स्वराज को लेकर एक दीर्धकालीन लक्ष्य बनाना होगाः राम दत्त त्रिपाठी
-बीबीसी के पूर्व यूपी हेड से प्रो. स्वप्निल श्रीवास्तव की विस्तृत बातचीत
वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता रामदत्त त्रिपाठी का कहना है कि समाज में सुख, समृद्धि के लिए शांति चाहिए और शांति के लिए न्याय अनिवार्य तत्व है। हमें एक व्यापक विमर्श के जरिए स्वतन्त्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित भारत के विकास का सर्वमान्य एजेंडा बनाना चाहिए। स्वराज के रास्ते पर चलकर ही हम एक खुशहाल समाज का निर्माण कर सकते हैं।स्वराज को लेकर एक दीर्धकालीन लक्ष्य बनाना होगा। राम दत्त त्रिपाठी ने यह बात इलाहाबाद में गणित के प्रोफ़ेसर एवं सामाजिक कार्यकर्ता स्वप्निल श्रीवास्तव से एक लंबी बातचीत में कही।
{बीबीसी के हिन्दी प्रसारण में खबरों के दरम्यान एक नाम जरूर आता था, लखनऊ, इलाहाबाद या अन्य किसी शहर-जगह से ‘‘बीबीसी संवाददाता रामदत्त त्रिपाठी की रिपोर्ट’’। 21 वर्ष तक बीबीसी से जुड़े रहने के बाद जब पत्रकारिता के क्षेत्र में स्वतन्त्र मीडिया की ज्यादा आवश्यकता हुई तो ‘मीडिया स्वराज’ के द्वारा इक्कीसवीं सदी में पत्रकारिता के नये प्रतिमान को गढ़ने में आज भी पूरी तन्मयता, निष्ठा एवं इमानदारी से लगे हुए हैं रामदत्त जी। रामदत्त जी जैसे व्यक्तित्व के बनने की कहानी को अपने मे समोये हुए है यह वार्ता। यह वार्ता उनके जीवन परिचय से अलग उनके विचारधारा के परिचय को बेबाक ढंग से पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास है। इस वार्ता में दूसरे वार्ताकार के रूप में मौजूद हूँ मैं (स्वप्निल श्रीवास्तव)}
स्वप्निल श्रीवास्तव: आज एक विशेष दिन पर आप और आपके विचारों से रूबरू होने के लिए आपके साथ हूँ। आज प्रो. बनवारी लाल शर्मा का जन्मदिन है, बहुत दिनों से मन में यह खयाल था कि प्रो. शर्मा के जन्मदिन पर आपसे बातचीत की जाय और आज वह पूरा भी हो रहा है। प्रो. शर्मा ने आपके और हमारे जीवन को बहुत प्रभावित किया है फर्क रहा है तो समय का। हमसे प्रो. शर्मा की मुलाकाल के लगभग 25 वर्ष पहले आप उनके सम्पर्क में आये। उस समय देश में एक नये किस्म के आन्दोलन का सूत्रपात हो रहा था। उस समय की परिस्थितियों ने आपके जीवन पर किस तरह का प्रभाव डाला?
रामदत्त त्रिपाठी: बिलकुल सही कहा आपने; आज भी वो समय, वो परिस्थितियाँ हमारे ज़हन में मौजूद हैं। आज मैं जो कुछ भी हूँ उसमें उस समय के बोए हुए बीजों का बहुत बड़ा योगदान है। 1973 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक के छात्र के रूप में प्रवेश लेने के बाद जिन लोगों के साथ काम करने का अवसर मिला और उन्होंने मुझे गढ़ने का काम भी किया उनमें से कुछ लोगों नाम भी लेना चाहूँगा: प्रो. रघुवंश, प्रो. जे. एस. माथुर, प्रो. यू. पी. अरोड़ा। प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने उस समय से लेकर जीवन पर्यन्त मुझे सिर्फ प्रभावित ही नहीं किया बल्कि मेरे अन्दर एक नयी दृष्टि का भी समावेश किया। इन सभी लोगों ने मिलकर एक पत्रिका की शुरुआत की थी। ‘‘नगर स्वराज’’ नाम की यह पत्रिका युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय रही। जेपी (जय प्रकाश नारायण) के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन को फैलाने एवं उसमें नये विचारों के समावेश की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी पत्रिका के द्वारा निभायी गयी। मुझे भी प्रबन्ध सम्पादक के रूप में पत्रिका में काम करने का अवसर मिला। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यही वो समय था जब रामदत्त के अन्दर एक स्वतन्त्र पत्रकार जन्म ले रहा था।
स्वप्निल श्रीवास्तव: आपने ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन’’ का जिक्र किया। भारत की आज़ादी की लड़ाई में शामिल लोगों से सीधे तौर पर बातचीत का अवसर नहीं मिला परन्तु ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन’’ में शामिल लोगों से सीधे तौर पर बातचीत भी हुई है और उनके साथ काम करने का अवसर भी मिला है। आज उनके अन्दर और उनकी बातों में जिस तरह का विरोधाभास दिखायी पड़ता है क्या उस समय भी लोगों (सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के सिपाहियों) के बीच इसी तरह का विरोधाभास था?
क्रान्ति की अवधारणा व्यक्ति को रोमांचित कर देती है और जब क्रान्ति के जमीन पर उतरने की घटना का जिक्र हो तो यह रोमांच कई गुना बढ़ जाता है। ऐसा ही कुछ नजर आता है सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन में। आपने एक विद्यार्थी, एक आन्दोलनकारी और एक पत्रकार के रूप में इसमें भागीदारी की है। आज इतने वर्षों बाद आप इस आन्दोलन को किस रूप में देखते हैं? यह जिज्ञासा है।
रामदत्त त्रिपाठी: आपने तो मुझे फिर से युवावस्था की यादों में डाल दिया। जरूरी भी है छात्र जीवन विशेष रूप से किशोरावस्था, तरूणावस्था और युवावस्था के दौरान पनप रहे विचारों को आज इतने वर्षों बाद एक साथ देखना। जीवन निर्माण की प्रक्रिया का अंग हैं ये विचार।
हम भी छात्र जीवन के दौरान इलाहाबाद के मोहल्लों में जाकर साप्ताहिक गोष्ठी का आयोजन करते थे। इसमें मेरे साथ अक्सर मेरे मित्र भारत भूषण जी रहा करते थे। बेरोजगारी, मँहगाई, राजनैतिक पतन और सामाजिक कुरीतियों पर आधारित विषयों पर इन गोष्ठियों में चर्चा होती थी। 1974 में उ.प्र. विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान हम लोगों ने लोकनाथ और दारागंज में ल्वनजी वित क्मउवबतंबल के अन्तर्गत चुनावी सभा का आयोजन किया जिसमें एक ही प्लेटफार्म पर सभी पार्टी के उम्मीदवारों को बुलाकर संवाद स्थापित करने का प्रयास किया, परन्तु आज के समय में इस तरह के आयोजन की सम्भावना नगण्य दिखायी पड़ती है।
सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन की शुरूआत भी छात्र आन्दोलन से हुई। गुजरात में छात्रों के आन्दोलन के साथ ही साथ बिहार में भी छात्रों की समस्याओं को लेकर एक स्वतः स्फूर्त छात्र आन्दोलन की शुरूआत हुई। 18 मार्च, 1974 को पटना में छात्रों व युवकों द्वारा एक बड़ी सभा व विरोध का आयोजन किया गया जिसमें प्रशासन द्वारा छात्रों और युवकों पर निर्ममतापूर्वक लाठियां चलाई। जिससे लोगों में गुस्सा भर गया। इसके बाद अनियन्त्रित भीड़ और अराजक तत्व भी आन्दोलन में घुस गये, छात्र नेता कहीं दिखायी नहीं पड़ रहे थे। हर तरफ लूटपाट और आगजनी होने लगी। तब छात्रों ने जेपी से आन्दोलन की कमान सँभालने के लिए निवेदन किया। जेपी ने दो शर्तों के साथ कमान सँभालने के लिए हामी भरी। पहली शर्त यह कि आन्दोलन पूरी तरह से अहिंसक होगा और दूसरी शर्त की आन्दोलन में कोई भी व्यक्ति किसी भी राजनैतिक पार्टी से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए।
बिहार में जेपी के कमान सँभालने पर छात्र आन्दोलन में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार हो गया। अब यह आन्दोलन छात्रों के अलावा जनसाधारण के आन्दोलन में बदलने की ओर अग्रसर हो रहा था।
बिहार के बाद जेपी आन्दोलन का विस्तार उत्तर प्रदेश में हुआ। 22-23 जून, 1974 को इलाहाबाद के पीडी टण्डन पार्क में हुए युवा सम्मेलन ने जेपी आन्दोलन को सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं अपितु पूरे राष्ट्र में फैलाने में महती भूमिका निभायी। घनघोर बारिश के बीच हुए इस सम्मेलन में भीगते हुए वक्ता और श्रोता दोनों ही एक नयी इबारत लिख रहे थे। सिर्फ पीडी टण्डन पार्क ही नहीं अपितु इसके चारों तरफ के इलाकों में भी लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था।
उस दौरान देश महँगाई समेत अनेक मुद्दों को लेकर जूझ रहा था और लोगों के मन में इन्दिरा गाँधी की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार को लेकर गुस्सा था। छात्र आन्दोलन से प्रेरित होकर जय प्रकाश नारायण ने सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। सम्पूर्ण क्रान्ति के आन्दोलन को इन्हीं आन्दोलनों की परिणिति के रूप में देखा जा सकता है।
स्वप्निल श्रीवास्तव: जय प्रकाश नारायण सम्पूर्ण क्रान्ति और 1973 से 1976 के छात्र आन्दोलनों पर जितनी भी चर्चा की जाए कम ही होगी। आपने जेपी आन्दोलनो की शुरूआत कैसे हुई इसके बारे में बताया परन्तु इस आन्दोलन के कारण जिस तरह सत्ता परिवर्तन हुआ और उसके बाद सिर्फ कुर्सी पर बने रहने के लिए जिस तरह की जोड़ तोड़ और राजनैतिक, सामाजिक क्षरण हुआ वह किसी से छुपा नहीं है। यह बात अलग है कि इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि ही हुई है।
जयप्रकाश नारायण ने आन्दोलन के दौरान श्च्ंतजल समेे कमउवबतंबलश् की अवधारणा का सूत्रपात किया था। उनका यह विचार आपको गाँधी के विचारों से किस तरह प्रभावित लगता है? गाँधी की ग्राम स्वराज की अवधारणा भी एक उत्कृष्ट समाज रचना का द्योतक है उसी तरह जेपी की श्च्ंतजल समेे कमउवबतंबलश् अवधारणा भी एक उत्कृष्ट राजनैतिक व लोकतान्त्रिक व्यवस्था का परिचायक है। आपके दृष्टिकोण में क्या इस तरह की सामाज़िक, राजनैतिक व लोकतान्त्रिक व्यवस्था सम्भव है?
रामदत्त त्रिपाठी: जय प्रकाश जी साम्यवादी और मानवतावादी विचारों के सिर्फ समर्थक ही नहीं थे अपितु उसे स्वयं के जीवन में उतारने का भरसक प्रयास भी करते थे। गाँधी के शिष्य के रूप में गाँधी के विचारों को कुछ विरले लोगों ने ही अपने जीवन में अपनाया है और जयप्रकाश उनमें से एक थे। हिन्द स्वराज के माध्यम से गाँधी ने जिस समाज की परिकल्पना की थी उसे ‘‘गाँधी उटोपिया’’ के नाम से भी जाना जा सकता है उसी तरह जेपी का निर्दलीय लोकतंत्र भी उटोपिया ही समझी जा सकती है।
देश में लोकतन्त्र का जो माडल है वह केन्द्रीय सत्ता का समर्थन ही नहीं करता वरन उसका संचालन भी करता है। आजादी की लड़ाई में शामिल अधिकतर नायकों का सपना था ग्राम स्वराज। ग्राम स्वराज अर्थात विकेन्द्रित शासन लेकिन आज राज काज इतना केन्द्रित हो गया है जिसकी कोई सीमा नहीं है। आज यह कहने में किसी को भी कोई सन्देह नहीं है कि हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पूँजीवादी अर्थव्यवस्था है और यही स्थिति लगभग सभी देशों की है।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को लोकतन्त्र के बजाय केन्द्रित शासन सुविधाजनक लगता है, इसलिए देशों में ऐसी आर्थिक नीतियाँ बन रही हैं जिससे दौलत मुट्ठी भर लोगों या चंद कम्पनियों के हाथ में केन्द्रित हो रही है। वही राजनीतिक दलों का संचालन भी कर रहे हैं। हमारे देश की भी यही स्थिति है।
एक सवाल है कि आम लोगों तक पहुँचे कैसे? आम आदमी रोजमर्रा की जिन्दगी के सवालों में उलझा है। वह सीधे-सीधे राजनीति में पड़ना भी नहीं चाहता इसलिए अगर लोगों से जुड़ना है, तो हमें उनकी जिन्दगी से जुड़े सवालों से जुड़ना होगा। लोगों को ताकत देने वाले कार्यक्रम सोचने होंगे जैसे आजादी की लड़ाई में अस्पृश्यता निवारण, चरखा गोसेवा, बुनियादी शिक्षा जैसे कार्यक्रम लिए गये थे।
सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन भी इन बुनियादी रचनात्मक कार्यक्रमों से जुड़ नहीं पाया। जेपी के खराब होते हुए स्वास्थ्य के कारण भी इस तरह के रचनात्मक कार्य शुरू नहीं हो पाये और यह आन्दोलन सिर्फ सत्ता परिवर्तन के आन्दोलन के रूप में तब्दील हो गया। आज़ादी के बाद देश में परिवर्तन चाहने वाले लोगों ने अपने नायक भी बाँट लिए। गाँधी, सुभाष, भगत सिंह, नेहरू, जयप्रकाश, लोहिया, अम्बेडकर ये सब एक दूसरे के पूरक थे, विरोधी नहीं। हमें यह समझना होगा। तभी हम ऐसी समाज रचना की ओर अग्रसर हो सकेंगे जहाँ खुशहाली होगी।
स्वप्निल श्रीवास्तव: आज़ादी की लड़ाई में शामिल नायकों ने एक नये भारत का सपना देखा था। आज़ादी के बाद लगातार हम उन नायकों के सपनों वाले रास्ते से एकद उलट रास्ते पर चल पडे़। हमारे नायकों ने ऐसे भारत का सपना देखा था जिसमें उपनिवेशवाद एवं पूंजीवादी साम्राज्यवाद का दूर-दूर तक नामोनिशन न रहे। एक ऐसी व्यवस्था की चाहत थी जो: ;पद्ध सभी को समान सम्मान देने को कृतसंकल्पित हो ;पपद्ध श्रम की प्रतिष्ठा द्वारा वर्ण व्यवस्था एवं पूँजीवादी व्यवस्था दोनों में अन्तर्निहित श्रम के शोषण को नकारने वाली और सर्वधर्म समभाव को मानने वाली हो। आज आज़ादी के 75 वर्ष बाद आप इन नायकों के सपने को किस तरह से देखते हैं?
रामदत्त त्रिपाठी: भारत की आज़ादी और उस समय की पृष्ठभूमि को समझे बिना किसी भी नतीजे पर पहुँचना ठीक नहीं है। भारत का विभाजन कोई दस बीस साल की इबारत नहीं थी। इसकी नींव औपनिवेशिक सत्ता के द्वारा बहुत पहले ही रख दी गयी थी। महात्मा गाँधी के अथक प्रयासों के बावजूद भारत को विभाजन की त्रासदी से गुजरना पड़ा। लोगों के बीच धार्मिक उन्माद को बढ़ाने का दुश्चक्र औपनिवेशिक सत्ता के द्वारा लगातार रचा जाता रहा। भारत विभाजन के पश्चात भी यह दुश्चक्र जारी रहा और आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है। गाँधी की हत्या भी इसी दुश्चक्र का परिणााम थी। गाँधी के खिलाफ हिन्दुओं और मुसलमानों की फौज खड़ी की जा रही थी। नवनिर्मित पकिस्तान में हिन्दुओं पर अत्याचार के कारण तात्कालिक समस्याएँ इतनी ज्यादा हो गयीं थी कि पूरा देश उनसे निपटने में जुटा हुआ था। कश्मीर में नेहरू और पटेल के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति पैदा हो गयी थी। आज़ादी के बाद बहुत सारे सन्दर्भ बदल गये थे, तात्कालिक रूप में कश्मीर बचाओ, बार्डर बचाओ ही दीख रहा था। पटेल की भी जल्दी मृत्यु ने नेहरू को कमजोर किया।
नेहरू और पटेल दोनों ही अपने सरकार की कमियों को उजागर नहीं करना चाहते थे इसीलिए गाँधी की हत्या एवं उससे जुड़े दस्तावेजों की ठीक से जाँच नहीं हुई। गाँधी की हत्या न हुई होती तो भारतीय संविधान का प्रारूप भी कुछ अलग होता। गाँधी का स्वराज ‘‘भ्वउम तनसम प्दकमचमदकमदबम’’ से भिन्न था। वह स्वशासन एवं अनुशासन को अपने में समोये हुए था। नयी समाज रचना के लिए गाँधी ने एकादश व्रत के पालन की बात भी कही है। आश्रम में रहने वालों के लिए ग्यारह व्रतों का पालन अनिवार्य था: ; अहिंसा ; सत्य ;अस्तेय ;ब्रह्मचर्य ;अपरिग्रह (असंग्रह) ; शरीर श्रम ; अस्वाद ; सर्वत्र भय वर्जनं ; सर्वधर्म समानता ; स्वदेशी ; अस्पृश्यता निवारण ।
ग्राम स्वराज की अवधारणा को पुष्ट करने का काम गाँधी के बाद बिनोवा और जेपी के साथी कर सकते थे परन्तु वह हो नहीं पाया। जयप्रकाश द्वारा बिहार में जमीन पर बैठकर लोक स्वराज का काम करने की चाहत भी पूरी नहीं हो पायी। इसके कारणों को गम्भीरता से देखने की जरूरत है।
स्वराज को लेकर एक दीर्ध कालीन लक्ष्य बनाना होगा। यह 15 या 20 साल का लक्ष्य नहीं है। गाँधी के रचनात्मक कार्यक्रमों को वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार नये सिरे से सोचना होगा। ऐसे कार्यक्रमों को प्रमुखता देनी होगी जिसमें किसान और शिल्पकार दोनों ही समान रूप से शामिल हों। बुनियादी समाज के बीच से निकले रचनात्मक कार्यक्रम ही स्वराज का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। हमें तय करना होगा कि इस तरह के कार्यक्रमों में हम क्या भूमिका निभा सकते हैं।
इन कार्यक्रमों को जितना हम चुनावी राजनीति से दूर रख सकेंगे उतना ही सार्थक होगा। चुनावी राजनीति से दूर होने पर ही समाज में हमारी स्वीकार्यता बढ़ेगी। रचनात्मक कार्यक्रमों के द्वारा ही जनचेतना एवं शक्ति को बटोरने और बढ़ाने का काम हो सकता है। कृत्रिम संघर्ष के द्वारा त्वरित सहायता हो सकती है परन्तु इसके द्वारा स्वराज की इबारत नहीं लिखी जा सकती। यह समय है अपनी शक्ति को बटोरने और बढ़ाने का।
स्वप्निल श्रीवास्तव: स्वराज को आज मुख्यधारा से जोड़कर नहीं देखा जा रहा है। इसे एक वैकल्पिक समाज रचना की तरह प्रस्तुत किया जा रहा और इस प्रस्तुतीकरण में परिवर्तन कामी लोग, विद्वतजन यहाँ तक कि काॅरपोरेट शक्तियाँ भी शामिल है। आज के युग में परिवर्तन की बात करें और मीडिया से जुड़ी हुई बात न हो तो उचित नहीं है। मीडिया के द्वारा ही कोई भी सत्ता अपने द्वारा अपनाये गये रास्ते को सही दिखाने का प्रयास करती है और विरोधी रास्ते को गलत। मीडिया पर नियन्त्रण का यह खेल कोई नया नहीं है, परन्तु समय के साथ-साथ नियन्त्रण भी बढ़ता जा रहा है। मुख्य धारा के मीडिया के समानान्तर बहुत सारे वैकल्पिक मीडिया भी मौजूद हैं। एक पत्रकार के रूप में उन्हें आप किस दृष्टि से देखते हैं ?
रामदत्त त्रिपाठी: अकसर हम ‘‘वैकल्पिक प्रोपोगैंडा ’’ के शिकार हो जाते हैं। सत्तादल कभी भी स्वतन्त्र मीडिया नहीं चाहती है। आज सोशल मीडिया के नाम पर बहुत सारे वैकल्पिक मीडिया चैनल मौजूद हैं परन्तु उनमें से अधिकतर किसी न किसी काॅरपोरेट शक्ति की जकड़ में हैं।
हमें ऐसे मीडिया की जरूरत है जिसके संचालन और उससे जुड़े अर्थतन्त्र की जिम्मेदारी लोगों के हाथ में हो। बीबीसी इसका एक अप्रतिम उदाहरण है। इसके संचालन के लिए प्रत्येक ब्रिटिश नागरिक जो करदाता है वह एक निश्चित धनराशि प्रतिवर्ष देता है और यह निर्णय बीबीसी की स्थापना के समय ब्रिटिश समाज ने किया था। वर्तमान समय में प्रत्येक ब्रिटिश करदाता 150 पाउण्ड प्रतिवर्ष इस मद में देता है।
मेरे 21 वर्ष के कार्यकाल में किसी ने कभी भी यह नहीं कहा कि इस घटना को किसी विशेष प्रकार से रिपोर्ट करना है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बीबीसी के विचार के केन्द्र में है।
एक समय इन्दिरा जी ने बीबीसी पत्रकार मार्क टली को देश से निकाल दिया था। मार्गरेट थैचर भी जब ब्रिटेन की प्रधानमन्त्री थीं तो उन्होंने भी कहा था कि बीबीसी राष्ट्र विरोधी काम कर रहा है और इसे प्रतिबन्धित कर देना चाहिए।लेकिन बीबीसी नहीं झुका।
अगर हम स्वतन्त्र और निर्भीक मीडिया चाहते हैं तो हमें भी लोककेन्द्रित एवं लोकसंचालित मीडिया चैनलों को संचालित करना होगा जिसमें समर्थन और विरोध दोनों ही स्वरों को बिना किसी भेदभाव के समान अवसर मिलें।
अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार स्वस्थ समाज और लोकतन्त्र के लिए प्राणवायु का काम करता है। यह अभिव्यक्ति तभी तक प्राणवायु है जब तक उसके पीछे नेकनियति और लोकहित की भावना हो, लेकिन अगर इस प्राणवायु को ही ज़हरीला बना दिया जाए तो समाज का क्या होगा? निश्चित रूप से समाज में तनाव और विखंडन होगा।
स्वप्निल श्रीवास्तव: वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य को आप कैसे देखते हैं? एक बड़ा सवाल जो सदा से उठता रहा है वह है कि राज्य के दमन और प्रतिरोध से नागरिकों की रक्षा कैसे की जाए या यह मान लिया जाए कि राज्य का चरित्र ही दमनकारी होता है।
रामदत्त त्रिपाठी: 1975 में सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के पश्चात कांग्रेस का कमजोर होना फिर 1980 से इन्दिरा गाँधी की सत्ता में पुनः वापसी। 1984 में इन्दिरा गाँधी की हत्या के पश्चात राजीव गाँधी को कांग्रेस की कमान और उसके बाद कांग्रेस के आलाकमान के अन्दर भारतीय समाज की समझ और राजनैतिक परिपक्वता के अभाव ने कांग्रेस और उसके नेताओं को आमजन से अलग किया है। आम जन राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी को अपने से जोड़ नहीं पा रहा है वहीं नरेन्द्र मोदी को आम जन अपने से जोड़कर देखता है।
नीतियों के स्तर पर भी गैर भाजपा दलों के पास कुछ नया नहीं है। विपक्षी दलों को जवाब अपने कर्मों से, आचरण से और नीतियों से देना होगा, नहीं तो देश दलदल में फँसा रहेगा।
आपने कहा कि राज्य के दमन और प्रतिशोध से नागरिकों की सुरक्षा कैसे की जाय? उसके लिए राज्य की तीनों शाखाओं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से अपेक्षा की जाती है कि विधि के अनुसार शासन हो। वास्तव में लोकतन्त्र में तो पक्ष-विपक्ष सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी नीति-निर्माण, कामकाज और आचरण; संविधान तथा नियम कानून और नैतिक मर्यादा के अनुसार करें। समाज में न्याय, स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल्यों को बढ़ावा दें न कि इनके विपरीत आचरण करें। राजनीतिक दलों का यह भी कर्तव्य बनता है कि समाज में इन मूल्यों के प्रचार प्रसार के लिए लोकशिक्षण करें।
समाज की एकता और अखण्डता के लिए भी न्याय एक अनिवार्य तत्व है, जिस राज्य और समाज में न्याय नहीं होगा, देर-सबेर उसका विखण्डन निश्चित है। विखण्डन न हो, यह जिम्मेदारी हम भारत के लोगों की है, क्योंकि एक लोकतान्त्रिक गणराज्य में जनता ही सम्प्रभु है इसके लिए जागरूक जनता को खुद ही आगे आना होगा।
स्वप्निल श्रीवास्तव: सवाल तो बहुत से हैं और परिचर्चा के दौरान नये सवालों ने भी जन्म लिया है। नये सवालों पर पुनः आपसे चर्चा होगी। चलते-चलते पाठकों से आप कुछ कहना चाहेंगे?
रामदत्त त्रिपाठी: इस लम्बी चर्चा के बाद अभी इतना ही कहना चाहूँगा कि समाज में सुख, समृद्धि के लिए शांति चाहिए और शांति के लिए न्याय अनिवार्य तत्व है। हमें एक व्यापक विमर्श के जरिए स्वतन्त्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित भारत के विकास का सर्वमान्य एजेंडा बनाना चाहिए। स्वराज के रास्ते पर चलकर ही हम एक खुशहाल समाज का निर्माण कर सकते हैं।
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