सरकार राजनीतिक चश्मे से देखने के बजाए सामाजिक न्याय की ईमानदार भावना के साथ काम करे
चौ. लौटनराम निषाद
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ओबीसी का उप विभाजन आवश्यक है, पर सही नीयत से लागू किया जाए। इसके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण यह है कि ओबीसी को एससी, एसटी के जैसे समानुपातिक आरक्षण की व्यवस्था पहले की जाए, ओबीसी की जनसंख्या का जातिगत आंकड़ा इकट्ठा किया जाए। इसके बाद कोटे का समानुपातिक बंटवारा किया जाना न्यायसंगत रहेगा।
79 मूल जातियों सहित उत्तर प्रदेश में ओबीसी के तहत उपजातियों/उपनामों सहित 234 जातियां आती हैं। जस्टिस राघवेंद्र कुमार की अगुवाई वाली उत्तरप्रदेश पिछड़ा वर्ग सामाजिक न्याय समिति ने अपनी रिपोर्ट में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को इनके लिए तीन भागों में बांटने की सिफारिश की है-पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा।
पिछड़े वर्ग में सबसे कम जातियों को रखने की सिफारिश की गई है, जिसमें यादव, कुर्मी, जाट, सोनार, गिरि आदि जैसी संपन्न जातियां हैं। अति पिछड़े में वे जातियां हैं, जो कृषक या दस्तकार हैं। यथा-कोयरी, कुशवाहा, साहू, पाल, लोधी, विश्वकर्मा, चौरसिया आदि को रखा गया है। जो पूरी तरह से भूमिहीन, गैरदस्तकार, अकुशल श्रमिक व परम्परागत पुश्तैनी पेशेवर हैं यथा-मल्लाह, केवट, किसान, राजभर, नोनिया, बियार, बंजारा, मंसूरी, फकीर, गद्दी,नाई,बारी आदि को सर्वाधिक पिछड़ी जातियों में रखे जाने का प्रस्ताव है।
ओबीसी के लिए आरक्षित कुल 27 प्रतिशत कोटे में संपन्न पिछड़ी जातियों में यादव, ग्वाल, अहीर, जाट, कुर्मी, सोनार और चौरसिया सरीखी जातियां शामिल हैं। इन्हें 7 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की गई है। अति पिछड़ा वर्ग में गिरी, गुर्जर, गोसाईं, लोध, कुशवाहा, कुम्हार, माली, लोहार समेत 65 जातियों को 11 प्रतिशत और मल्लाह, केवट, निषाद, राईन, गद्दी, घोसी, राजभर,नोनिया, बंजारा, नाई, बारी जैसी 95 जातियों को 9 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की गई है।
उत्तर प्रदेश की सियासत जाति के इर्द-गिर्द ही सिमटी हुई है। यादव समुदाय जहां सपा का मजबूत वोट बैंक माना जाता है तो कुर्मी और कुशवाहा समुदाय फिलहाल बीजेपी के साथ मजबूती से खड़ा है। बीजेपी की यूपी में सहयोगी अपना दल (एस) का आधार भी कुर्मी समुदाय है, जिसके चलते वो जातिगत जनगणना के आधार पर जिसकी जितनी हिस्सेदारी हो, उसी अनुपात में आरक्षण की भागीदारी होनी चाहिए की बात करती रही है। यही बात समाजवादी पार्टी भी सूबे में करती रही है। सूबे के राजनीतिक समीकरण को देखते हुए योगी सरकार भी 3 सालों से इसे ठंडे बस्ते में डाले हुए है।
केन्द्र सरकार ने भी ओबीसी उपवर्गीकरण आयोग का गठन किया है। 2 अक्टूबर, 2017 को दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश जस्टिस जी.रोहिणी (यादव) की अध्यक्षता में राष्ट्रीय ओबीसी उपवर्गीकरण जांच आयोग का गठन किया। जिसका विगत 6 जुलाई, 2022 को 13वां विस्तार देते हुए 31 जनवरी, 2023 तक रिपोर्ट देने की अपेक्षा की गई, लेकिन एक बार और विस्तार दे दिया गया। अब जाकर इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी है। इसने भी ओबीसी का 4 उपश्रेणियों में विभाजन का संकेत दिया है।
ओबीसी का उपवर्गीकरण कोई नया काम नहीं
ओबीसी जातियों के उपवर्गीकरण का निर्णय कोई नया काम नहीं है। पिछड़ी जातियों को आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्ट्र, पुड्डुचेरी, बिहार, झारखण्ड, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल में 2 से 5 उपश्रेणियों में वर्गीय विभाजन पहले से ही है। यूपीए-2 के समय 2013 में भी आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वी. ईश्वरैया की अध्यक्षता में गठित आयोग ने 2016 में ओबीसी उपवर्गीकरण के सम्बंध में सरकार को अपनी सिफारिश दी थी। और ओबीसी के पुष्ट व वैज्ञानिक आँकड़े के लिए जातिगत जनगणना को आवश्यक बताया था। उनका कहना है कि ओबीसी की सभी जातियों को समान लाभ देने के लिए राजनीतिक चश्मे से देखने के बजाए सामाजिक न्याय की ईमानदार भावना के साथ ओबीसी का उप विभाजन कर आनुपातिक हिस्सेदारी के लिए जातिगत आंकड़ों को इकट्ठा करना आवश्यक है, इसके लिए जातिगत आधार पर जनगणना कराना जरूरी है।
(लेखक भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)