राजनीति : यूपी में सत्ता की चाबी कुर्मी समाज क्या करिश्मा दिखाएगा 2027 में?
Sachchi Baten Wed, Apr 9, 2025

-राजेश पटेल
पिछले 10 साल से हिंदू-मुसलमान करके जिस तरह से ओबीसी के हक और अधिकार पर डाका डाला जा रहा है, उसे इस समाज की प्रबुद्ध कुर्मी जाति के लोग भलीभांति समझ रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी दलों से कुर्मियों का मोहभंग तेजी से हो रहा है। देखने वाली बात यह होगी कि कुर्मी समाज की इस मनोदशा का लाभ पीडीए का नारा देने वाली यूपी की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी कितना उठा पाती है।
हालांकि समाजवादी पार्टी इसे भलीभांती समझती है कि यदि कुर्मी उसके पाले में आ जाएं तो उसे यूपी की सत्ता में आने से कोई रोक नहीं सकता। इसमें उसके सामने सबसे बड़ी बाधा बनकर अपना दल सोनेलाल पार्टी खड़ी है। 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले तक समझा जाता था कि कुर्मी मतदाताओं पर अपना दल सोनेलाल का एकाधिकार है। इसकी राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल कुर्मी जाति के नेता के रूप में प्रतिष्ठित करवाने में यह समझ काफी कारगर हुई।
2024 के लोकसभा चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने काफी हद तक इस परसेप्शन को बदला है। कुर्मी जाति के 10 उम्मीदवारों को टिकट देकर इस समाज के बीच सकारात्मक संदेश देने में उनको सफलता मिली। 10 कुर्मी में जीते तो मात्र सात, लेकिन उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को बड़ी जीत दिला दी। कुर्मी जाति को महत्व देने के ही कारण समाजवादी पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनाव में 37 सीटों पर जीत मिली।
सपा ने इस चुनाव में 27 ओबीसी को टिकट दिए थे। इनमें सबसे अधिक 10 टिकट कुर्मी जाति के लोगों को दिए गए। उत्तर प्रदेश में कुर्मी यादवों के बाद दूसरी सबसे बड़ी ओबीसी जाति है। साल 2014 और 2019 के चुनाव में बीजेपी को मिली सफलता में कुर्मी जाति का योगदान बहुत अधिक था। इसलिए इस बार सपा ने बीजेपी को उसी के हथियार से मात दी। सपा ने ऐसी कुर्मी बहुल सीटों की पहचान की, जहां बीजेपी ने गैर ओबीसी उम्मीदवार खड़ा किए थे। इनमें से प्रमुख थी लखीमपुर खीरी और बस्ती की सीट। खीरी को कुर्मी बहुल सीट माना जाता है। लेकिन बीजेपी पिछले दो चुनाव से वहां ब्राह्मण समाज के अजय कुमार मिश्र टेनी को टिकट दे रही थी और वो जीत रहे थे। किसान आंदोलन के दौरान हुए हत्याकांड को लेकर मिश्र को लेकर टेनी में गुस्सा था। इस बार सपा ने वहां से कु्र्मी जाति के उत्कर्ष वर्मा को टिकट दिया। उत्कर्ष ने अजय को 34 हजार से अधिक वोटों से मात दे दी। वहीं बस्ती में बीजेपी के हरीश द्विवेदी पिछले दो चुनाव से जीत रहे थे। वहां सपा ने एक बार फिर राम प्रसाद चौधरी पर भरोसा जताया। उन्होंने पार्टी के भरोसे पर खरा उतरते हुए जीत दर्ज की। वह भी तब जब बसपा ने भी वहां से एक कुर्मी उम्मीदवार उतारा था.
इन दोनों के अलावा कुर्मी जाति के बांदा से कृष्णा देवी पटेल, फतेहपुर से नरेश उत्तम पटेल, प्रतापगढ़ से एसपी सिंह पटेल, अंबेडकर नगर से लालजी वर्मा और श्रावस्ती से राम शिरोमणि वर्मा सांसद चुने गए। सपा ने बहुत सोच-समझ कर बीजेपी के ब्राह्मण उम्मीदवारों के खिलाफ कुर्मी उम्मीदवार खड़े किए। ऐसा इसलिए कि प्रदेश में कुर्मी और ब्राह्मण को बीजेपी का कोर वोटर माना जाता है। सपा ने बांदा को छोड़कर किसी भी ऐसी सीट पर कुर्मी प्रत्याशी नहीं दिए, जिस पर बीजेपी या उसके सहयोगी अपना दल का उम्मीदवार कुर्मी हो। ब्राह्मण बनाम कुर्मी की अखिलेश की यह रणनीति कामयाब रही है। बीजेपी इसका काट नहीं खोज पाई।
इसके पहले 2022 के विधानसभा चुनाव में भी अखिलेश ने कुर्मी कार्ड खेलने में कोई कोताही नहीं बरती थी। समाजवादी पार्टी गठबंधन ने विधानसभा की 37 सीटों पर कुर्मी प्रत्याशियों को लड़ाया। जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने 34 सीटों को ही कुर्मी लायक समझा था। अकेले समाजवादी पार्टी की बात करें तो इसने 28 सीटों पर कुर्मी उम्मीदवारों को लड़ाया था। अखिलेश यादव ने ऐसा करके कुर्मी मतों को भाजपा और उसके सहयोगियों की ओर पलायन करने से रोकने की कोशिश की, इसमें काफी हद तक कामयाबी भी मिली। सपा के 13 उम्मीदवार जीते।
2022 विधानसभा और 2024 लोकसभा चुनाव में कुर्मी कार्ड की सफलता से उत्साहित सपा प्रमुख अखिलेश यादव 2027 के चुनाव में भी इसे आजमाने की योजना बना रहे हैं। सूत्रों की बातों को सच माना जाए तो 2027 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव 50 से ज्यादा टिकट कुर्मी नेताओं को देने वाले हैं। कुर्मियों को केंद्र में रखकर राजनीति करने वाले अन्य दलों से गठबंधन भी संभावित है।
दरअसल कुर्मी समाज का भी मोहभंग भाजपा और उसके सहयोगी दलों से हो रहा है। इसके कई कारण हैं। इनमें सबसे बड़ा कारण आरक्षण का धीरे-धीरे समाप्त होना है। यह जाति शराब और मुर्गा पर मतदान नहीं करती। ओबीसी में सबसे पढ़ा-लिखा समाज यही है। आरक्षण पर कुठाराघात के असर से सभी परेशान हैं। यूपी में करीब 15 प्रतिशत आबादी वाली यह जाति एकमुश्त जिधर मुड़ेगी, उसकी सरकार बननी तय है।
अखिलेश यादव के पी़डीए के नारे से इस समाज के मतदाता खासे प्रभावित हैं। हालांकि बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के समर्थक कुर्मी इसे सिरे से नकारते हैं। बीजेपी की ही तरह उनको भी कब्र खोदने की आदत सी बन गई है। मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल का हवाला देकर समाजवादी पार्टी को कुर्मी विरोधी बताते हैं। लेकिन आज का कुर्मी मुलायम सिंह को कार्यकाल में क्या हुआ, उससे कोई मतलब नहीं रखता। उसे अपने भविष्य की चिंता है। आरक्षण की चिंता है। शिक्षा की बात करता है। स्वास्थ्य की बात करता है। जाति जनगणना चाहता है। किसान अपनी उपज का लाभकारी मूल्य चाहता है। उसकी इन भावनात्मक बातों को समर्थन मिलता है समाजवादी पार्टी की ओर से। भाजपा और उसके सहयोगी दलों की ओर से सिर्फ कोरा भाषण। कुर्मी युवा अतीत में नहीं जीना चाहता। उसे भविष्य दिखाई दे रहा है। उसे समझ में आ गया है कि यदि भारतीय जनता पार्टी का शासन कुछ और वर्षों तक रहा तो आरक्षण का खत्म होना तय है।
समाजवादी पार्टी इस बात को बखूबी समझ रही है, लिहाजा वह कुर्मी मतों को अपनी ओर करके सत्ता का सपना देख रही है। इसके लिए अभी से रणनीति भी बननी शुरू हो गई है। 2027 के चुनाव में समाजवादी पार्टी सबसे ज्यादा कुर्मियों को टिकट देने वाली है, यह बात तो तय है। इसका कुर्मी समाज पर असर क्या पड़ेगा, यह देखने वाली बात होगी। प्रबुद्ध कही जाने वाली यह जाति क्या उस शिकारी के जाल में फंस जाएगी, जो दाना फेंककर एक पक्षी से बोलवाता है कि शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, फंसना मत। लेकिन यही कहते-कहते पक्षी फंसने भी लगते हैं। या अपने विवेक का उपयोग कर भविष्य को देखते हुए वोट करेगी। सच कहूं तो यूपी में सत्ता की चाबी कुर्मी जाति के ही पास है। देखना है कि वह इस चाबी का प्रयोग किसके लिए करता है।
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