January 25, 2025 |

भारत में हिंदू राष्ट्र की महाविपदा को रोकना डॉ. अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि

Sachchi Baten

पुण्यतिथि विशेषः संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर की स्मृति वाली तारीख आजाद भारत में संविधान पर सबसे बड़े हमले का दिन बन गई !

 

-लाल बहादुर सिंह

6 दिसंबर की पूर्व संध्या पर मुख्यमंत्री के संवैधानिक पद पर बैठे योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में एक बेहद उत्तेजक बयानबाजी में कहा है कि जो राम का नहीं उसे दुश्मन की तरह त्यागें। गौरतलब है कि 90 के दशक में हिंदुत्ववादी ताकतों का यह नारा था कि जो राम का नहीं, वह किसी काम का नहीं। उसे योगी जी ने आगे बढ़ाकर सीधे दुश्मन घोषित कर दिया है। उन्होंने कहा कि 500 वर्ष पूर्व जो बाबर ने किया, वही संभल और बांग्लादेश में हो रहा। तीनों का डीएनए एक है। जबकि सच्चाई यह है कि संभल और बांग्लादेश में अगर कोई समानता है, तो यही है कि दोनों जगह अल्पसंख्यक निशाने पर हैं।

1992 के पहले तक 6 दिसंबर की की तारीख को डॉ. अंबेडकर की पुण्यतिथि के रूप में जाना जाता था, लेकिन 1992 के बाद उसकी एक नई पहचान बन गई, वह बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन के रूप में जानी जाने लगी। यह कोई संयोग था या प्रयोग?वह तिथि जो संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर की स्मृति से जुड़ी हुई थी, वही आजाद भारत में संविधान पर सबसे बड़े हमले का दिन बन गई !

6 दिसंबर 1992 हमारे समकालीन इतिहास की सबसे डिफाइनिंग तिथि बन गई। आज देश में जिस सांप्रदायिक फासीवादी निज़ाम को हम अपने विकसित रूप में देख रहे हैं, उसका अहम पड़ाव थी यह तारीख।

वैसे तो यह विवाद पुराना था, लेकिन लंबे समय तक यह अयोध्या फैजाबाद के स्थानीय दायरे तक सीमित था। इसने आजाद भारत में ही एक राजनीतिक स्वरूप ग्रहण किया। नेहरू के शासन काल 1949 में ही वहां राम लला की मूर्ति रखी गई। लेकिन उस समय सरकार ने इसको रोकने का कोई कदम नहीं उठाया। उधर उस समय तक आरएसएस के लिए भी यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं बना था। बल्कि उस समय वे गौ हत्या आदि सवालों पर केंद्रित थे। यह एक राजनीतिक मुद्दा 80 दशक में आकर तब बना जब जनसंघ के नए अवतार भाजपा ने इस मुद्दे को अपने हाथ में लिया और चालाकी से इसे राष्ट्रवाद से जोड़ दिया। यह कहा गया कि यह एक विदेशी आक्रांता की बर्बरता का प्रतीक है। इसलिए उसकी जगह राम मंदिर निर्माण को राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक और राम को राष्ट्रीय नायक बना दिया गया।

दरअसल 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को महज 2सीटें मिलीं थी। तब “गांधीवादी समाजवाद” के अपने चोंगे को उतार फेंककर भाजपा ने और पूरे संघ परिवार ने राम जन्मभूमि के सवाल को जोरशोर से उठाना शुरू किया। दरअसल इसमें उसको इंदिरा गांधी ने जिस तरह अपने आखिरी कार्यकाल में हिंदू अवतार में अपने आप को पेश किया, उससे मदद मिली। आडवाणी ने कभी कहा था कि इस मुद्दे को उठाने का सवाल उनके मन में सबसे पहले तब आया जब इंदिरा गांधी विहिप के हिंदू एकात्मता कार्यक्रम में शामिल हुईं। उन्हें लगा कि यह तो हिंदुत्व का एजेंडा भी उनसे छीन लेंगी। ऑपरेशन ब्लू स्टार से लेकर इंदिरा गांधी की हत्या तक माहौल हिंदूमय होता गया।

बाद में राजीव गांधी ने जिस तरह चुनावों के पहले वहां ताला खुलवाया और वहां से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की, उससे यह सवाल राजनीतिक सामाजिक विमर्श में केंद्रीयता ग्रहण करता गया। दरअसल शाहबानो पर आए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए फरवरी 1986 में राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला बिल पास करवाया, उससे संघ और भाजपा को कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाने का ठोस मुद्दा मिल गया। उसी के आसपास फैजाबाद जिला न्यायालय द्वारा अयोध्या में ताला खोलकर पूजा करने की इजाजत दे दी गई। यह माना गया कि राजीव गांधी ने शाहबानो फैसले से नाराज हिंदुओं को खुश करने के लिए यह करवाया है। दरअसल वे दोनों संप्रदाय के कट्टरपंथी तत्वों को संतुष्ट करना चाहते थे।

उस समय एक वामपंथी सांसद ने टिप्पणी की थी कि “राजीव गांधी अपने को देश को इक्कसवीं सदी में ले जाने वाला साबित करना चाहते हैं, लेकिन हकीकत में उनका दिमाग मुल्लाओं और पंडितों के समान ही पुरातन काल का था।”

बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद RSS और विहिप जैसे संगठनों का मनोबल और बढ़ गया। विहिप ने पूरे देश में जिस तरह मंदिर निर्माण के लिए शिलापूजन अभियान शुरू किया, उससे चौतरफा तनाव फैलने लगा। “गर्व से कहो हम हिंदू है” की गूंज बढ़ने लगी। इसी दौर में आए रामायण सीरियल ने, जो बेहद लोकप्रिय हुआ, इस मुद्दे को घर घर तक पहुंचा दिया।

दरअसल विहिप ने दो नवंबर को औपचारिक तौर पर राम मंदिर के शिलान्यास की घोषणा कर दी। उत्तर भारत के कई शहरों में सांप्रदायिक संघर्ष शुरू हो गए। सबसे भयानक दंगे बिहार के भागलपुर में हुए। जिसमें कई सौ मुसलमान मारे गए और अनगिनत बेघर बार हो गए। हिंदू मध्यवर्ग का समर्थन जहां भाजपा के पक्ष में बढ़ता गया वहीं मुसलमानों का कांग्रेस से अलगाव बढ़ता गया।

1989 के चुनाव के बाद वीपी सिंह की सरकार अस्तित्व में आई। लेकिन वह वामपंथ और भाजपा के समर्थन पर टिकी हुई थी। वीपी सिंह ने जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया तब आरएसएस-भाजपा ने दोहरी रणनीति अख्तियार की, एक ओर आरक्षण विरोधी आंदोलन को इन्होंने हवा दिया, दूसरी ओर आडवाणी ने मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा का ऐलान किया। इसे मंडल के खिलाफ कमंडल की राजनीति के रूप में जाना गया। इस यात्रा ने देश में विशेषकर यात्रा के रूट में जबर्दस्त सांप्रदायिक तनाव को जन्म दिया। यह यात्रा 25सितंबर 1990 से शुरू होकर 5 सप्ताह में अयोध्या पहुंचने वाली थी जहां दो नवंबर से मंदिर निर्माण की औपचारिक शुरुआत का ऐलान किया गया था। बहरहाल उसके एक सप्ताह पहले ही बिहार में लालू प्रसाद ने आडवाणी को गिरफ्तार करवा लिया।

उधर 30 अक्टूबर को कारसेवकों की भारी भीड़ बाबरी मस्जिद ढांचे की ओर बढ़ी और वहां बीएसएफ के जवानों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, जिसमें अंततः उन्हें गोली चलानी पड़ी। लड़ाई तीन दिनों तक चलती रही जिसमें 20 कारसेवक मारे गए। उनकी अस्थियों के कलश घुमाए गए और पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव चरम पर पहुंचा दिया गया। इसके बाद देश में जगह जगह दंगे भड़क उठे, विशेषकर उत्तरप्रदेश में। ट्रेनों तक पर हमले करके समुदाय विशेष के लोगों को मारा गया। इतिहासकार रामचंद्र गुहा के शब्दों में माहौल कुछ कुछ बंटवारे के समय जैसा था।

उधर भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस ने समर्थन देकर चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवा दिया।
4 महीने बाद में चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति का फायदा मिलने के कारण नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बन गई। उन्हीं के कार्यकाल में विहिप ने 6 दिसंबर, 1992 की तिथि तय की मंदिर निर्माण शुरू करने के लिए। तब तक कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तरप्रदेश में भाजपा की सरकार बन चुकी थी।

इस सरकार ने अयोध्या पहुंचने में कार सेवकों की हर संभव मदद की, जबकि सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दिया जा चुका था कि मस्जिद की रक्षा की जाएगी। बहरहाल 6 दिसंबर को मस्जिद गिरा दी गई और वहां उपस्थित फोर्स ने कारसेवकों को रोकने का कोई कारगर प्रयास नहीं किया। यह माना गया कि नरसिंह राव की सरकार में मस्जिद को बचाने की इच्छाशक्ति का अभाव था। फिर जगह जगह दंगे शुरू हो गए जिसमें अनगिनत जान माल का नुकसान हुआ।

इस विवाद को हल करने की दिशा में अनेक सुझाव दिए गए थे। मसलन एक सुझाव यह था कि उस विवादित स्थल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया जाय, 1857 के शहीदों का स्मारक। गौरतलब है कि 1857 हिंदू और मुस्लिम जनता की एकता का प्रतीक थी और अवध उसका सबसे बड़ा केंद्र था। इस मांग को लेकर AISA, RYA जैसे छात्र युवा संगठनों ने अयोध्या में मार्च करने का प्रयास किया। लेकिन भारी पुलिस बल लगाकर न सिर्फ उन्हें रोक दिया गया, बल्कि गिरफ्तार करके प्रदेश के तमाम जिलों में जेलों में भेज दिया गया।

का. विनोद मिश्र जैसे लोगों ने तब कहा था कि कोर्ट से इस मामले के समाधान की बजाय इतिहासकारों व नागरिक समाज की प्रतिष्ठित शख्सियतें दोनों पक्षों से बातचीत करके इसका सर्वमान्य हल निकालें। लेकिन इस तरह के तमाम शांतिकामी लोकतांत्रिक सुझावों को नकार दिया गया। बहरहाल मामला उच्चतम न्यायालय तक गया, जहां तथ्यों और तर्कों की बजाय आस्था और भावना के आधार पर फैसला दे दिया गया और वहां मंदिर निर्माण का फैसला आ गया, जहां 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा भी हो गई। न्यायालय ने यह माना कि मस्जिद गिराना अपराध था लेकिन किसी को उसकी सजा नहीं मिली, उल्टे वहां मंदिर बनाने के पक्ष में निर्णय आ गया।

आज एक बार फिर तेजी से सांप्रदायिक तापमान बढ़ाया जा रहा है। ज्ञानवापी, मथुरा, संभल, अजमेर शरीफ की दरगाह होते हुए बात ताजमहल लाल किला कुतुब मीनार तक पहुंच गई है। भाजपा के नेता गिरिराज सिंह ने लाल किला, कुतुब मीनार पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। यूपी कॉलेज में एक मजार पर नमाज रोकने और हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए हुड़दंग हुई। आश्चर्य की बात है कि यह सब कुछ पूजास्थल अधिनियम 1991 का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए हो रहा है। लोगों को उम्मीद थी कि बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवाद इस तरह का अंतिम विवाद होगा। लेकिन यह तो पूरा पंडोरा बॉक्स ही खुल गया है।

इसमें बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतों द्वारा हिंदुओं पर हो रहे हमले हमारे देश के कट्टरपंथियों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ माहौल बिगाड़ने में खाद पानी मुहैया करा रहे हैं। माहौल को 6 दिसंबर 1992 जैसे हालात की ओर धकेला जा रहा है।

यह अनायास नहीं है कि आज फिर जब रोजगार और महंगाई का सवाल, जाति जनगणना और सामाजिक न्याय का सवाल उठ रहा है, तब फिर वही पुराने मंडल बनाम कमंडल की तर्ज पर, जन मुद्दों को पीछे धकेल देने के लिए “एक हैं तो सेफ हैं” और “बटोगे तो कटोगे।” जैसे नारे उछाले जा रहे हैं।

यह स्पष्ट है कि सांप्रदायिक फासीवादी ताकतों का यह नंगा नाच हमारी राष्ट्रीय एकता, गंगा जमनी तहजीब, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी, जो लगभग 20 करोड़ के आसपास है, उस को जिस तरह नागरिक अधिकार विहीन दोयम दर्जे के शहरी में बदल देने की कोशिश हो रही है, उसके नतीजे हमारे राष्ट्र और समाज के लिए भयावह होंगे।

जैसा डॉ. अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि अगर भारत कभी हिंदू राष्ट्र बना तो वह देश के लिए सबसे बड़ी विपदा साबित होगा। आज घोषित नहीं, अघोषित, अधूरे ढंग से वही मंजर हमारे सामने है। आज डॉ. अंबेडकर की पुण्यतिथि पर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में जो कुछ हुआ उसकी देश में और कहीं पुनरावृत्ति की मुहिम को रोका जाय, फासीवादी ताकतों को शिकस्त देकर भारत को एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बनाया जाय। (साभार जनचौक)

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)


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