किसान आंदोलन : पंजाब के किसान आंदोलन का सबक

-अजीत द्विवेदी
पंजाब की सरकार ने पुलिस भेज कर और बुलडोजर व जेसीबी चलवा कर किसानों का आंदोलन समाप्त करा दिया। पंजाब और हरियाणा के शंभू व खनौरी बॉर्डर पर बैठे किसानों को हिरासत में लिया गया और उनके आंदोलन के लिए बनाए गए मंच और दूसरे निर्माण को तोड़ कर गिरा दिया गया। यह आंदोलन 13 महीने से चल रहा था। एक तरफ केंद्र सरकार किसानों के साथ बातचीत का दिखावा कर रही थी तो दूसरी ओर पंजाब सरकार ने सीधी कार्रवाई करके किसानों का आंदोलन खत्म कराया। सवाल है कि केंद्र सरकार की सात या आठ दौर की किसानों से बातचीत में क्या हो रहा था, जो बातचीत एक कदम आगे नहीं बढ़ रही थी? हर बातचीत के बाद एक नई तारीख तय हो रही थी। सोचें, रूस और यूक्रेन के युद्ध जैसे जटिल मसले पर पहली बैठक में युद्धविराम की सहमति बन गई। लेकिन किसानों की मांग में ऐसी क्या जटिलता थी कि अनेक दौर की बातचीत के बाद भी कोई बताने लायक सहमति नहीं बन पा रही थी? जाहिर है केंद्र सरकार किसानों को थका देने की रणनीति पर काम कर रही थी और इसके साथ ही आंदोलन को दूसरे समूहों के बीच अलोकप्रिय बनाने का अभियान भी चल रहा था।
किसानों के राष्ट्रीय आंदोलन यानी नवंबर 2020 में दिल्ली की सीमा पर हुए और एक साल तक चले आंदोलन की तुलना जब फरवरी 2024 में पंजाब के शंभू व खनौरी बॉर्डर पर हुए आंदोलन से करते हैं तो कई चीजें स्पष्ट होकर सामने आती हैं। इससे जो सबक निकल रहा है वह देश के सभी राज्यों और सभी समूहों के लिए ध्यान देने वाला है। केंद्र सरकार ने पहले आंदोलन से सबक सीखा था और इसलिए उसने वैसे किसी टूल्स का इस्तेमाल नहीं किया, जिससे किसानों को सहानुभूति मिले। दूसरे उसने देख लिया था कि यह आंदोलन पंजाब और हरियाणा की सीमा पर हो रहा है तो उससे निपटने का जिम्मा भी उसने दोनों राज्यों पर छोड़ दिया। चूंकि किसानों की मांग केंद्र सरकार से थी तो केंद्र सरकार के मंत्री नियमित अंतराल पर किसानों से बात करते रहे। यानी केंद्र सरकार अच्छी बनी रही। सुप्रीम कोर्ट भी अच्छा बना रहा। क्योंकि वहां भी लगातार सुनवाई होती रही। ऐसा लगता रहा, जैसे सुप्रीम कोर्ट किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल की सेहत को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लगातार सुनवाई और कथित फटकार के बावजूद उस मामले में भी सूई की नोक बराबर बदलाव नहीं आया।
इस पूरे प्रकरण में तीन चीजें बहुत स्पष्ट होती दिखीं। पहली चीज है किसान संगठनों का बिखराव। जिस तरह से केंद्र सरकार के बनाए तीन विवादित कानूनों को खत्म कराने के लिए देश भर के किसान संगठन एकजुट हुए और तमाम समूहों के बावजूद संयुक्त किसान मोर्चा की एक कमान में आंदोलन हुआ वह इस बार नहीं दिख रहा था। पहली बार नंवबर 2021 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय टेलीविजन पर आकर विवादित कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया और आंदोलन खत्म हुआ तो किसान समूहों के अंदर सर्वशक्तिशाली सरकार को झुका देने की भावना आ गई। उसके बाद किसान संगठनों में बिखराव शुरू हुआ। विवादित कानूनों को वापस लेते समय ही केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी देने का कानून बनाने के लिए समिति बनाने की सहमति दी थी। केंद्र सरकार कई मांगों पर सहमत हो गई थी लेकिन एकजुट रह कर किसान संगठन उन मांगों को पूरा करने का दबाव नहीं बना सके। सबने अपनी डफली अपना राग शुरू कर दिया।
दूसरी चीज यह हुई कि पहले आंदोलन को जो लोकप्रिय समर्थन हासिल हुआ वह दूसरे आंदोलन को नहीं हो सका। इसका एक कारण तो किसान संगठनों का बिखराव था लेकिन दूसरा और बड़ा कारण आम नागरिकों की थकान थी या मोहभंग था। उनको लगा कि किसान बार बार क्यों आंदोलन पर बैठ रहे हैं? जब पहली बार आंदोलन किया तभी क्यों नहीं अपनी सारी मांगें मनवा ली थी? वैसे भी पुरानी कहावत है कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है। यह हकीकत है कि देश में भ्रष्टाचार खत्म होने की बजाय बढ़ गया है और लोकपाल कुछ नहीं कर पाया है लेकिन क्या अन्ना हजारे या कोई भी दूसरा व्यक्ति भ्रष्टाचार पर कोई आंदोलन खड़ा कर सकता है? नहीं कर सकता है! तभी किसानों ने पंजाब और हरियाणा की सीमा पर दो जगह, जो आंदोलन खड़ा किया उसको लोकप्रिय समर्थन नहीं मिला और उसकी चमक नहीं बनी। केंद्र सरकार ने भी इस आंदोलन को थोड़ी गंभीरता से तभी लिया जब डल्लेवाल ने आमरण अनशन शुरू किया।
तीसरी चीज यह है कि कृषि और किसान से ज्यादा कारोबारियों का दबाव सरकार ने महसूस किया। शंभू और खनौरी बॉर्डर बंद होने से आम लोगों को आने जाने में जो परेशानी हो रही थी वह अपनी जगह थी। लेकिन इससे कारोबार का बड़ा नुकसान हो रहा था। माल ढुलाई के लिए लंबा रास्ता लेना पड़ रहा था, जिससे सामान पहुंचने में ज्यादा समय लग रहा था और कीमत बढ़ रही थी। इससे कारोबारी नाराज थे और सरकार पर दबाव डाल रहे थे तो आम लोगों की भी नाराजगी थी। आंदोलन जितना लंबा चला लोगों की नाराजगी और इस आंदोलन से दूरी उतनी बढ़ती गई। सुप्रीम कोर्ट में बार बार मिल रही तारीखों और केंद्र सरकार के वार्ता के दिखावे ने इसे लंबा चलाने पर मजबूर कर दिया। इससे कारोबारी संगठन नाराज हुए और उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि वह इस आंदोलन को खत्म कराए।
तभी इसका एक बड़ा सबक तो यही है कि किसी आंदोलन के लंबे समय तक चलने का यह मतलब नहीं होता है कि वह सफल होगा या उससे वांछित लाभ प्राप्त किया जा सकेगा। कई बार आंदोलन की तीव्रता ज्यादा महत्वपूर्ण होती है बनिस्पत इसके कि वह कितना लंबा चला। लंबे आंदोलन की तीव्रता अक्सर कम हो जाती है। नवंबर 2020 से नवंबर 2021 तक चला आंदोलन इसका अपवाद था। दूसरा सबक यह है कि किसानों को सरकार की सत्ता से टकराने के लिए ज्यादा मजबूत सांगठनिक ताकत, एकजुटता और प्लानिंग की जरुरत है। सरकारों ने ऐसे टूल्स विकसित कर लिए हैं, जिनके जरिए वह एक समूह के आंदोलन को दूसरे अनेक समूहों के विरोध में खड़ा कर सकती हैं। सोशल मीडिया के जरिए ऐसे नैरेटिव क्रिएट करना बहुत आसान है। पहले आंदोलन में यह ज्यादा कामयाब नहीं हुआ लेकिन दूसरी बार कामयाब हो गया। तीसरा सबक यह है कि आंदोलन की सफलता की राजनीतिक दलों का सक्रिय या कम से कम नैतिक समर्थन जरूरी है। इसका कारण यह है कि तमाम संगठन चाहे वह मजदूरों के हों, किसानों के या छात्रों, युवाओं और महिलाओं के हों या तो जातियों के आधार पर बंटे हैं या राजनीतिक आधार पर बंटे हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि कोई भी संगठन इतना मजबूत नहीं रह गया है कि वह अपने दम पर सरकार को चुनौती दे सके।
(लेखक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक नया इंडिया के संपादक समाचार हैं।)
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