवा सेर ‘सिद्धा’ ( चावल, आटा, दाल, नून, हल्दी, अचार ) दे जाता था। आस – पास के गांव के कुछ किसान भी सिद्धा पहुंचाते थे।
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उन दिनों गेहूं और दाल की कमी रहती थी। कई किसान तो ऐसे भी थे जिन्हें खुद पूरे साल खाने भर अनाज नहीं होता था। भादो माह आते आते ‘डेढ़िया’ लेने की नौबत आ जाती थी। खुद मेरी मां को भी ऐसा करना पड़ता था। फिर भी बाबा राघव दास को ‘सिद्धा’ जाता था।
धीरे-धीरे बाबा खुद गांवों में जाने लगे। जब ज्यादा सिद्धा इकट्ठा हो जाता था, तब बाबा किसी को साथ लेकर अपनी बेटी के यहां पहुंचा आते थे। फिर बाबा ने एक गाय खरीद ली। मंदिर ‘परिक्रमा’ के ईशान कोण में बाबा ने छोटा-सा भंडार कक्ष बनवा दिया। कुछ ही दिनों बाद वहां चोरी हो गई। चोरों ने बाबा को मारा पीटा, भंडार कक्ष में संग्रहित अन्न और गाय चुरा ले गए।
धन संग्रह और सम्पन्नता अपने संगी – साथियों को अपनी ओर खींचती ही है। बाबा कुछ अस्वस्थ रहने लगे। सेवा के लिए कुछ भक्तिन महिलाएं आने लगीं। अफवाह फैलने लगी कि बाबा ‘गलत काम’ (काम वासना) करने लगे हैं। मालूम हुआ कि बाबा मंदिर छोड़कर अपनी बेटी के यहां चले गए। एकाध साल मंदिर की पूजा जैसे – तैसे हुई।
बाबा पुनः आए। लेकिन टिक नहीं पाए। लोग कहने लगे कि हनुमानजी गलत आदमी को यहां नहीं रहने देंगे। मंदिर बिना किसी बाबा / पुजारी के हो गया।
लंगड़ू बाबा
रामसूरत चाचा के यहां तरह-तरह के साधू – संतों का जमावड़ा लगा रहता था। उन्हें बहुत आनंद आता था साधू – संतों की सेवा करने में। मुड़हुआं के ‘लंगड़ू बाबा’ भी उनके यहां आनेवाले साधू – संतों में शामिल थे। रामसूरत चाचा के पास धार्मिक पुस्तकों का भंडार भी था, खासतौर पर ‘गीता प्रेस गोरखपुर’ की पुस्तकों का। धार्मिक/ शिक्षाप्रद पुस्तकों को पढ़ने की मेरी भूख वहीं शांत होती थी।
रामसूरत चाचा मुड़हुआं के लंगड़ू बाबा को सिलौटा हनुमानजी मंदिर पर रहने को राजी कर लिए। मंदिर के सामने खूब बढ़िया चारों ओर से ढंकी हुई झोपड़ी बनाई गई। लंगड़ू बाबा का दोनोें पैर जंघों से सटा हुआ था। शायद पोलियो की वजह से। चाचाजी कहते थे कि योग ध्यान में बहुत दिनों तक बैठे थे, किसी खास सूचना पर अचानक बाबा उठे और ऐसा हो गया। बाबा नाटे कद के, गोरे से आकर्षक दिखते थे। बाबा के पास रेडियो / टेप रिकॉर्डर भी था। उनकी सुरक्षा के लिए उनके भक्तगण रात में वहां सोते थे।
लेकिन लंगड़ू बाबा के साथ लोगों की श्रद्धा जुड़ न नहीं पाई। बाबा वहां ज्दादा दिन नहीं रह पाए। वापस अपने मुड़हुआं वाले आश्रम में चले गए। फिर मंदिर बिना पुजारी के हो गया।
चकबंदी में मंदिर के उत्तर तरफ सबसे बड़ा चक मुराहू काका को मिला था। मुराहू काका बहुत धीर – गंभीर और शांत स्वभाव के थे। मुराहू काका मंदिर के पूजा की जिम्मेदारी स्वत: अपने ऊपर ले लिए। मैं आईएससी में पढ़ने ‘प्रभु नारायण इंटर कॉलेज रामनगर’ आ गया था और रामनगर में ही रहता था। कभी – कभी छुट्टी में गांव जाता था।
संत का आगमन
सम्भवतः जुलाई का महीना था। मैं गांव पर ही था। मेरा उठना – बैठना मुराहू काका के बंगले पर भी होता था। उस दिन मैं वहीं था। अंधेरा होने में अभी देर थी। एक दुबला-पतला, कृशकाय, बेहद सांवला, 60 – 65 के आसपास का मजदूर जैसा दिखने वाला आदमी आया और बेहद विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर पूछने लगा कि श्री मुराहू सिंह से मिलना है। वहां उपस्थित सभी लोग उस आदमी की ओर देखने लगे।
मुराहू काका ने कहा ” बैठिए, कहिए, क्या बात है”। और मुझसे कहे ” शिऊ, पानी पियावा एनके”। मैं लोटा में पानी ले गया। बताशा देने के बाद गिलास में पानी दिया तो वो महाशय अंजुरी मुंह से लगा कर बोले “पियायीं”। काका ने कहा “गिलास में पी लीजिये”। लेकिन वो गिलास से पानी नहीं पीये, अंजुरी से ही पीये। पानी पीने के बाद, उन्होंने कहा कि “अनुमति हो तो मुझे सिलौटाँ मंदिर पर रहने दिया जाए”।
मुराहू काका और सभी लोगों ने तरह – तरह से समझाया कि वहां मंदिर पर अकेले कोई नहीं रह पाता। हम लोगों को डर था कि कुछ हो – हवा गया तो बिना मतलब ‘पाप के भागी’ हो जाएंगे। लेकिन वो महाशय मानने को तैयार नहीं थे। मंदिर की चाभी मुराहू काका के पास रहती थी। उनको चाभी दे दी गई। तब तक हनुमान जी के सिर पर चांदी का मुकुट नहीं लगा था।
काका एक कम्बल, एक चादर और सिद्धा दे दिए । हम लोग गोंइठा वगैरह लेकर साथ गये। लकड़ी मंदिर के आसपास प्रर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी ही। अगले दिन एक चौकी भी पहुंचा आए। मंदिर की विधिवत पूजा अर्चना होने लगी। बाबा दिन भर मंदिर प्रांगण को तरह – तरह के फूल – पौधों से आच्छादित करने में लगे रहते। देखते-देखते मंदिर परिसर सुगंध से महक उठा। चारो और रमन – चमन दिखाई देने लगा।
बाबा सिद्धा मांगने कहीं जाते नहीं थे और सवा सेर से ज्यादा लेते भी नहीं थे। एकाध बार ऐसा हुआ कि सिद्धा पहुंचाने की जिसकी पारी थी, वह गफलत में भूल गया और बाबा दो जून भूखे ही रह गये, लेकिन किसी से मांगने नहीं गये। मुराहू काका को मालूम हुआ। मुराहू काका सिद्धा की उपलब्धता के बारे में दरियाफ्त करते रहते थे.
मैं जब भी गांव आता तो हनुमान जी के मंदिर पर जरूर जाता था। आज भी जाता हूं। एक बार मैंने धर्म संबंधित कुछ सवाल बाबा से पूछा। बाबा ने अपने जीवन की पोटली खोल कर रख दी। बाबा ने जो बताया, वह हमारे समाज की नग्न लेकिन तल्ख सच्चाई है। बाबा सरकारी कार्यालय में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे। दलित समाज से थे। चार लड़के, सभी बेरोजगार। सेवानिवृत्ति के कुछ दिनों पूर्व लड़कों ने जान से मारने का प्रयास किया था, ताकि बड़े भाई को अनुकंपा पर नौकरी मिल जाए। लेकिन वो बच गए।
सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली सारी राशि पत्नी ने ले ली और बच्चों को दे दिया। हर महीने मिलने वाली पेंशन पर केवल दस्तखत करने भर का नाता था. पत्नी और बच्चे पैसे ले लेते थे। उन दिनों वेतन या पेंशन बैंक खाते में नहीं, सीधे नकद मिलता था।
इनकी सेवा करना तो दूर, खाने पीने की भी समस्या आने लगी। ये कुढ़ कुढ़ कर जीने लगे. इन्हें सबसे ज्यादा दु:ख अपनी पत्नी के व्यवहार से होने लगा। एक दिन घर में कलह हुआ। पत्नी भी बच्चों की तरफ हो गई। इनके दुःख और ग्लानि का ठिकाना नहीं रहा. जिन बच्चों के लिए, पत्नी के लिए न जाने कितने उल्टा – सीधा काम किए, वही लोग आज दो जून की रोटी के लिए तरसा रहे हैं।
भोर अंधेरे घर से चुपके से निकल गये कि कहीं डूब मरेंगे। चलते गये, चलते गये। पूरब जा रहे हैं या पश्चिम, कुछ पता नहीं। आषाढ़ की तीखी धूप। भूख – प्यास के मारे बुरा हाल। उन दिनों चापाकल (हैंडपंप) कहां था। गांव किस दिशा में छूट गया, अब कहां आ गए हैं, कुछ मालूम नहीं। आत्महत्या करने की मंशा पर दिमाग में वाद विवाद होने लगा। मालूम नहीं कौन था, जो कह रहा था कि ”यह जीवन तुम्हारा नहीं है, तुम इसके मालिक नहीं हो। और जो चीज तुम्हारा है ही नहीं, उसे समाप्त करने वाले तुम होते कौन हो ? आत्महत्या करोगे तो पाप के भागी बनोगे”। इसी बीच यह मंदिर आ गया सामने। दो लोग कुएं से पानी निकाल रहे थे।
मेरी दशा देखकर उन लोगों ने मुझे पानी पिलाया। मैं पानी पीकर, सामने हनुमानजी की मंदिर देखा और मन ने निश्चय कर लिया कि -“जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां”। मैं न तो साधू – महात्मा हूं, न ही पढ़ा लिखा हूं और न ही जानकार या ज्ञानी हूँ, आपके प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता। मैंने उनके पांव छुए और कहा कि आप संत हैं। निश्छल बैरागी संत।
-श्रीपति सिंह, एम फार्म (बीएचयू)
लोढ़वां, जमालपुर, मिर्जापुर
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