हमारे नेताओं का वहम
(Delusions of Ours Leaders)
ऐतिहासिक और बाजार की शक्तियों की गति को भी अपनी उपलब्धियां समझ लेते हैं ऐसे नेता
आचार्य निरंजन सिन्हा
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हमारे राजनीतिक, सामाजिक, एवं सांस्कृतिक नेताओं मे विकास और प्रगति के दावों के संबंध में बहुत से वहम या विभ्रम है। ये परिस्थितियों की संरचनाओं और शक्तियों के परिणाम को भी अपनी उपलब्धियां समझ लेते हैं। और सामान्य जनता सहित तथाकथित बुद्धिजीवी भी उसी दावे में बहने लगते हैं। पहले आप दो छोटे परन्तु मजेदार प्रसंग सुन लें।
मैं एक लोकल ट्रेन में बैठा था। ट्रेन रुकती थी और कुछ समय में खुल जाती थी। सामने बैठे बच्चे का व्यवहार देख रहा था और उसे सुन भी रहा था। ट्रेन रुकने के कुछ समय बाद बच्चा ट्रेन को आगे बढ़ाने यानि उसे चलाने के लिए अपनी सीट को खड़ा होकर आगे की ओर ठेलने का प्रयास करता था और अपनी मां को बताता था कि वह ट्रेन को गति में ले आया। उसकी एक दो हरक़तों को ही देख पाया, क्योंकि वे लोग अगले स्टेशन पर उतर गए थे।
ऐसा नजारा एक बार और देखने को मिला। वातानुकूलित द्वितीय क्लास में बैठा था। कहने का तात्पर्य इस बार किसी सामान्य वर्ग के बच्चे का प्रसंग नहीं है। मतलब एक ‘तथाकथित ज्ञानी’ यानि ‘डिग्रीधारी सम्पन्न’ व्यक्ति का प्रसंग है। इस नजारे में वह व्यक्ति अपनी पत्नी को बता रहा था कि इनकी यह कोच बहुत कम समय में पटना पहुंचा देगी, और उनकी पत्नी उनके ज्ञानवान जानकारी और उनके समझदारी भरे निर्णय से गौरवान्वित भी थी। मतलब यह था कि यह कोच अन्य सामान्य, शयनयान, या अन्य से गति के मामले में बेहतर था, और इसीलिए वह व्यक्ति ज्यादा समझदार था। बातें सुविधाओं के बेहतरीन होने के संदर्भ में नहीं की जा रही थी, वे सिर्फ गति की बातें कर रहे थे।
मैं सोचने लगा कि अधिकांश नेताओं की दशा यानि स्थिति भी यही है। इसी समझ की स्थिति को “वहम” यानि विभ्रम (Hallucination) या “भ्रम” (Delusion, not Illusion) कहा जाता है। यह स्थिति सभी समाजों, संस्कृतियों, संगठनों और देशों के नेताओं की है। ये नेता राजनितिक भी होते हैं, और सामाजिक एवं सांस्कृतिक भी होते हैं। जब अधिकांश जनता अज्ञानी होते हैं, जो अक्सर होता है, तो ऐसे नेताओं द्वारा किए गए प्रगतिशील और क्रांतिकारी बदलाव के बड़े बड़े दावे तुरन्त सही मान लिए जाते हैं। ध्यान रहे कि जिन लोगों में “आलोचनात्मक चिंतन एवं विश्लेषण” (Critical Thinking n Analysis) की क्षमता नहीं होती, वे डिग्रीधारी भी अज्ञानी ही होते हैं।
बहुत से राज्यों, देशों और संगठनों के नेतागण विकास के बड़े बड़े दावे करते हैं। जब इसे आलोचनात्मक विश्लेषण से समझा जाता है, तो दूसरा नजारा दिखने लगता है। पहली बात तो यह है कि इन नेताओं को “वृद्धि” (Growth) और “विकास” (Development) में अन्तर समझ में नहीं आता है। दूसरी बात यह है कि ये समाज, राज्य, देश इन विकास के समेकित सूची में उसी स्थान पर होते हैं, या नीचे सरकते होते है, जहां पहले भी थे। मतलब ट्रेन के किसी कोच ने स्वतंत्र रूप में कोई विशेष गति नहीं बनाया है, बल्कि वह कोच ट्रेन के गति को ही बनाए हुए हैं। ऐसे नेतागण “ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों” की गति को भी अपनी उपलब्धियां समझ लेते हैं। वे ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों को और उसकी क्रियाविधि एवं उसके परिणाम को नहीं समझते हैं। ये नेता ऐतिहासिक और बाजार की शक्तियों के परिणाम को अपना ‘कमाल’ समझते और बताते हैं।
बहुत से देशों की आबादी बडी होती है, अर्थात उस आबादी की खाने और पचाने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यानि बाजारु खपत की क्षमता बहुत अधिक होती है। ऐसे बड़ी आबादी के देशों के नेताओं का वैश्विक सम्मान बहुत होता है। ऐसा वैश्विक सम्मान उन्हें उनके अच्छे व्यक्तित्व के आधार पर नहीं मिलता है, बल्कि उनके देश की आबादी की बाजार की खपत की क्षमता के कारण मिलती है। उनका वैश्विक सम्मान बाजार की शक्तियों के कारण होता है और वे नेता इसे अपना व्यक्तित्व का परिणाम समझ लेते हैं। बाजार की शक्तियों को समझना जरूरी है और ऐसे तथाकथित करिश्माई नेताओं की वास्तविकता को भी समझना जरूरी है।
हमें बड़े इत्मीनान से ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों और उनकी संयुक्त एवं समन्वित क्रियाविधि (Mechanism) को समझना चाहिए। ये शक्तियां संस्थागत (Institutionalised) रूप में क्रियान्वित होते हैं और इसीलिए इनमें निरंतरता (Continuity), व्यापकता (Comprehensiveness), गहनता (Intensity) और गहराई (Depth) भी होती है। ध्यान रहे कि एक ‘संस्था’ (Institution, not Institute) अपने प्रभाव में सदैव एक व्यक्ति या समूह से ज्यादा प्रभावी, असरदार, व्यापक, और निरंतरता बनाए रखती है।
ऐतिहासिक शक्तियां (Historical Forces) अर्थात इतिहास को बदलने वाली यानि समाज और संस्कृति को रुपांतरित करने वाली शक्तियां हैं। सारी रुपांतरण (Transformation) यानि स्थायी परिवर्तन मानव और उसके द्वारा निर्मित संस्थाएं ही प्रकृति में हस्तक्षेप कर करता है। मतलब रुपांतरण क्रियाविधि का केंद्र बिन्दु मानव और उसके द्वारा निर्मित संस्थाएं हैं। मानव की शारीरिक क्षमता और योग्यता उसके भौतकीय शरीर में होता है और मानव का ‘आत्म’ (Self, not Soul) यानि ‘मन’ (Mind) भी शरीर के ही अस्तित्व पर ही निर्भर है। इस तरह किसी भी मानव का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कृत्य उसके भौतकीय अवस्था पर ही निर्भर है और यह भौतकीय अवस्था आर्थिक शक्तियों यानि उत्पादन, वितरण, विनिमय एवं उपभोग के साधनों और शक्तियों पर निर्भर करता है। अर्थात यही ऐतिहासिक शक्तियों हुई, जो इतिहास बदलता रहता है।
इसी तरह बाजार (Market) की शक्तियां भी बहुत ही प्रभावशाली होती है। बाज़ार ऐसी जगह को कहते हैं, जहां पर किसी भी चीज़ (Things) का व्यापार होता है और चीज़ में वस्तु, सेवा, सम्पत्ति, सम्पदा, विचार, व्यक्तित्व, नीति, आदि कई प्रकार शामिल होता है। बाजार दिखने में अर्थशास्त्रीय अवधारणा है, परन्तु इसका प्रभाव सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, शैक्षणिक, तकनीकी और राजनीतिक भी होता है। यदि आपके पास बाजार को प्रभावित करने की क्षमता है, या आपकी क्रय (Purchase) की अद्भुत क्षमता है, तो आप बाजार की शक्तियों का उपयोग कर अपने समाज या देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, शैक्षणिक, तकनीकी और राजनीतिक हैसियत बदल सकते हैं। बाजार का प्रभाव भी ऐतिहासिक शक्तियों के प्रभाव की तरह ही “तितली प्रभाव” (Butterfly Effect) की तरह होता है। अब आप ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों को संक्षेप में समझ चुकें हैं। अब आप इन दोनों के संयुक्त और समेकित प्रभाव को भी अपनी कल्पनाओं में देख सकते हैं।
उपरोक्त दोनों के संयुक्त और समेकित प्रभाव को उदाहरण के साथ समझा जाय। लेकिन इनके समन्वित प्रभाव को नेतागण अपने प्रयास का प्रभाव बताते हैं और उसके समर्थक उसी में झूमते रहते हैं। सामान्य जनता को तो छोड़िए, तथाकथित बुद्धजीवियों की स्थिति भी दयनीय है और वे आलोचनात्मक चिंतन एवं विश्लेषण के अभाव में इसे नेताजन की ही उपलब्धि मान लेते हैं। ध्यान रहे कि मैं व्यक्तिगत प्रयासों की उपेक्षा नहीं कर रहा हूं, लेकिन उनके उपलब्धियों के बड़े बड़े दावे को आलोचनात्मक चिंतन और विश्लेषण की नजरिया से देखने एवं समझने का आग्रह ही कर रहा हूं।
व्यक्तियों की नेतृत्वकारी क्षमता की उपलब्धियां भी “तितली प्रभाव” रखतीं हैं, यदि उन्होंने मानव में सांस्कृतिक बदलाव (इसे मानसिकता का बदलाव कहते हैं) किया है, अन्यथा सभी बदलाव दिखावटी एवं सतही है, जो उनके द्वारा नहीं प्राप्त किए गए है। संस्कृति सामाजिक मूल्यों, प्रतिमानों, अभिवृति, व्यवहार, कर्म, परम्पराओं आदि के प्रति चिन्तन और व्यवहार को समाज से सीखता है। यह संस्कृति आदमी और समाज को संचालित करने का ‘साफ्टवेयर’ है। इसे बदलें बिना विकास के सभी दावे महज़ एक तमाशा होता है। मात्र सीमेंट की खपत को विकास नहीं समझा जा सकता है।
ऐतिहासिक शक्तियों ने मनुष्यों को पहाड़ों पर से उतार कर मैदानों में लाया। कृषि के अतिरेक (Surplus) उत्पादन ने नगर, राज्य, बाजार, मुद्रा, लिपि एवं भाषा, सरकार आदि संस्थाओं को उदित और संवर्धित किया। इन दोनों (इतिहास और बाजार) ने ही समन्वित रूप में बुद्धि का विकास किया, सामंतवाद, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, समाजवाद आदि का विकास किया, जो अभी भी रुपांतरित स्वरुपों में कार्यरत हैं और प्रभावी भी है। इन दोनों ने ही विज्ञानवाद, आधुनिकतावाद, डाटावाद, मानवतावाद को भी संवर्धित किया है। इसी ऐतिहासिक शक्तियों में बाजार की शक्तियां भी क्रियाविधि और प्रभाव में एक दूसरे से गुंथी हुई है।
यह स्थिति सभी क्षेत्रों, यानि राजनीतिक सहित सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के तथाकथित नेताओं की भी है। राजनीतिक नेता भी ऐतिहासिक और बाजार की शक्तियों को नहीं समझते हैं, या समझ कर भी इसे स्वीकार करना नहीं चाहते हैं। इन तीनों क्षेत्रों यानि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में संयुक्त एवं समन्वित रूप में कई समस्याएं पसरी हुई है। इनमें ग़रीबी, बेरोजगारी, जाति व्यवस्था की असमानता, धर्म विभेद, लैंगिक विभेद, वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति आदि की समस्या विभिन्न स्वरूपों और अवस्थाओं में व्याप्त है। यदि ऐतिहासिक शक्तियां और बाजार की शक्तियां जाति व्यवस्था को कमजोर कर रही है, तो सामाजिक सांस्कृतिक नेता इसे अपने कार्यों के प्रगति का परिणाम बता रहे हैं और अपने अनुयायियों के मन में नाच भी रहे होते हैं। यदि बाजार की शक्तियां लैंगिक (Gender, not Sex) विभेद मिटा रहा है, तो ये नेता इसे अपनी उपलब्धियों में गिना रहे हैं। यदि बाजार की शक्तियां गरीबी घटा रही है और बेरोज़गारी बढ़ा रही है, तो ये नेता गण गरीबी घटने का तथाकथित कमाल अपने नाम ले लेते हैं और बेरोज़गारी को बाजार का करतब बता दे रहे हैं। उदाहरण भरे पड़े हैं, सिर्फ आपको अपना नज़र और नजरिया बदलना है।
इन सामाजिक और सांस्कृतिक नेताओं की ऐसी बेचारगी क्यों है? ये अपनी विचारों में, परिस्थितियों की संरचनाओं के समझ में, बदलते संदर्भ में और अवधारणाओं में कोई पैरेडाईम शिफ्ट (Paradigm Shift) नहीं करते और सामाजिक एवं सांस्कृतिक बदलाव कर देने का हवाई ख्वाब देखते रहते हैं। ये “सत्ता परिवर्तन” (Change in Rule) को ही “व्यवस्था परिवर्तन” (Change in System) समझ लेते हैं, और इसीलिए बेचारे बने रह जाते हैं। इसे आप उनकी “पैरेडाईम शिफ्ट” दरिद्रता भी कह सकते हैं। ये ऐतिहासिक शक्तियों और बाजार की शक्तियों के उद्विकासीय प्रभाव (Evolutionary Effect) की गति को ही अपनी उपलब्धियां समझ लेते हैं। वे यह भी समझते हैं कि उनकी दिशा समुचित एवं सही है और बदलाव की गति भी पर्याप्त है। ऐसे नेता वस्तुत: उस समाज, संस्कृति और देश के समय, संसाधन, ऊर्जा, धन, उत्साह और जवानी को बर्बाद कर रहे होते हैं। पूरा समाज और राष्ट्र ठहरा रहता है, और वे विकास के नेतृत्व को देने के दावे के विभ्रम में रहते हैं। भ्रम (Illusion) किसी वस्तु को ग़लत समझना होता है, जबकि विभ्रम (Delusion/ Hallucination) किसी वस्तु की अनुपस्थिति को भी कुछ समझ लेने की अवस्था है।
(लेखक आचार्य निरंजन सिन्हा राज्य कर संयुक्त आयुक्त, बिहार, पटना के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले चुके हैं)