डिजिटल युग में सबके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य की संभावनाएं
Possibilities of education and health for all in the digital era
डिजिटल युग में सबके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य की संभावनाएं
हमारे भारत में या हमारे राज्य में सबसे ज्यादा लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं यानी उनके जीवन में निरंतरता नहीं रहती है। कभी अच्छी स्थिति तो कभी खराब स्थिति। जीविका को लेकर संघर्ष उनका चलता रहता है।
ऐसे लोगों के बच्चों के पढ़ने के लिए कम से कम जो 6 साल से नीचे के हैं उन्हें अक्षर का ज्ञान देने के लिए, पोषण तत्व देने के लिए आंगनबाड़ी केंद्रों की स्थापना भारत में की गई है। लगभग 8:30 मिलियन बच्चे आंगनबाड़ी केंद्रों के तहत पढ़ते हैं, किंतु आंगनबाड़ी केंद्रों की हालत देखेंगे तो उन्हें पढ़ाने के लिए ट्वॉयज, वर्कशीट इत्यादि ना के बराबर होते हैं ।
आंगनबाड़ी केंद्र को चलाने के लिए 2-3 उसके स्ट्रक्चर होते हैं। एक ब्लॉक लेवल पर आईसीडीएस का अधिकारी होता है। पर्यवेक्षक उसके होते हैं। जिला स्तर पर डीपीओ होते हैं। मान कर चलिए कि प्रत्येक आंगनबाड़ी केंद्र महीने में हजार रुपये से ₹2000 आईसीडीएस ऑफिसर को रिश्वत दे आते हैं। तो बच्चों के पढ़ाने के लिए जो सबसे बेहतर सुविधा दी गई है, उसमें भी हम गद्दारी करते हैं।
भारत दुनिया के चंद ऐसे मुल्कों में है, जो अपने बच्चों के दूध में मिलावट करता है। दूध में पानी डालता है, मगर शिव लिंग पर शुद्ध दूध चढ़ाता है।
साल 2018 में प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेने वाले छात्रों का प्रतिशत 30. 9% था जबकि 2022 में 25.1% ही छात्र प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेते हैं। बिहार के 70% छात्र जो निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं, ट्यूशन करते हैं । जबकि झारखंड के 45% छात्र हिमाचल के 15% छात्र और महाराष्ट्र के मात्र 10% छात्र ही ट्यूशन करते हैं। यानि बिहार के कुल 30 प्रतिशत छात्र ट्यूशन करते हैं।
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सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों में 37% छात्र ही अपने टेक्स्ट बुक को सही तरीके से पढ़ पाते हैं। जबकि निजी स्कूलों में मात्र 61% छात्र ही अपने टेक्स्ट बुक को सही तरीके से पढ़ते हैं। जिससे साबित होता है कि आंगनबाड़ी केंद्रों में करोड़ों रुपये बहाए जाने का नतीजा कोई खास नहीं निकल रहा है। अंग्रेजी शिक्षा में भी कोई अच्छी प्रगति नहीं हो रही है।
उच्च शिक्षा के प्रति अरुचि यह है कि 15 से 16 एज ग्रुप के 7.5 प्रतिशत छात्र स्कूल में दाखिला नहीं ले रहे। यह 2022 की स्थिति है । स्टैंडर्ड 5 के 42 परसेंट छात्र ही स्टैंडर्ड टू के लेवल का टेक्स्ट बुक पढ़ पाते हैं । स्टैंडर्ड 3 के मात्र 25. 9 प्रतिशत छात्र ही गणित के सामान्य प्रश्नों का हल करने में सक्षम है। स्टैंडर्ड 5 के 25.6 प्रतिशत छात्र ही ऐसा कर पाते हैं।
बिहार में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति बेहद खराब है। 70 हजार शिक्षक फर्जी सर्टिफिकेट पर काम कर रहे हैं। अंग्रेजी शिक्षा न के बराबर है। बिहार सरकार चाहे तो अंग्रेजी के लिए पंचायत स्तर पर सरकार 10000 लोगों को रखकर पांच साल के लिए एक मॉडल को आजमा सकती है।
समाज में चिंतक भी होने ही चाहिए। 2-4 कैरियर काउंसलर होने ही चाहिए। नहीं तो कल कौन बताएगा कि दुनिया में रोजगार का केंद्र अब सरकारी नौकरी नहीं है। आईटी कंपनियां है।आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पढ़ना पड़ेगा। रोबोट टेक्नोलॉजी पढ़नी पड़ेगी। क्वांटम कंप्यूटिंग पढ़ना पड़ेगा।
समाज में शिव नादर, अजीम प्रेमजी जैसे कार्पोरेट नहीं पैदा होंगे तो समाज के लिए पैसे कहां से आयेगा? यदि ऐसा नहीं होगा तो समाज नही बदलेगा। यह जिम्मेदारी समाज के सक्षम लोगों को उठानी होगी। सिर्फ सॉफ्टवेयर इंजीनियर नहीं, बल्कि अपने बच्चों को पे बैक टू सोसायटी के लिए तैयार करना होगा। अभी जो आर्थिक क्षमता है, वो पब्लिक एडवोकेसी पर खर्च कीजिए और दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
-दुर्गेश कुमार
(लेखक बिहार के निवासी तथा सामाजिक चिंतक हैं)