ओबीसी समाज एक बार फिर चौराहे पर है। चारो तरफ घना कोहरा है। चारो तरफ के रास्ते कुछ-कुछ गज ही दिखाई दे रहे हैं। उसे सूझ नहीं रहा है कि वह किस रास्ते पर जाए, ताकि उसे उसकी मंजिल मिल जाए। वह हर रास्ते पर कुछ-कुछ दूरी तक जाकर अपनी मंजिल की तलाश कर रहा है, लेकिन आगे तो कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा है। कब तक रहेगा इस तरह का धुंध, यह भी नहीं समझ में आ रहा है।
उत्तर प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर जो फैसला आया है, उसने ‘ओबीसी‘ शब्द को फिर एक बार बहस के केंद्र में ला दिया है। सरकार ने आनन-फानन में ट्रिपल टेस्ट के लिए आयोग का गठन कर दिया। सरकार में सहयोगी पार्टियों ने भी बयान दे दिया कि ओबीसी हितों की हर हाल में रक्षा की जाएगी। समाज के बुद्धिजीवी भी अपना-अपना तर्क जरूर दे रहे हैं, लेकिन उनकी तरफ से भी यह नहीं बताया जा रहा है कि किस रास्ते पर जाने से मंजिल मिल सकती है।
आइए चलते हैं भूतकाल में। समाज के हर क्षेत्र में पिछड़ों को साठ फीसद आरक्षण की बात सबसे पहले उठाने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्म वैश्य समाज में हुआ था। संसोपा ने बांधी गांठ, सौ में पावें पिछड़े साठ। आजादी के बाद ओबीसी आरक्षण के लिए सबसे पहली आवाज डॉ. लोहिया ने ही उठाई थी। यह भी सत्य है कि जाट होते हुए भी चौधरी चरण सिंह को पिछड़ों-किसानों ने अपना नेता माना। मंडल आयोग का गठन करने वाला कोई पिछड़ा या जातिवादी नेता नहीं था। इस महापुरुष का नाम था- श्रद्धेय मोरारजी देसाई। इसे लागू करने वाले राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह जाति से राजपूत थे। और, यह तो सभी को पता ही है कि मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा करते ही वीपी सिंह जी की सरकार को गिराने वाले लोग कौन थे। हालांकि वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस लेकर उसे गिराने वाली पार्टी भाजपा अब बदल चुकी है।
यह समझना कत्तई गलत नहीं होगा कि ओबीसी समुदाय अपनी इस दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार है। इस समाज ने एकजु़ट होकर किसी को नेता चुना ही नहीं। इसे दूसरे शब्दों में भी कह सकते हैं कि कोई नेता आज तक पैदा हुआ ही नहीं, जिसमें पूरे ओबीसी समुदाय को एकसूत्र में बांधकर चलने की क्षमता हो। जाति के नाम पर हजारों संगठन हैं तो ओबीसी नाम वाले भी संगठनों की संख्या कम नहीं है। इसी का फायदा लोमड़ी जैसी चालाक जातियों के नेता उठा रहे हैं। ओबीसी समाज की एक-एक जाति के कई-कई संगठन हैं। जब आप एक होकर रहना ही नहीं जानते तो हकमारी होगी ही।
पिछड़े वर्ग के लोगों के जातिवादी भावना से बााहर आना होगा। यदि दूसरी जातियों के ओबीसीवादियों में विश्वास न हो तो खुद ओबीसीवादी बन जाएं। ओबीसी के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं और पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियों, दोनों को खुद में सुधार लाना होगा। लोगों को एकजुट होने के पहले ओबीसी हितैषी होने के दावा करने वाली पार्टियों के नेताओं की आवाज एक हो। तभी वे इस वर्ग की जातियों को भी एक कर पाएंगे।
जहां तक हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट का मामला है, इन दोनों में जब तक कोलेजियम सिस्टम रहेगा, तब तक ओबीसी हित में फैसले शायद ही हों। इसीलिए कोलेजियम को हटाकर आल इंडिया ज्यूडिशयल सर्विसेज की मांग अपना दल (सोनेलाल) की अध्यक्ष श्रीमती अनुप्रिया पटेल वर्षों से उठा रही हैं, लेकिन कथित रूप से समान विचारधारा वाली अन्य पार्टियों का समर्थन नहीं मिल पा रहा है। इसीलिए उनकी आवाज ‘नक्कारखाने में तूती’ साबित हो रही है।
यही वह समय है, जब ओबीसी समाज अपना हक पा सकता है। 2024 में लोकसभा का चुनाव होना है। कोई भी पार्टी नहीं चाहेगी कि देश की साठ फीसद आबादी का वोट उससे दूर हो। हमें अपने हक के लिए दबाव बनाना ही होगा। इसके लिए एक नेता के पीछे चलना ही होगा। सोए ओबीसी समाज को जगाना होगा। यह असंभव नहीं है। क्योंकि, कोहरे को चीरकर सूर्य निकलताा ही है। रात के बाद सुबह होती ही है। पिछड़े वर्ग को उसकी ताकत का अहसास कराने की जिम्मेदारी इस समाज के बुद्धिजीवियों को लेनी ही होगी। यह काम केवल वही कर सकते हैं। जिस दिन ओबीसी वाले अपना एक नेता चुन लेंगे, उसी दिन से इनके हितों पर काम भी शुरू हो जाएगा। बिखरे समाज को कौन पूछता है।
ओबीसी वर्ग के पास सब कुछ है। धैर्य, शक्ति, शिक्षा, संस्कार, धरती। शायद उनको अभी तक यह पता नहीं है कि वे जिसकी चाहें, सरकार बना दें, जिसकी चाहे गिरा दें। इसी ताकत का उनको अहसास कराना है। क्योंकि, शांत सागर में जब हलचल होती है तो ज्वार-भांटा आता है। तालाब के स्थिर पानी में जब कंकड़ फेंका जाता है तो लहर बनती है। इसी तरह से जब धीर-गंभीर बैठे हनुमान को उनकी शक्ति का अहसास कराया जाता है लंका दहन जैसी क्रिया होती है।
–राजेश पटेल (लेखक इस न्यूज पोर्टल के प्रधान संपादक हैं)
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