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बड़ा सवाल : भारतीय संविधान भारत में आरक्षण का आधार केवल जाति या केवल आर्थिक स्थिति क्यों नहीं मानता?

डॉ. ओम शंकर

भारतीय संविधान में आरक्षण एक ऐसा औजार है, जो ऐतिहासिक अन्याय, सामाजिक बहिष्कार और अवसरों की असमानता को संतुलित करने हेतु संविधान सभा में सभी बिंदुओं पर तार्किक और मजबूत बहसों द्वारा निर्मित किया गया है।

EWS आरक्षण लागू किए जाने के बाद आज एक बार फिर से आरक्षण किसको मिले और किस आधार पर मिले यह बहस तीव्र हो गई है?

क्या आरक्षण का आधार केवल किसी जाति मात्र या केवल आर्थिक स्थिति मात्र हो सकती है?

आज का मेरा यह लेख इसी बहस की आलोचनात्मक विवेचना करेगा और सिद्ध करने कि कोशिश करेगा क्यों केवल जाति अथवा केवल आर्थिक पिछड़ापन आरक्षण का पर्याप्त आधार नहीं हो सकती है?

साथ ही मैं, EWS आरक्षण की संवैधानिक वैधता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों की दृष्टित से भी कैसे यह गैर कानूनी है इसका भी विश्लेषण करेगा।

1. केवल जाति को आरक्षण का आधार क्यों नहीं बनाया जा सकता?

इसमें कोई शक नहीं कि भारत में जाति सामाजिक पदानुक्रम और भेदभाव का प्रमुख आधार रही है। लेकिन एक ही जाति समूह में आंतरिक आर्थिक असमानताएँ भी मौजूद हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) में स्पष्ट कहा था कि आरक्षण का आधार "सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन" होना चाहिए, न कि केवल जाति।

इसी निर्णय में "क्रीमी लेयर" की अवधारणा को भी मान्यता दी, ताकि पिछड़ी जातियों में आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न वर्ग जो आरक्षण का लाभ उठा सकते थे, उसे इससे बाहर रखा जा सके और इस वर्ग के ऐसे लोग जो शैक्षणिक योग्यता के आधार पर आरक्षण पाने में अक्षम हैं, उसे आरक्षण देने की वकालत की ताकि आरक्षण का लाभ पिछड़ी जातियों को न मिल पाए और ऊंची जातियां आगे भी उसका मजा लेता रहे।

जबकि प्रावधान यह किया जाना चाहिए था कि ओबीसी वर्ग के आर्थिक रूप से विपन्न लोगों को पहले वरीयता दी जानी चाहिए। जब उस वर्ग के आर्थिक रूप से विपन्न उम्मीदवार उपलब्ध न हो तो ओबीसी आरक्षण का लाभ उसी वर्ग के क्रीमी लेयर में आनेवाले उम्मीदवारों को दिया जाए, क्योंकि वो आर्थिक रूप से भले हीं उतने विपन्न न हों, लेकिन सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर तो हैं हीं।

क्योंकि आरक्षण असल में तो प्रतिनिधित्व का मामला है, न कि आर्थिक समृद्धि की। फिर ओबीसी वर्गों के सीटों को संपन्न उच्च वर्गों को कैसे दिया जा सकता है जो सत्ता और शक्ति के स्रोतों तथा नीति निर्धारक तत्वों में पहले से हीं अपनी जनसंख्या के अनुपात से कई गुणों ज्यादा संख्या में मौजूद हैं।

उसी सर्वोच्च न्यायालय ने EWS आरक्षण लागू करने के मामले में संविधान, संविधान सभा और ओबीसी आरक्षण लागू करते वक्त इंदिरा सावनी मामले में 9 जजों के खुद के दिए निर्णय से पलटते हुए, सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन को आरक्षण का आधार मानने से मना कर दिया और विशुद्ध जातीय आधार पर आर्थिक रूप से सम्पन्न और इनकम टैक्स देने वाले कुलीनों को आरक्षण देने के लिए संविधान को कुचलकर अनुमति दे दी।

EWS आरक्षण को अंतिम रूप से मान्यता देने वाले वही जातिवादी और बेईमान चंद्रचूड़ साहब थे, जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए बीजेपी RSS के एजेंडे पर हमेशा काम करते रहे। जो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए बीजेपी RSS सरकार के हर गलत नीतियों पर बहस के दौरान नेता के तरह बड़े अच्छे भाषण देते रहे, लेकिन फैसले सब सरकार के पक्ष में सुनाए और खुद स्वीकार किया कि राम जन्मभूमि में उन्होंने फैसला कानून के हिसाब से नहीं बल्कि भगवान से पूछकर दिया था।

2. केवल आर्थिक पिछड़ापन भी आरक्षण का पर्याप्त आधार नहीं

आर्थिक गरीबी एक अस्थायी स्थिति होती है, जो पीढ़ियों तक नहीं चलती। इसके विपरीत जातीय शोषण, उत्पीड़न और बहिष्कार का जन्म आधारित और एक स्थायी सामाजिक संरचना है।

संविधान सभा की बहसों में डॉ. अंबेडकर और अन्य सदस्यों ने यह तर्क दिया कि गरीबी सार्वभौमिक है, लेकिन वंचना और बहिष्कार जाति आधारित है।

इसलिए केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण न्यायसंगत नहीं होगा।

आरक्षण केवल गरीबी मिटाने की नीति नहीं है, बल्कि सत्ता, शिक्षा, और नौकरियों में प्रतिनिधित्व का साधन है।

3. EWS आरक्षण की आलोचना

103वें संविधान संशोधन के माध्यम से लागू किए गए EWS आरक्षण ने पहली बार आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया, जिससे अनुसूचित जातियों, जनजातियों और ओबीसी वर्गों को बाहर रखा गया, मतलब इस आरक्षण का आधार सिर्फ आर्थिक पिछड़ापन न होकर, विशुद्ध जातीय था।

यह सामाजिक न्याय की अवधारणा के विरुद्ध है, क्योंकि यह वास्तविक ऐतिहासिक उत्पीड़न से पीड़ित समुदायों को उनके गरीब होने के बावजूद आरक्षण से वंचित करता है।

सुप्रीम कोर्ट ने जनहित बनाम भारत सरकार (2022) में इसे वैध ठहराया, परंतु यह निर्णय अब भी विवादास्पद है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) की मूल भावना से विचलित होता है तथा इसी मामले में 9 बैंच के इंदिरा सावनी केस के फैसले को 5 बैंच के जजों द्वारा पलट दिया गया है।

4. EWS के आर्थिक मानदंडों की विसंगतियाँ

जब किसी आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन न होकर विशुद्ध जातीय और आर्थिक हो तो इसका उसे मिलना चाहिए था जो गरीबी रेखा के नीचे आता हो। वर्तमान में इसके लिए निर्धारित आय की वार्षिक सीमा 8 लाख वही है, जो OBC के क्रीमी लेयर की है। सामान्य वर्गों के वो लोग जिनके पास अच्छी खासी शाह और गांव में जमीनें हैं परंतु आयकर देने की लिस्ट में नहीं आते उसे भी इसका लाभ मिलता है।

इसकी वजह से आर्थिक इसे कमजोर उच्च वर्गों का हिस्सा EWS आरक्षण लागू होने के भी उसी वर्ग के मजबूत लोग खा रहे हैं, और आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण जिनके नाम पर यह विशुद्ध जातिवादी गैर संवैधानिक आरक्षण लागू किया था, वो आज भी उसी हालत में जी रहे हैं क्योंकि इस आरक्षण के लिए जो योग्यता निर्धारित की गई है वो बिल्कुल गलत है।

5. समग्र और न्यायसंगत आरक्षण नीति की आवश्यकता

आरक्षण नीति को बहु-आयामी बनाना आवश्यक है, जिसमें जाति, सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ापन, क्षेत्रीय विषमता, लैंगिक भेदभाव और आर्थिक स्थिति — सभी का मूल्यांकन किया जाए।

अंत में एक बार फिर से कहूंगा कि भारत में आरक्षण की आवश्यकता केवल गरीबी मिटाने या जाति विशेष के लिए नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संतुलन, प्रतिनिधित्व और ऐतिहासिक अन्याय के सुधार हेतु है।

इसलिए आरक्षण का आधार न तो केवल जाति हो सकता है और न ही केवल आर्थिक स्थिति।

EWS आरक्षण इस मूल भावना के बिल्कुल विपरीत है।

आवश्यकता है एक समावेशी, वैज्ञानिक, और संवैधानिक दृष्टिकोण से आरक्षण की पुनर्व्याख्या जातिगत जनगणना के आधार पर की जाए, जिससे वह अपने मूल उद्देश्य — सामाजिक न्याय — को प्राप्त कर सके।

(लेखक सामाजिक चिंतक और काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में हृदय रोग विभाग में प्रोफेसर हैं तथा विभागाध्यक्ष भी रह चुके हैं।)