स्वीकार्यता के साथ दृढ़ता का भी पर्याय बन रहे राहुल
-भारत जोड़ो यात्रा के बाद व्यापक दृष्टिकोण वाली बनी छवि
-जातीय जनगणना व दूसरे मुद्दों से निखर रही कांग्रेस की छवि
-पिछड़ों, दलितों व शोषितों को जोड़ने के लिए एकला चलो की पकड़ी राह
हरिमोहन विश्वकर्मा, नई दिल्ली। इस बात में कोई शक नहीं है कि दो बार केंद्र की सत्ता में आने के बाद इस समय भाजपा अपने सर्वश्रेष्ठ स्थान पर है। उसके पास बहुसंख्यकों का एक मजबूत वोट बैंक है जिसे वह कभी सनातन तो कभी राष्ट्रवाद की खाद दे रही है।
मोदी -शाह के रूप में उसके पास दुनिया के दो बेहतरीन रणनीतिकार और उनके क्रियान्वयन में माहिर दो चेहरे हैं। अधिक नहीं, कोई दो साल पहले की बात है ज़ब भाजपा की दो लगातार ताजपोशी ने विपक्षी दलों को किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया, किसी को समझ नहीं आ रहा कि भाजपा को तीसरी बार सत्ता में आने से रोका जाए।
यही नहीं यूपी विधानसभा की दोनों जीतें भी विपक्ष को सकते में डालने के लिए काफी थीं। कांग्रेस चिंतित थी कि यदि व्यापक हिन्दू समाज में भाजपा वैसी ही स्वीकार्य बनी रहती है जैसी कि कभी स्वयं वह थी तो वह भाजपा को केवल उसकी आर्थिक असफलताओं, क्रोनी कैपिटलिज्म और प्रशासनिक केन्द्रीयकरण तथा अल्पसंख्यकों के प्रति कठोरताओं के आधार पर निकट भविष्य में अपदस्थ नहीं कर पायेगी। ऐसे में राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा तस्वीर को बदलना शुरू कर देती है।
इतना ही नहीं, कांग्रेस हिमाचल और कर्नाटक में विधानसभा चुनाव जीत लेती है और राजस्थान में कांग्रेस सरकार बदलने की भाजपा की हर कोशिश नाकाम कर देती है। उनकी मुहब्बत की दुकान चल रही है। वैसे भी आजाद भारत में बहुमत हासिल करना बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी में संघर्ष और टकराव की निर्मम प्रक्रिया से होकर ही गुजरता आया है।
आज़ादी के कुछ ही वर्षों बाद सामाजिक-धार्मिक आबादी को राजनीतिक बहुमत में बदलने की कोशिशें शुरू हो गईं थीं। जनसंघ – आरएसएस ने धार्मिक बहुमत के ध्रुवीकरण पर जोर दिया तो पिछड़ावादी-दलितवादी दलों ने सामाजिक बहुमत के ध्रुवीकरण को सफलता की कुंजी समझा। बावजूद इस ध्रुवीकरण के शुरुआती परिणामों के, कांग्रेस लंबे समय तक एक ऐसे दल के रूप में केन्द्रीय सत्ता बनी रही जिसे सभी धार्मिक-सामाजिक समुदायों का विश्वास प्राप्त रहा।
पर धीरे-धीरे जातीय व धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ता गया। 90 के दशक में इस ध्रुवीकरण को मंडल बनाम कमंडल के ध्रुवों के रुप में पहचाना गया था। कांशीराम ने सवर्ण जातियों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए बहुजन समाज को राजनीतिक बहुमत में बदलने की कोशिश थी। पर सवर्णों के वर्चस्व के प्रतिरोध और सामाजिक परिवर्तन के जोश के बावजूद बहुजनी एकता दृढ़ न रह पाई।
पिछड़ों व दलितों की अपनी-अपनी गोलबंदी हुई और इस गोलबंदी में सवर्ण वोटों की जरूरत भी पड़ने लगी। ऐसे में सवर्ण प्रतिरोध, सवर्ण तुष्टीकरण में बदल गया। किसी ने ठाकुरों को बहुमत के लिए आवश्यक पाया तो किसी ने ब्राह्मणों को। दक्षिणी राज्यों की तुलना में उत्तर भारत में सवर्ण आबादी अधिक होने से सवर्ण मतों की जरूरत महत्वपूर्ण थी। भाजपा को मुस्लिमों को छोड़कर हिन्दू एकता के बल पर सत्ता पाना सहज लगा।
पर पिछले एक दशक में भाजपा ने सवर्णों को सामाजिक आधार के रूप में तो बनाये रखा ही साथ ही दलितों-पिछड़ों के बीच भी अपना आधार बढ़ाया। उसने पुरानी कांग्रेस की तरह सभी जातियों में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई और दो दो बार केन्द्र की सत्ता हासिल की। पर अब जैसे-जैसे 2024 के आम चुनाव निकट आ रहे हैं वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण का जवाब विपक्षी दल सामाजिक बहुमत को राजनीतिक बहुमत में बदलकर देने जा रहे हैं।
बिहार में जातिगत जनगणना के रिजल्ट इसी की ओर संकेत हैं। स्पष्ट है भाजपा भी इससे कहीं न कहीं डरी हुई है। यह अब कोई छुपी बात नहीं कि धार्मिक-सामाजिक ध्रुवीकरणों ने ही कांग्रेस को कमजोर किया। उप्र में विगत 4 दशक से उसका सत्ता से बाहर रहना इसी की परिणति है। पर अब राहुल गाँधी विपक्ष की इस नई रणनीति का न सिर्फ नेतृत्व कर रहे हैं बल्कि कांग्रेस में भी फिर से पार्टी से छिटके समुदायों को वापस लाने के लिए उन्हीं की भाषा में बात कर रहे हैं।
उन्होंने पार्टी में दलित नेतृत्व को बढ़ाने के साथ पिछड़ी जातियों के महत्त्व को भी समझा है और उनकी मांगों को स्वयं उठाना शुरू किया है। पिछले एक महीने में कभी कारपेंटर, कभी दलितों, मुस्लिमों से उनकी मुलाकातें इसी का हिस्सा है। दक्षिण के दलित समुदाय से आनेवाले मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाने में उनकी केंद्रीय भूमिका रही। पर उन्हें पिछड़ी जातियों से भी समर्थन की सख्त जरूरत है। इसलिए उन्होंने महिला आरक्षण में ओबीसी का कोटा और जातिगत जनगणना व आरक्षण का मुद्दा उठाना शुरू किया।
जिन राज्यों में कांग्रेसी सरकारें हैं वहाँ उन्होंने मंत्रिमंडल व टिकट वितरण में आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व की नीति अपनाई। उनका नारा है- जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी। इस बात की उन्हें चिंता नहीं है कि इससे उत्तर भारत के सवर्णों की कांग्रेस में वापसी टल सकती है। इसमें शक नहीं कि राहुल गांधी के इस कदम से सामाजिक न्यायवादी राजनीति से उनकी ट्यूनिंग मजबूत और अधिक मुखर होगी।