सामाजिक समूहों की ताकत ही सत्ता की कुंजी है
कुमार दुर्गेश
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सत्ता ही सियासत का लक्ष्य है। सत्ता ही आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक उत्थान का औजार है. विकास, राष्ट्रवाद, समाजवाद हिंदुस्तान की राजनीति में कभी-कभार सियासी लफ्फाजी लगता है।
भारत में अंग्रेजों से सत्ता के हस्तांतरण के बाद अपर कास्ट का सामाजिक समूह भारत पर कब्जा कर बैठ गया। काका कालेलकर समिति हो या मंडल कमीशन, सब पर नाग की तरह कुंडली मार कर यह समूह बैठा रहा। यहां समूह से तात्पर्य उन जातियों के डोमिनेंट मानसिकता वाले वर्ग से है, न कि पूरी जाति से।
यह वर्ग सामाजिक सुधार का श्रेय भी लेना चाहता रहा और काम भी नहीं करना चाहता था। पंडित नेहरू ने सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना जरूर की, लेकिन उन उपक्रमों में पिछड़े, दलित, वंचित को काम करने के लिए लेवल प्लेयिंग फिल्ड मिले… ऐसा एक काम नहीं किया। बिहार में श्रीकृष्ण सिंह ने जमींदारी प्रथा समाप्त की, किन्तु सीलिंग की जमीनों का वितरण नाममात्र का हुआ। असल में सत्ता के हस्तांतरण के बाद यह सामाजिक समूह अपनी खाट पर धूनी रमा कर बैठ गयाा।
लालबहादुर शास्त्री प्रशासनिक अध्ययन संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सीलींग एक्ट के तहत चिन्हित लगभग 5,50 लाख हेक्टेयर भूमि में लगभग 90 हजार हेक्टेयर जमीनों को ही भूमिहीन परिवारों के बीच वितरित किया जा चुका है। अब तो अनेक राज्यों में सीलिंग एक्ट अर्थात भू- हदबंदी कानून का ही कचूमर निकाल दिया गया है।
बिहार में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण सर्वे के अनुसार 2000 में 75% ग्रामीण गरीब भूमिहीन थे। अर्थात इस देश का मजबूत सामाजिक समूह संसाधनों पर कब्जा जमाये रहने के लिए बिलकुल एकजुट रहा। कभी कांग्रेस, कभी भाजपा दोनों को अपने अनुसार नचाता रहा है।
देश के संसाधनों पर कब्जा जमाये यह 10-15% वर्ग बिल्कुल टस से मस नहीं होता है। यह जानता है कि डेमोक्रेसी नंबर का गेम है। आपस में लड़े तो दूसरे लाभ उठायेंगे। यह सामाजिक समूह ही केन्द्रीय सत्ता की केन्द्र में रहता है।
भारत की राजनीति में ऐसा उदाहरण नहीं है, जहां पिछड़े वर्ग, दलितों अथवा किसी भी समूह को सत्ता बिना सामाजिक समूहों के गठन के मिला हो।
बहुजन मूवमेंट सामाजिक समूहों के गठन का उदाहरण है। मंडल लहर पिछड़े वर्ग के सामाजिक समूहों का जुटान था। असम में प्रफुल्ल कुमार महंत का राज्यारोहण असमिया अस्मिता का उदाहरण है।
लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव की सफलता सामाजिक समूहों के आधार पर टिकी है।
भारतीय मतदाताओं में गवर्नेंस के आधार पर वोट डालने का अधिक उदाहरण नहीं है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने अर्बन गवर्नेंस के नाम पर दोबारा सरकार जरूर बना ली है। लेकिन ध्यान रहे कि यह सिर्फ और सिर्फ दिल्ली में हुआ है। पूरा भारत दिल्ली नहीं है।
यदि बीजेपी की जड़ में देखें तो अपर कास्ट जातियों का गंभीर और धैर्यवान गठजोड़ सामने आएगा। यह गठजोड़ सत्ता के लिए आपस में पिछड़े वर्ग में शामिल जातियों की तरह सिर फुटौव्वल नहीं करता है। यह गठजोड़ अपने मुद्दों के प्रति समर्पित भाव से महीन राजनीति करता है।
दक्षिण में द्रविड़ आंदोलन की शुरुआत भी ब्राह्मणवादी सोच और हिंदू कुरीतियों पर प्रहार करने के लिए हुई थी, जो आगे चलकर हिंदी विरोध समेत अन्य मुद्दे को छूकर करुणानिधि के लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया।
दिलचस्प बात यह भी है कि भारत में गवर्नेंस अर्थात विधि-व्यवस्था, बिजली-पानी, उत्कृष्ट शिक्षा, रोजगार के लिए आंदोलन न के बराबर हुए हैं। यह सरकारों के लिए शर्म की बात है कि अभी भी भारत में प्रतिनिधित्व के लिए ही आंदोलन होता है, जो साफ दर्शाता है कि सामाजिक समूह ही सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति रखते हैं, चाहे वह सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का।
जब तक भारत में सामाजिक विषमता को जड़ तक खत्म नही किया जाएगा, तब तक वोटिंग पैटर्न भी बदलना मुश्किल है। वर्तमान में भारत का डोमिनेंट वर्ग पिछड़े वर्ग, दलितों को रिवर्स गियर में डाल चुका है। इसके प्रतिरोध के लिए सामाजिक समूह का गठजोड़ ही एकमात्र अस्त्र है। ध्यान से देंखे तो डोमिनेंट वर्ग खुद सरकार, कारपोरेट, मीडिया, न्यायपालिका इत्यादि में सामाजिक गठजोड़ की बदौलत कब्जा जमा कर बैठा है और पिछड़े वर्ग को वोट करने के लिए नेशनलिज्म, गवर्नेंस का लालीपॉप देता है। यह कितना हास्यास्पद है। हालांकि हास्यास्पद तो यह भी है कि पिछड़े वर्ग के लोगों को यह नेक्सस समझ में ही नहीं आता है। भारत में सबसे जरूरी है कि सामाजिक और आर्थिक विषमता को दूर किया जाए।
सामाजिक ढांचा में विषमता की जड़ कहाँ है? भारत अलग-अलग भाषाओं, धर्मों, क्षेत्रों के आधार पर वर्गीकरण वाले विशाल समूहों का देश है। अलग- अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समस्या है। किन्तु भारत में सबसे बड़ी समस्या यहां की सरकार की है, जो व्यवस्था परिवर्तन में ‘कच्छप गति’ से चल रही है।
इन समस्याओं से मुंह चुराकर भारत विश्व गुरु कभी नहीं बन सकता है। भारत में गवर्नेंस मुद्दा नहीं बन सकता है और गवर्नमेंट डिलीवर नहीं करेगी। सामाजिक विषमता की छाती पर चढ़ बैठने के लिए सामाजिक समूहों का गठजोड़ जरूरी है। गवर्नेंस के नाम पर काम कमोबेश सभी सरकारें एक जैसा ही करती हैं अर्थात आमूलचूल परिवर्तन नहीं दिखाई देता है।
लेकिन सोशल जस्टिस लागू करने के पिछड़े, वंचितों की अपनी सरकार चाहिए। अपनी सरकार के लिए पिछड़े वर्ग के सामाजिक समूहों का चरित्र क्या होना होना चाहिए, इस पर आत्मचिंतन समय की मांग है।
लेखक सामाजिक चिंतक हैं।