रामनगर की रामलीलाः दो माह की कठिन तपस्या से तपना पड़ना है राम, सीता, भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न का किरदार निभाने के पहले
राम, सीता, भरत, शत्रुघ्न व लक्ष्मण के किरदार के लिए हर साल होता है नए बच्चों का चयन
-आषाढ़ में होता है किरदार के लिए पात्र का चयन, सावन कृष्ण पक्ष चतुर्थी से शुरू हो जाता है कड़ा प्रशिक्षण
-प्रशिक्षण के दौरान इनमें भरा जाता है देवत्व, चेहरे पर तेज लाने के लिए दिया जाता है पौष्टिक भोजन
-प्रशिक्षण केंद्र धर्मशाला से बाहर निकलने की नहीं होती इजाजत, बाहर का कुछ भी खाना वर्जित
-रुटीन की पढ़ाई बाधित न हो, इसके लिए ट्यूटर की होती है व्यवस्था
राजेश पटेल, रामनगर/वाराणसी (सच्ची बातें)। रामनगर की विश्व प्रसिद्ध रामलीला की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। 28 सितंबर से इसकी शुरुआत होगी। समापन 27 अक्टूबर को होगा। इसका आयोजन सर्व भारतीय काशीराज न्यास, दुर्ग रामनगर, काशी के तत्वावधान में किया जाता है। 2004 में यूनेस्को ने रामनगर की रामलीला को भारत की अमूर्त विरासत घोषित किया है। आइए जानते हैं इस रामलीला की विशेषताओं के बारे में।
सबसे पहले राम, सीता, भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न के बारे में
इन किरदारों के लिए हर साल आसपास के जिलों से बच्चों का ऑडिशन लिया जाता है। इसकी कुछ शर्तें होती हैं। ऑडिशन के लिए बच्चों को खोजने की जिम्मेदारी मुख्य व्यास गुजराती ब्राह्मण रघुनाथ दत्त पीढ़ी दर पीढ़ी निभा रहे हैं। इनका सहयोग इनके सुपुत्र करते हैं।
रघुनाथ दत्त ने इन मुख्य पात्रों की चयन प्रक्रिया के बारे में बताया कि रथयात्रा के दिन से इनकी तलाश शुरू होती है। करीब 30 बच्चों को रामनगर दुर्ग में ले जाया जाता है। इनकी उम्र 11 से 14 साल तक की होती है। पहले इन भूमिकाओं को गुजराती ब्राह्मण ही निभाते थे। अब आसपास के जिलों से ही इनकी तलाश की जाती है।
ऑडिशन की विभिन्न प्रक्रिया से गुजरने के बाद फाइनली पांच बच्चों का चयन किया जाता है। चयन प्रक्रिया में मुख्य निर्णायक काशी नरेश होते हैं। चयन के बाद सभी को प्रशिक्षण दिया जाता है। इसकी शुरुआत श्रावण कृष्ण पक्ष चतुर्थी से शुरू होती है। यह पूर्ण रूप से आवासीय होता है।
प्रशिक्षण गंगा किनारे स्थित बालाजी मंदिर के पास एक धर्मशाला में दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान धर्मशाला में किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित होता है। प्रशिक्षु बच्चों को भी बाहर निकलने पर पूर्ण प्रतिबंध रहता है। वे बाहर का कुछ खा भी नहीं सकते।
उनको चोट लगने से बचाने के लिए कोई खेल भी नहीं खेलने दिया जाता। बीमारी से बचाने के लिए प्रतिदिन चिकित्सक द्वारा चेकअप किया जाता है। चेहरे पर चमक के लिए इनको फल, फलों का जूस, दूध, शुद्ध देसी घी के साथ पौष्टिक भोजन दिया जाता है।
प्रतिदिन सुबह चार बजे जागना होता है। इसके बाद साढ़े पांच बजे तक प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके बाद नित्यक्रिया के लिए दो घंटे का समय दिया जाता है। नित्यक्रिया से निपटने के बाद नाश्ता, फिर आठ बजे से प्रशिक्षण शुरू हो जाता है, जो दोपहर 12 बजे तक चलता है।
दोपहर में विश्राम के लिए दो घंटे का समय दिया जाता है। यानि करीब ढाई बजे से फिर प्रशिक्षण। शाम पांच बजे से ट्यूटर आकर ट्यूशन देता है। क्योंकि सभी बच्चे किसी न किसी क्लास के विद्यार्थी होते हैं। तीन माह तक स्कूल से दूर रहते हैं। इनकी पढ़ाई पर कोई असर न पड़े, इसलिए राज परिवार की ओर से ट्यूटर लगा दिया जाता है।
क्या सिखाया जाता है प्रशिक्षण में…
रघुनाथ दत्त व्यास ने बताया कि एक शब्द में कहें तो दो माह के प्रशिक्षण के दौरान इनमें देवत्व भरा जाता है। सभी को मर्यादा की शिक्षा दी जाती है। किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, बताया जाता है। रामलीला मंचन के दौरान रामचरित मानस की चौपाइयों के साथ उनको उनकी भूमिका बताई जाती है।
पूरे प्रशिक्षण के दौरान राम के पात्र को कोई नाम लेकर नहीं बुलाता। उसे भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न का किरदार निभाने वाले बच्चे भैया कहकर ही बुलाते हैं। सीता का किरदार निभाने वाले बच्चे को राम के अलावा सभी आदर पूर्वक भाभी जी कहकर ही संबोधन करते हैं। सीता का किरदार निभाने वाला बच्चा राम की भूमिका निभाने वाले बच्चे को स्वामी कहकर बुलाता है।
इस साल किस भूमिका में कौन बच्चा है
राम की भूमिका में चंदौली जिले के रंगौली गांव के नरेंद्र पांडेय के सुपुत्र दीपक पांडेय हैं। दीपक कक्षा सात में पढ़ते हैं। सीता की भूमिका के लिए चंदौली जिले के ही अथर्व पांडेय की चयन किया गया है। बनारस जिले के देवराज पांडेय का चयन भरत के लिए हुआ है। अंश तिवारी लक्ष्मण तथा सूरज पाठक का चयन शत्रुघ्न की भूमिका के लिए किया गया है।
दो माह के प्रशिक्षण में बदल जाता है बच्चों का स्वभाव
दो माह के प्रशिक्षण के दौरान इन बच्चों का स्वभाव पूरी तरह से बदल जाता है। चंचलता पता नहीं कहां चली जाती है। कोई न तो खेलने की जिद करता है, न बाहर का कुछ भी खाने के लिए। कोई शरारत भी नहीं करता। जबकि सभी बच्चे जब घर रहते थे तो उनकी शरारतों से घर ही नहीं, आसपास के लोग भी परेशान होते थे। यह कहें कि बालसुलभ चपलता के स्थान पर मर्यादा हावी हो जाती है तो कोई गलत नहीं होगा।
पहले भरत की भूमिका निभा चुके आदित्य ने बताया…
रामलीला के दौरान का दृश्य (गोल घेरा में भरत), फाइल फोटो।
2016 की रामलीला में भरत की भूमिका निभा चुके आदित्य दत्त ठाकर ने बताया कि आज भी लोग उसे भरत नाम से ही ज्यादा जानते हैं।
भरत का पात्र निभा चुके आदित्य दत्त ठाकर।
उसके असली नाम से कम लोग ही वाकिफ हैं। आदित्य ने बताया कि महापुरुषों के किरदार को बच्चों द्वारा निभाना कितना मुश्किल होता है, यह वही जान सकता है, जो निभा चुका हो। हजारों लोगों द्वारा भगवान के रूप में देखना तथा चरण छूने के दबाव को बच्चे कैसे झेलते हैं, यह इस दो माह के प्रशिक्षण से शक्ति मिलती है। मंच पर किरदार निभाते समय ऐसा लगता है कि हम सचमुच के वही हैं, जिसकी भूमिका में हैं। इसीलिए श्रद्धा के दबाव को झेल पाते हैं।
प्रसंग के अनुसार अलग-अलग स्थान हैं रामलीला के
रामनगर की रामलीला की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां प्रसंग के लिए अलग-अलग स्थान हैं। कहने का मतलब यह है कि यहां की रामलीला हर दिन अलग-अलग स्थानों पर होती है। करीब 10 किलोमीटर के एरिया में रामलीला के अलग-अलग स्थान हैं।
दुर्ग के पास अयोध्या है। रामनगर किला से चौक की ओर जाने पर दाहिनी तरफ अयोध्या के लिए स्थान सुरक्षित है। इसी स्थान पर राजगद्दी की मेला होता है। भोर की ऐतिहासिक आरती देखने के लिए लाखों लोग जुटते हैं। हर-हर महादेव के नारों की गूंज गंगा पार बीएचयू तक सुनाई देती है।
वाराणसी रोड पर पीएसी कैंप के पास जनकपुर है। धनुष यज्ञ तथा सीता विवाह की रामलीला यहां पर होती है।
पुराना पोखरा में क्षीर सागर की झांकी नाव पर सजाई जाती है। पुराना पोखरा के दक्षिणी किनारे पर विशाल रामबाग है। इसमें अंतिम दिन की रामलीला होती है। इसमें सभी को विदाई दी जाती है। इस लीला का नाम श्रीराम उपवन विहार, सनकादिक मिलन तथा पुरजनोपदेश है।
इसी के पास पंपापुर का पोखरा भी है।
लंका का रणक्षेत्र बहुत बड़ा मैदान है। वहीं पर अशोक वाटिका भी है। पंचवटी के लिए अलग स्थान है। ताड़का का वध किसी अन्य स्थान पर होता है।
लंका के मैदान में हजारों नहीं, लाखों लोग बैठकर राम-रावण युद्ध को आंखों के सामने देखते हैं। ऊपर से देखने पर मुंड ही मुंह तथा सामने की ओर पीठ की दीवार। सरसो भी फेंक दीजिए तो उसे जमीन पर जाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। ऐसी भीड़ में भी उस समय पिन ड्रॉप साइलेंट यानि बिल्कुल सन्नाटा छा जाता है, जब व्यास बोलते हैं-चुप रहो सावधान।
आधुनिकता को हावी नहीं होने दिया गया इस रामलीला पर
रामनगर की विश्व प्रसिद्ध रामलीला पर आधुनिकता व यंत्रीकरण को हावी नहीं होने दिया गया। करीब तीन सौ वर्ष पुरानी रामलीला आज भी बिजली की रौशनी व साउंड सिस्टम के बिना ही होती है। प्रकाश की व्यवस्था के लिए मशाल तथा लालटेन का प्रयोग किया जाता है।
राम, भरत, सीता, लक्ष्मण व शत्रुघ्न के अलावा अन्य किरदारों की भूमिका पीढ़ी-दर-पीढ़ी निभा रहे आसपास के लोग
सिर्फ राम, भरत, सीता, लक्ष्मण व शत्रुघ्न की भूमिका निभाने के लिए पात्रों का चयन किया जाता है। शेष कलाकार रावण, वशिष्ठ, हनुमान, मेघनाथ, कुंभकर्ण, विश्वामित्र, जनक, जामवंत सहित अन्य तमाम भूमिकाओं को आसपास के लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी निभाते चले आ रहे हैं। जैसे रावण का किरदार मुगलसराय के पास स्थित सुरौली गांव के स्वामीनाथ पाठक निभाते चले आ रहे हैं। अब अन्य दिनों ने उनके बेटे निभाते हैं, लेकिन बुजुर्ग होने के बाद भी दशहरा के दिन वह खुद रावण बनते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो अपने बेटे को मरते देखना नहीं चाहते, दूसरा राम से सीधे सामना होता है। स्वामीनाथ कहते हैं कि राम, भरत, सीता, लक्ष्मण व शत्रुघ्न के पात्र हकीकत में देवता सदृश ही लगते हैं। उनका दर्शन ही बड़ी बात है।
दर्शक भी मनोरंजन नहीं, श्रद्धाभाव से आते हैं रामलीला देखने
रामनगर की रामलीला देखने के लिए दर्शक मनोरंजन के लिए नहीं, श्रद्धाभाव से आते हैं। चटाई, रामचरित मानस की पुस्तक के साथ आते हैं। रामलीला के मंच पर बैठी व्यास मंडली के साथ रामचरित मानस की चौपाइयों को पढ़ते हुए रामलीला में लीन हो जाते हैं। बनारस से हजारों लोग प्रतिदिन आते हैं। काशी नरेश प्रतिदिन पूरी रामलीला देखते हैं। अंत में आरती होने के बाद ही उनकी सवारी दुर्ग के लिए लौटती है। तमाम लोग तो ऐसे हैं, जो वृद्ध हो चुके हैं। चलने लायक नहीं हैं, फिर भी रामलीला देखने आते हैं।
आप भी इस रामलीला को देखने अवश्य आएं। वाराणसी से रामनगर आने के लिए गंगा नदी को पार करना पड़ता है। इसके लिए तीन पुल हैं। राजघाट, सामने घाट तथा फोरलेन पुल। रामनगर वाराणसी जिले का प्रमुख पर्यटन स्थल है। यहां का दुर्ग देखने लायक है।