किशन पटनायक को पढ़ने पर लगता है कि लोहिया को पढ़ रहे हैं। संभलपुर से मात्र एक बार सांसद रहे और फिर उन्होंने समाजवाद की वैचारिकी को आगे बढ़ाने के लिए संसदीय राजनीति से किनारा कर लिया। अपने पूरे जीवन 7–8 बार जेल गए। डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ ‘मैनकाइंड’ का प्रकाशन किया। हम जैसे लोगों ने भी युवावस्था में उनकी पत्रिका सामयिक वार्ता पढ़ी है। मौजूदा पीढ़ी के बड़े समाजवादी नेताओं को वैचारिक रूप से समृद्ध करने में किशन पटनायक की भी भूमिका है। गत 30 जून को किशन पटनायक की जयंती थी। लिहाजा उनका एक लेख पढ़िए तो शायद आपको यह देश और समझ के प्रति थोड़ी संवेदना और बढ़ेगी। लेख जितना अधिक पुराना है, उतना ही अधिक आज प्रासंगिक है।
राष्ट्रीय एकता की वास्तविक चुनौतियाँ -किशन पटनायक
जून 1986
आज की दुनिया में किसी राष्ट्र का विभाजन तब तक नहीं होता, जब तक बाहरी शक्तियाँ दखल न दें। शक्तिशाली देशों की यह कूटनीतिक प्रवृत्ति होती है कि ये कमजोर और उनसे मैत्रीभाव न रखनेवाले देशों की आन्तरिक दुर्बलता का फायदा उठाकर उन्हें और अधिक कमजोर बनाएँ। महाशक्तियाँ तो आर्थिक मदद तथा सांस्कृतिक प्रभाव के जरिए दूसरे देशों के समाजों में टूट और संघर्ष के बीज बो देती हैं। इनमें कोई शक नहीं कि कुछ बड़े देश भारत का विघटन चाहते हैं। यह भी एक सत्य है कि हममें महाशक्तियों के खिलाफ सैनिक संघर्ष करने की क्षमता नहीं है। हममें पड़ोसियों के साथ ही सैनिक संघर्ष करने की क्षमता है, और महाशक्तियाँ यही तो चाहती हैं कि हम अपने पड़ोसियों से लड़ें।
हम केवल अपनी आन्तरिक शक्ति और एकता को मजबूत कर सकते हैं और इसके लिए कारगर और सुदृढ़ नीतियाँ अपना सकते हैं। बाहरी शक्तियाँ हमें कमजोर मानती हैं और यह सोचती हैं कि वे आसानी से हमें अपना शिकार बना सकती हैं। इसकी वजह यह है कि हमारी अन्दरूनी स्थिति कमजोर है, वह टूट से भरी हुई है। हमें यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि हमारा देश और हमारा समाज लड़खड़ा रहा है। देश की जनता को मजबूत और ताकतवर बनाने की अभी तक कोई कोशिश नहीं हुई है। शासक दल अपनी गलत नीतियों से राष्ट्रीय समाज को तोड़ता रहा है। और जब टूटन की शक्तियाँ बेकाबू होकर उग्र राजनीतिक रूप धारण कर लेती हैं तो 'विदेशी हाथ' का हौआ खड़ाकर वह पड़ोसियों से झगड़ना शुरू करता है। इससे उसे चुनाव जीतने और विपक्षी दलों का मुँह बन्द करने का मौका मिल जाता है। इस तरह एक राष्ट्रघाती नीति शासक दल के लिए फायदेमन्द साबित होती है। चूँकि विपक्षी दलों के पास वैकल्पिक नीतियाँ नहीं, सो 'राष्ट्रीय अखंडता' के नारे के सामने उनकी बोली बन्द हो जाती है।
जहाँ तक हमारे बुद्धिजीवियों की बात है देश की एकता के बारे में इस समूह ने कभी कायदे से गम्भीरता से सोचा ही नहीं है, इस वक्त बुद्धिजीवी या शिक्षित वर्गों में दो प्रकार की धारणाएँ प्रचलित हैं- (1) भारत एक राष्ट्र नहीं, उपमहादेश है, उसकी एकता न होना ही तार्किक और स्वाभाविक है। नौकरशाही और अँगरेजी भाषा को शत-शत धन्यवाद कि उन्होंने इस देश को जोड़कर रखा है। (2) केन्द्र को मजबूत बनाना है और आंचलिक तथा अलगाव के आयोजनों का कठोरता में सेना के इस्तेमाल द्वारा दमन करना चाहिए।
भारत की विविधता को पहचानना और विभिन्न समूहों की प्रतिमाओं को ड कर संघीय एकता का मजबूत ढांचा खड़ा करना यह विचार आजादी के बाद नहीं पन रहा है। जो लोग राज्यों के अधिकार बढ़ाने की मांग करते हैं उनकी बात राज्य के लिए अधिक पैसों की भांग तक सीमित रह जाती है. क्योंकि उनके पास राज्य का स्वतन्त्र ढंग से विकास करने की कोई मौलिक नीति या इच्छाशक्ति नहीं है। उनकी स्वायत्तता की अवधारणा कितनी अपरिभाषित और असन्तुलित है, इसका एक उदाहरण है-पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड आन्दोलन के प्रति वाम मोरचे की सरकार का स्वैया । इस आन्दोलन का कठोरता से दमन करने के लिए मुख्यमन्त्री ज्योति बसु ने कांग्रेसी प्रधानमन्त्री राजीव गांधी से भी आग्रह किया था।
बद्धिजीवियों का एक ऐसा समूह जरूर है, जो भारत की विविधता पर जोर देता है। विदेशी विशेषज्ञों की प्रेरणा से बहुत सारे समाजशास्त्री यह काम कर रहे हैं। उनकी यह प्रकट या प्रच्छन्न मान्यता है कि भारत एक सामाजिक-सांस्कृतिक इकार्ड नहीं है। ब्रिटिश शासकों ने इस अवधारणा को अँगरेजी भाषा के साथ इस कदर मिला दिया है कि अंगरेजी पढ़ने-लिखनेवालों को यह कहना कि 'भारत एक उपमहादेश है' एकदम सहज और स्वाभाविक लगता है। हिन्दी या वांगला में ऐसा कहना अटपटा लगता है, क्योंकि जिन भारतीय भाषाओं का सहित्य पाँच सी साल या अधिक पुराना है, उन्होंने भारत को 'एक समाज और अनेक राजाओं का देश' माना है। भाषा के साथ यह धारणा गॅब गई है। महाभारत से लेकर विवाह मन्त्र तक का पठन-श्रवण करनेवाले के मन में एक संस्कार पैदा होता है कि वह 'जम्बू द्वीप' का नागरिक है। अँगरेजी ने जिसे उपमहादेश कहा, विवाह श्लोक ने उसे सिर्फ 'द्वीप' कहा। दोनों का भावनात्मक असर एक-दूसरे से विपरीत है। फिर भी हम कहे जाते हैं कि अँगरेजी जोड़नेवाली भाषा है।
महाभारत या विवाह-मन्त्र में यह नहीं कहा गया है कि भारत एक राज्य है। इशारा यह है कि भारत एक समाज है, एक क्षेत्र है। यह एक सांस्कृतिक क्षेत्र है। कोई भी धार्मिक या सांस्कृतिक आन्दोलन शुरू होता है तो वह पूरे देश में फैलने की कोशिश करता है। यह एक राजनीतिक क्षेत्र भी है। शासन के अनेक केन्द्र रहते हैं, लेकिन संकट के समय वे एक बड़ा सैनिक मोरचा बनाने की कोशिश करते हैं। कुरुक्षेत्र से लेकर 1857 के विद्रोह तक इसकी कड़ी रही। जब अशोक या अकबर जैसे उदारवादी तथा कुशल शासक मिल जाते हैं तब पूरा देश एक शासन-केन्द्र के तहत संचालित होता है। संकीर्ण नीतिवाले जमानों में अलगाव और विच्छिन्नता की प्रवृत्तियाँ तेज होती हैं। 'एक देश, अनेक राज्य' का यह ढाँचा बनाने में पुरानी विकेन्द्रित स्वावलम्बी अर्थव्यवस्था बाधक नहीं, सहायक हुई, क्योंकि छोटे समूह भी आर्थिक रूप से स्वावलम्बी थे। राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन से जनसाधारण को ज्यादा परेशानी नहीं होती थी। अगर हमें भविष्य में एक विकेन्द्रित राजनीतिक ढाँचेको कारगर बनाना है तो एक अर्थव्यवस्था का सहारा लेना पड़ेगा।
इतिहास का सबक यह है कि हमारा देश एक बहकेन्द्रिक देश है। इसमें दोनों धारा मौजूद हैं-एकता और विविधता दोनों की धाराएँ साथ-साथ चली हैं। दोनों तरफ गलती हो सकती है। विविधताओं को भूलकर केन्द्रीय ताकत को बढ़ाने की गलती हो सकती है और सिर्फ भिन्नताओं पर जोर देकर बिखराव पैदा करने की गलती हो सकती है। पहली गलती टूट को उकसाती है, दूसरी गलती टूट को प्रोत्साहित करती है।
आज की दुनिया राष्ट्रों में विभाजित है। हम इस ढाँचे से अलग नहीं रह सकते थे। इसलिए हमें भी राष्ट्रवाद विकसित करना पड़ा। इसमें हम सफल हुए, लेकिन इसको बनाए रखने में हम असमर्थ हो रहे हैं, क्योंकि हमारी सामाजिक दृष्टि संकीर्ण हो गई है। हम न अपनी विविधता को समझ पाते हैं और न ही अपनी एकता के सूत्र को पकड़ पाते हैं। नौकरशाही तथा पूँजीवाद ने शासन तथा उत्पादन को अत्यधिक केन्द्रीभूत कर दिया है। इस केन्द्रीकरण के चलते संविधान का संघीय ढाँचा निरर्थक हो गया है। कमजोर समूहों और पिछड़े इलाकों की पूरी अवहेलना हो रही है और एक आन्तरिक उपनिवेशवाद का उदय हुआ है। इन समूहों और इलाकों के हितों को कुचलकर थोड़े से समूहों का आधुनिकीकरण होता है। जहाँ-जहाँ सामाजिक रूप से पिछड़े लोग बड़ी तादाद में कुछ खास इलाकों में रहते हैं, उन इलाकों और समूहों को उपनिवेश के रूप में चिन्हित किया जा सकता है।
यह देखा गया है कि आर्थिक गैरबराबरी के बावजूद गरीब वर्गों में राष्ट्रीय चेतना पैदा हो सकती है। शोषितों के मन में भी कहीं-न-कहीं सामाजिक या सांस्कृतिक एकता का अहसास रहता है। लेकिन अगर एक शोषित समूह की अलग सामाजिक या भौगोलिक पहचान बन जाएगी तो उसके मन में एकता की भावना कमजोर होने लगेगी और उसके स्थान पर एक समानान्तर भावना जन्म लेगी। बिहार, ओड़िशा और मध्य प्रदेश के एक विशाल क्षेत्र में आदिवासियों को जिस तरह दबाकर रखा गया है, उसमें उनमें आंचलिकता या अलगाव का कोई प्रचंड आन्दोलन न होना ताज्जुब की ही बात है। उनकी असहाय-अचेतन अवस्था ही इन राज्यों में शान्ति का आधार है। अगर ये समूह सीमावर्ती इलाकों में होते या धर्म-परिवर्तन द्वारा उनमें एक अस्मिता जागरित होती, तब उनमें अलगाव की भावना अवश्य पैदा होती और 'विदेशी हाथ' के लिए उन्हें थपथपाते रहना आसान होता। एक समूह कब तक दूसरे समूहों के निरन्तर और योजनाबद्ध शोषण को बरदाश्त कर सकता है ? अलगाववाद अचरज की बात नहीं, अचरज की बात यह है कि अलगाववाद बहुत कम है।
यहाँ तर्कवादी लोग एक गलती कर सकते हैं-जब कोई उत्पीड़ित समूह देश से अलग होना चाहता है, तो हम क्यों उसकी माँग का समर्थन नहीं करें। यह बात तार्किक लगती है, लेकिन जाँच करने पर मालूम होगा कि ऐसा रुख सही नहीं है। दूसरे मुल्कों के बारे में भी हम शीघ्र ऐसा रुख नहीं अपना सकते। श्रीलंका में तमिल उग्रवादियों की 'इलम' माँग का हम समर्थन नहीं कर पाते हैं। जब पाकिस्तान में सिन्ध के लोगों का आन्दोलन होता है तब कुछ साम्प्रदायिक हिन्दुओं को छोड़कर बाकी भारतीय सिन्ध की स्वायत्तता का समर्थन करते हैं, उसके पाकिस्तान से अलगाय का नहीं। अपने राष्ट्र के प्रति लगाव के साथ-साथ दूसरे राष्ट्रों की एकता के प्रति सम्मान भी शायद एक स्वस्थ लक्षण है। सोचने और बोलनेवाला नागरिक अपने देश में होनेवाली सारी अव्यवस्था के लिए नैतिक रूप से जिम्मेवार होता है। वह अलगाववाद का समर्थक नहीं बन सकता। अलगाववाद के मूल कारणों को दूर करना उसका काम है। अलगाववाद गलत नीतियों का परिणाम है. विद्रोह की अवस्था है। विवेकशील नागरिक उसके प्रति सहानुभूति रखेगा। जब तक उत्पीडित समूह अपने हकों के लिए शान्तिपूर्ण संघर्ष करता है, वह उसको सक्रिय सहयोग देगा। यह यह नहीं कह सकता कि 'खालिस्तान को मंजूर कर लेना चाहिए' या मिजोरम को अलग राष्ट्र मान लेना चाहिए। जब कोई तर्कवादी कहता है, 'मिजोरम को अलग होने दो' और एक साम्प्रदायिक हिन्दू कहता है, 'मुसलमानों को भारत से निकाल दो' तो दोनों की भावनाओं में आकाश-पाताल का अन्तर जरूर है पर दोनों में व्यावहारिक दूरी बहुत कम है। तर्कवादी आदमी जव अलगाव का समर्थन करता है, तो दरअसल उसका समर्थन उसकी खीझ की ही अभिव्यक्ति है।
राष्ट्रवाद की भावना से हम मनुष्य को मुक्त नहीं कर सकते। औसत नागरिक अगर राष्ट्रवादी नहीं होगा तो जाति या धर्म के प्रति उसकी वफादारी उसको संकीर्णता की ओर ले जाएगी। राष्ट्रवाद उसको जातीयतावाद और साम्प्रदायिकता की संकीर्णता से ऊपर उठाता है। सम्पूर्ण मानव समाज के प्रति वफादारी भावनात्मक स्तर पर औसत नागरिक के लिए आज की दुनिया में सम्भव नहीं है। लेकिन राष्ट्रवादी भावना को मानव-कल्याण के लिए प्रेरित किया जा सकता है। विवेकशील लोग अगर इस काम को नहीं करेंगे तो संकीर्णतावादी राष्ट्रीय भावना का गलत इस्तेमाल फासीवादी ढंग से करेंगे। मनुष्य की कोई भी भावना ऐसी नहीं है कि वह विकृत न हो जाए।
धर्म के बारे में भी एक समानान्तर सत्य है-आप ईश्वर को, पूजा-पाठ को मानें या न मानें, आप किसी-न-किसी धार्मिक समाज के सदस्य हैं। आपके सामने सिर्फ दो रास्ते हैं-या तो आप अपने उस समाज को तर्कसंगत और मानवीय बनाने की कोशिश करें या उसको साम्प्रदायिक रूढ़िवादी या तथाकथित विशुद्धतावादी व कट्टरवादी (फंडामेंटलिस्ट) तत्त्वों के हाथ में छोड़ दें।
धर्म सम्बन्धी नीतियाँ भारत की राष्ट्रीय एकता को निर्णायक रूप से प्रभावित करती हैं। धर्म और भाषा अभी तक भारतीय समाज में अलगाव और भिन्नताओं के मुख्य आधार रहे हैं। इस समय जो टूट का सिलसिला चल रहा है, वह शीघ्र घटनेवाला नहीं है, बल्कि बढ़नेवाला है। भारत के पढ़े-लिखे जिम्मेदार नागरिकों को इस पर गम्भीरता से सोचनायेगा कि भारत की एकता का क्या मतलब है, खासकर धर्म और भाषा सम्बन्धी नीतियाँ क्या हों।
धार्मिक एकता के लिए हिन्द दिमाग को पहले दुरुस्त करना होगा, क्योंकि समाज, अर्थव्यवस्था और प्रशासन में हिन्दू का प्रबल बहुमत है। साम्प्रदायिक हिन्दू सोचता है कि भारत में उसका अधिकार ज्यादा होना चाहिए और गैर हिन्दुओं का कम। ऐसा कहना और सोचना उसकी संकीर्णता ही नहीं, मूर्खता भी है। मूर्खता इसलिए कि प्रवल बहुमत के नाते उसको एक स्वाभाविक विशेषाधिकार मिला हुआ है। उसकी माँग कर वह अपनी दुर्बलता जाहिर करता है और दूसरों का विश्वास खोता है। वह भूल जाता है कि बहुसंख्यक समूह होने के नाते जब अलग-अलग समूहों के बीच शादी-ब्याह करने का रिवाज चला है, तब-तब भारतीय प्रभाव की सीमाएँ फैली हैं, दूर देश-विदेश तक हिन्दू प्रभाव गया है। हिन्दू और भारत का यह सम्बन्ध है। लड़की न भी दें, सिर्फ लड़की लाएँ, यानी अनुलोम विवाह के माध्यम से भी हिन्दुओं का तादात्म्य गैर हिन्दू जमायतों से बना है और फलस्वरूप राजनैतिक एकता बनी है। आजादी के आन्दोलन के दिनों में हिन्दू नेतृत्व को भारत के सारे धार्मिक समूहों ने (मुसलमानों के एक हिस्से को छोड़कर) स्वीकार किया था, क्योंकि इस नेतृत्व के साथ सामाजिक बराबरी और धार्मिक सुधार का आन्दोलन जुड़ा हुआ था। अपने समाज में जात-पाँत, नर-नारी आदि गैरबराबरियों के खिलाफ लड़नेवाला हिन्दू नेता सबका विश्वासभाजन था और अनुकरणीय था। सिखों में अलगाववाद की चेतना पैदा करने की ब्रिटिश राज की कोशिशें उन दिनों असफल हुई थीं। आजादी के बाद इस धारा के लोप होने पर हिन्दू और गैर-हिन्दू का फासला बढ़ा है।
हिन्दू धर्म के अन्दर सामाजिक न्याय स्थापित करने के मामले में सेकुलर हिन्दू उतना ही उदासीन है जितना साम्प्रदायिक हिन्दू। सेकुलर हिन्दू अपने समाज का कोई दायित्व लेने के लिए तैयार नहीं है। अपने समाज को तर्कसंगत और मानवीय बनाने का कोई कार्यक्रम उसके पास नहीं है और न ही वह इस प्रकार के कार्यक्रम की आवश्यकता समझ रहा है। परिवार के अन्दर शादी-ब्याह, जनेऊ आदि के सम्बन्ध में सेकुलर हिन्दू के आचरण का साम्प्रदायिक हिन्दू के आचरण से विशेष फरक नहीं होता। सेकुलर हिन्दू के सार्वजनिक आचरण में सिर्फ एक फरक होता है-वह गैर हिन्दू समूहों से दोस्ती करना चाहता है, उनके अधिकारों का समर्थन करता है। कभी-कभी वह अल्पसंख्यक सम्प्रदाय की साम्प्रदायिक रूढ़िवादी माँगों का समर्थन करता है या उनको सहन करता है। इस रास्ते से वह धार्मिक अलगाववाद को बढ़ावा भी देता है। हाल में मैंने देखा कि सैयद शहाबुद्दीन द्वारा संचालित और सम्पादित 'मुसलिम इंडिया' नामक अँगरेजी पत्रिका के सम्पादक-मंडल में इन्द्रकुमार गुजराल, पी. एन. हक्सर और खुशवन्त सिंह जैसे लोग भी हैं। मुसलिम इंडिया के उसी अंक में (अप्रैल, 1986) शहाबुद्दीन साहब ने अपने मुख्य सम्पादकीय में भारत के मुसलमानों से कहा है कि वे जहाँ भी हों-मुहल्ला, मदरसा, जिला, प्रान्त, देश हरेक स्तर पर खेल-कूद से लेकर सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदि सारे कामों के लिए मुसलमानों को संगठित करें। जिस पत्रिका का यह आवाहन है उसके सम्पादक-मंडल में रहकर इन्द्रकुमार गुजराल जैसे लोग न सिर्फ धर्मनिरपेक्षता को नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि देश की एकता के खिलाफ परोक्ष समर्थन दे रहे हैं। अगर 'मुसलिम इंडिया' का मतलब यह है, तो क्या 'हिन्दू इंडिया' और 'ईसाई इंडिया' भी उसी के अनुरूप संगठित होंगे ?
क्या कारण है कि अखिल भारतीय नामवाले किसी भी दक्षिणपन्थी या वामपन्थी राजनीतिक दल की शाखाएँ कश्मीर घाटी, सिक्किम, नागालैंड या मेघालय जैसे इलाकों में नहीं हैं? इससे प्रमाणित होता है कि भारतीय जनता पार्टी भारतीय नहीं है और कम्युनिस्ट पार्टी भौतिकवादी नहीं है। भाजपा कैसी राष्ट्रवादी पार्टी है जो राष्ट्र के सीमावर्ती इलाकों में खड़ी नहीं हो पाती? भाकपा माकपा कैसी भौतिकतावादी हैं जो हिन्दू जाति-व्यवस्था की सरहदों के बाहर शोषितों का संगठन नहीं बना सकतीं ? इनसे पांडव लोग बेहतर थे जो सामाजिक मिश्रण द्वारा भारत की उत्तर पूर्वी सीमा तक अपना राजनीतिक संगठन ले गए थे।
साम्प्रदायिक हिन्दुओं का एक हिस्सा है, जो अलगाववादी आन्दोलनों से झुंझला कर कहने लगता है, 'सिख लोग गद्दार हैं' या 'मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए'। ऐसे हिन्दुओं को यह समझ जाना चाहिए कि आज की दुनिया में अगर वे किसी धार्मिक, भाषाई या नस्लवाले समूह को देश से हटाना चाहेंगे तो निकलनेवाले अपने साथ देश का एक हिस्सा भी लेकर जाएँगे। अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति इसकी गारंटी देती है। अगर मुसलमानों को भगाना है तो कश्मीर छोड़ना होगा। अगर सिखों को गद्दार घोषित करना है तो खालिस्तान मंजूर करना पड़ेगा।
भाषा एकता का सूत्र है। इस सत्य को विकृत करके भारत के पढ़े-लिखे लोग एक अजीब नतीजे पर पहुँचते हैं- 'अगर हम अपनी भाषाओं को समृद्ध करेंगे, तो हमारी भाषाई एकताएँ मजबूत हो जाएँगी और उससे देश की एकता टूटेगी। इसलिए अपनी भाषाओं को विकसित न करें, बल्कि एक विदेशी भाषा का इस्तेमाल करें जिसके सामने सारी भाषाएँ झुककर रहें।' देश के सारे ज्ञानी लोग इस मूर्खतापूर्ण बात को दुहरा रहे हैं। वे यह नहीं समझते कि भाषाएँ जब विकसित होती हैं तो एक-दूसरे से दुश्मनी नहीं करतीं, बल्कि सहयोग करती हैं, वे सौत नहीं होतीं, सखी होती हैं। भारतीय भाषाओं का आधुनिक विकास जिन दिनों हुआ था, उन्हीं दिनों भारतीय राष्ट्रवाद का भी विकास हुआ था।
दूसरी ओर, अगर विकासशील भाषाओं को दबा दिया जाएगा तो अस्मिता बोध कमजोर हो जाएगा इसके परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्र का बोध भी कमजोर पड़ेगा।
जिनको हम 'बोली' या उपभाषा (डायलेक्ट) कहते हैं. वे तो हजारों हैं। जब इलाके की कोई भाषा गतिशील होकर समृद्ध होने लगती है तो स्वाभाविक ढंग से बोलियों अपने को उस विकास के स्रोत में विलीन कर देती हैं।
हम यह जानते हैं कि प्रत्येक विकसित भाषा बहुत सारी भाषाओं, बोलियों का मिश्रण और निखार है। लेकिन जब भाषाओं का विकास रुक जाता है तो उपभाषाएँ या बोलियाँ भी समान दरजे की माँग करने लगती हैं। अगर बांग्ला भाषा का विकास होकर विज्ञान, व्यापार तथा अनुसन्धान का सारा कामकाज वांग्ला माध्यम से हो गया होता, तो पश्चिम बंगाल के सन्थाल और नेपाली-भाषी लोगों ने भी उसे स्वीकार कर लिया होता, लेकिन बांग्ला भाषा का इस्तेमाल अगर सिर्फ आंचलिक अस्मिता प्रदर्शित करने के लिए होता है तो सन्थाल और नेपाली भी अपनी-अपनी आंचलिक अस्मिता जगाएँगे। गतिहीन भाषाएँ आपस में एक-दूसरे से द्वेष करती हैं। गतिशील भाषाएँ आपस में और बोलियों के साथ सहयोग करती हैं। भाषा, बोली और उपभाषा में कोई अन्तर नहीं होता। जिन भाषाओं में विज्ञान, दर्शन, व्यापार और अनुसन्धान का काम नहीं होता, वे सारी भाषाएँ बोलियाँ हैं। बांग्ला, सन्थाली, हिन्दी और भोजपुरी में दरजे का कोई फरक नहीं है।
अँगरेजी को जोड़नेवाली भाषा कहना एक अक्षम्य अज्ञान है। आज कर्नाटक का साहित्य प्रेमी पाठक प्रसिद्ध आधुनिक तमिल लेखक जयकांथन के बारे में कुछ नहीं जानता। आधुनिक बांग्ला कवियों के बारे में ओड़िशा का साहित्य प्रेमी पाठक नहीं जानता। अँगरेजी अज्ञान पैदा कर रही है, वह इसके बीच दीवार जैसी खड़ी है। अँगरेजी केवल नौकरशाहों, सेठों और सेमिनार प्रेमी बुद्धिजीवियों को इकट्ठा कर सकती है। सम्पर्क भाषा की समस्या उठाना ही बेमानी है। अपनी भाषाओं को अवरुद्ध करके हम सम्पर्क भाषा को ढूँढ़ नहीं पाएँगे। भाषाएँ जब मुक्त हो जाएँगी तो वे खुद सम्पर्क-भाषा की समस्या का हल करेंगी। गुलामी में जकड़ा हुआ दिमाग राष्ट्र के महत्त्वपूर्ण मसलों को हल नहीं कर सकता। यह कैसे सम्भव है कि अपनी भाषा को अयोग्य कहकर उसका तिरस्कार करनेवाले लोग, एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्र के निर्माता हो सकेंगे।
दुनिया के इतिहास में राष्ट्र बनते हैं, बिगड़ते हैं, सीमाएँ बदलती हैं। आज के राष्ट्र हजार साल बाद ज्यों के त्यों नहीं रहेंगे। भारत भी वैसा नहीं रहेगा, जैसा आज है। लेकिन किसी काल-खंड में एक समूह का आचरण आगे के परिवर्तनों को प्रभावित करता है। इसलिए सवाल वर्तमान का होता है-हम चुनौतियों का मुकाबला किस तरह कर रहे हैं? टूट रहे हैं या जुटे हुए हैं ?
-प्रस्तुतिः दुर्गेश कुमार