जगदीश्वर चतुर्वेदी
सन् 1980-81 से छात्रसंघ चुनाव के मसलों का पैटर्न बदलता है और एकदम स्थानीय मसले चर्चा के केन्द्र में आ जाते हैं। राजन जी जेम्स फिनोमिना इसका प्रधान बिंदु है। इसके साथ ही प्रबल ढ़ंग से विवेकहीन पापुलिज्म आम फिनोमिना बनकर उभरता है। इसका चरमोत्कर्ष मई 1983 के तथाकथित छात्र आंदोलन में होता है। यह वह दौर है जिसमें समूचा छात्र आंदोलन गहरे उन्माद की अवस्था में था इसे कुछ छात्र क्रांति के रूप में चित्रित कर रहे थे अंततःइस आंदोलन को भयानक दमन का सामना करना पड़ा। समस्त अकादमिक वातावरण ध्वस्त हो गया।छात्र आंदोलन की समस्त उपलब्धियां प्रशासन के द्वारा सचेत ढ़ंग से नष्ट कर दी गयीं। जेएनयू प्रशासन का अधिनायकवादी रूप इस दौर में सामने आया। शिक्षकों और कर्मचारियों के साथ छात्रों की एकता को सचेत रूप से तोड़ दिया गया। छात्र आंदोलन के एक्शन प्लान करते समय परिणामों के बारे में व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोचने में तत्कालीन नेतृत्व पूरी तरह असफल रहा।
स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि पुराने अधिकांश उदार नियमों को बदल दिया गया। पहलीबार जीरो सेमीस्टर घोषित कर दिया गया और एक साल दाखिले नहीं हुए। मेरी जानकारी में यह किसी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पहलीबार ऐसा हुआ कि दाखिले ही नहीं लिए गए। दर्जनों छात्रों को निष्कासित कर दिया गया। 350 से अधिक छात्रों पर 18आपराधिक धाराओं में पुलिस ने केस करके उन्हें तिहाड़ जेल में बंद कर दिया। विश्वविद्यालय अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया और छात्रावासों से छात्रों को निष्कासित कर दिया गया। छात्रसंघ का समूचा नेतृत्व जेल में बंद था। ऐसी स्थिति में आंदोलन करना, जेल में बंद छात्रों को बाहर निकालना और बंद छात्रों की जमानतें कराना सबसे बड़ी समस्या थी। इसके अलावा विश्वविद्यालय प्रशासन के अलोकतांत्रिक फैसलों का प्रतिवाद करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया था। जब सारा छात्र नेतृत्व जेल में बंद थे, साथ ही उस समय के सभी छात्र संगठनों के प्रमुख कार्यकर्ता और नेता भी जेल में बंद थे।
समूचा छात्रसंघ नेतृत्व भी जेल में बंद था,नलिनीरंजन मोहन्ती (अध्यक्ष) जेल में थे। ऐसी स्थिति में मैं अकेला एसएफआई अध्यक्ष के नाते बाहर था और रश्मि दोरायस्वामी (भाषा संस्थान) की कौंसलर कन्वीनर के रूप में बाहर थीं।संजय बोयदार एसएफआई के संयुक्त सचिव बाहर थे। रश्मि के नेतृत्व में हमलोगों ने नए सिरे से जेल से मुक्त कराने का अभियान और अन्य एक्शन आरंभ किए और छात्रसंघ के संविधान के अनुसार उनको कार्यकारी अध्यक्ष बनाया। उस दौर में प्रकाश कारात ,सीताराम येचुरीसुहेल हाशमी,आदित्य निगम आदि उल्लेखनीय भूमिका की आज भी याद करता हूँ। इसके अलावा संजय बोयदार को याद करना चाहूँगा जो उस समय एसएफआई का सचिवमंडल का सदस्य था और जेल नहीं गया था और निकाला भी नहीं गया था। हमें हैरानी और परेशानी कितनी हुई थी इसके अंदाजा इसी तथ्य से लगा सकते हैं कि हमने जेल में बंद 400छात्रों की तीनबार जमानतें करायीं तब कहीं जाकर वे बाहर निकल पाए और उसके बाद तकरीन दो साल तक केस चले और बडी मशक्कत के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन केस वापस लेने के लिए राजी हुआ। छात्र राजनीति में विवेकहीन बहादुरी का यह पीडादायक अनुभव था।इस अनुभव का सबक था कि छात्रसंघ की यह चुनौती है कि वह नियमों में काम करे और नियमों में प्रशासन को भी काम करने के लिए दबाब में रखे।
लोकतंत्र, विवेक और आनंद का सौंदर्यलोक जेएनयू-1
देश में वैचारिक समस्याओं की कमी नहीं है,लेकिन शासकों को वे नजर नहीं आतीं,खासकर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अवस्था बेहद खराब है लेकिन मोदी सरकार ने शिक्षा की वास्तव समस्याओं को छोड़कर जिस समस्या की खोज की है वह है ´सैन्य शौर्यचेतना की कमी´ ।मोदी सरकार ने आदेश दिया है कि विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में छात्रों में राष्ट्रवादी चेतना पैदा करने के लिए ´शौर्य दीवार´बनायी जाय।इस आदेश के तहत 21परमवीर चक्र विजेताओं के फोटोग्राफ चिपकाए जाएंगे।एक हजार कॉलेज-विश्वविद्यालयों में यह दीवार सजायी जाएगी।
सवाल उठता है कॉलेज-विश्वविद्यालय परिसरों को राष्ट्रवाद का अखाड़ा बनाने की कोशिशें क्यों हो रही हैं ॽ असल में इस अभियान का मुख्य मकसद है आरएसएस के राष्ट्रवादी एजेण्डे को छात्रों में पहुँचाना और जेएनयू के शिक्षकों-छात्रों के द्वारा फरवरी 2016 के आंदोलन के दौरान छेडे गए राष्ट्रवाद संबंधी प्रचार का जवाब देना।उल्लेखनीय शिक्षा परिसरों में सैन्य वीरों की तस्वीरों का प्रदर्शन, अपने आप में विरल बात है।यह काम 1965 और 1971के भारत-पाक युद्ध, सन् 1962 के भारत चीन युद्ध के समय भी नहीं किया गया यहां तक कि एनडीए की सरकार के शासन में कारगिल युद्ध के समय भी केन्द्र सरकार ने यह काम नहीं किया।सवाल उठता है फिर ऐसा कौन सा संकट आ गया कि शिक्षा परिसरों में ´शौर्य दीवार´बनानी पड़ रही है i इतिहास बताता है कि प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में भारत के हजारों सैनिकों ने हिस्सा लिया लेकिन उस समय भी विश्वविद्यलयों में ´सैनिकों के शौर्य´की गाथाएं सरकार और राजनीतिक दलों ने आदेश देकर प्रचारित-प्रसारित नहीं कीं।मजेदार बात यह है कि इस काम के लिए केन्द्र सरकार कोई धन मुहैय्या नहीं कराएगी बल्कि शिक्षक और छात्र अपने चंदे से यह दीवार बनाएंगे।
सेना में जो लोग काम करते हैं वे नौकरी करते हैं ,बदले में पगार पाते हैं ,विशेष सुविधाएँ पाते हैं। यह उनका निजी तौर पर चुना गया पेशा है। वे शत्रु से लड़ने के लिए रखे ही जाते हैं इसके बदले उनको वह सब कुछ मिलता है जिसका देश ने उनसे वायदा किया है और यह हिंदुस्तान की जनता अपनी जेब से कर जमा करके अदा करती है। यह पेशेवर काम है । इसका नायकत्व से कोई संबंध नहीं है। असल में नायक तो किसान और मजदूर हैं जो देश बनाते हैं और जनता का पेट पालते हैं। बदले में कुछ नहीं पाते। वे कभी कोई मैडल -पदक-पद्म पुरस्कार नहीं पाते ! आश्चर्य है किसान मर रहे हैं, मजदूर मर रहे हैं वे नायक नहीं है,उनको सरकार नायक मानने को तैयार नहीं है। उनके बारे में सरकार समाचार तक छपने देना नहीं चाहती।
शिक्षा के असली मसले कुछ और हैं जिनकी ओर मोदी की केन्द्र सरकार ध्यान देना नहीं चाहती। वह जीवन के हर क्षेत्र में राष्ट्रवाद को लागू करने की कोशिश कर रही है, जीवनशैली से लेकर शिक्षा तक,सेना से लेकर अर्द्ध-सैन्यबलों और पुलिसबलों तक में राष्ट्रवाद की मुहिम चलायी जा रही है।लोकतंत्र में राष्ट्रवाद की मुहिम चाहे जितने नेक ख्याल से चलायी जाय अंततःविभाजनकारी भूमिका अदा करती है।ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति के दौर में राष्ट्रवाद एक हद तक मददगार था,आम जनता को जोड़ने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।लेकिन लोकतंत्र में राष्ट्रवाद,सामाजिक विभाजन पैदा करता है।आजादी के बाद समाज को जोड़ने वाले दो महत्वपूर्ण कारक रहे हैं वे हैं 1.लोकतंत्र, और 2.धर्मनिरपेक्षता। विचारों के नाम पर जो संहिता मार्गदर्शक है वह है भारत का संविधान। मौजूदा राष्ट्रवादी मुहिम इन तीनों चीजों की मूल भावनाओं के खिलाफ है।
हमारे शिक्षा संस्थानों की दो प्रमुख समस्याएं है पहली समस्या है संसाधनों की कमी की।दूसरी समस्या है सत्यानुभूति का अभाव और असभ्यता ।हमारी शिक्षा सत्य और सभ्यता के प्रति प्रेम पैदा नहीं करती।फलतः हमारे छात्रों में आज भी परंपरा और परजीविता जड़ें जमाए हुए है।हमारे छात्र पढ़-लिखकर सत्य के नजरिए से समाज,राजनीति,संस्कृति,जीवनशैली आदि को नहीं देखते।डिग्री हासिल करके भी सभ्यता के आंगन में दाखिल नहीं हो पाते।हमारे यहां कहने को शिक्षा है,डिग्रियां है, बड़े-बडे शिक्षा संस्थान हैं,लेकिन सभ्यता का प्रसार एकदम नजर नहीं आता।शिक्षा को हमने रोटी कमाने का साधन बना दिया है।इसका परिणाम यह निकला है कि जो डिग्रीधारी है वह सभ्यता के सवालों,मनुष्य के रूपान्तरण के सवालों से एकदम अनभिज्ञ हैं,वह जैसा पढ़ने आता है पढ़कर वैसा ही निकलता है,शिक्षा उसे डिग्रीधारी तो बनाती है लेकिन सभ्य नहीं बनाती,उसके व्यक्तित्व की मूल्य-संरचना का रूपान्तरण नहीं करती।मसलन्, शिक्षा के पहले यदि उसके मन में लोकतंत्र के प्रति नफरत,घृणा,संशय रहता है तो शिक्षा के बाद यह कम नहीं होता बल्कि और बढ़ जाता है। छात्रों में राजनीति में शिरकत की भावना बढ़नी चाहिए लेकिन होता उलटा है वह राजनीति से नफरत करने लगता है अथवा असभ्य राजनीति सीखता है।आज हमारे छात्रों को सैन्यशक्ति के प्रति आस्थावान बनाया जा रहा है।लेकिन छात्रों में सैन्यशक्ति की बजाय सभ्यता पैदा करना जरूरी है। हमारे छात्रों के पास डिग्रियां होती हैं, अच्छे नम्बर होते हैं लेकिन उनके अंदर आत्मशक्ति और सभ्यता नहीं होती।देश के निर्माण के लिए सैन्य –शक्ति की नहीं आत्मशक्ति और सभ्यता की जरूरत है।सैन्यभक्ति से झूठा उन्माद पैदा होता है सेना और राष्ट्रवाद की हुंकार में देश निवास नहीं करता, बल्कि देश तो सभ्यता सृष्टि का नाम है। हमारा देश मनुष्य के चित्त की सृष्टि में निवास करता है।देश कोई भूगोल या सरहद नहीं है,देश का मतलब खारिज विचारों को जनता के ऊपर थोप देना नहीं है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में ´देश मनुष्य के चित्त की सृष्टि है।´
असल में ´शौर्य दीवार´अभियान केन्द्र सरकार के राजनीतिक औदासीन्य और अकर्मण्यता को छिपाने के लिए चलाया जा रहा है।केन्द्र सरकार अपनी अकर्मण्यता को छिपाने के लिए सेना के मुखौटे और शौर्य के प्रचार का इस्तेमाल कर रही है।इस समय कुछ लोगों के हाथ सरकार की गर्दन पर हैं तो अन्य के हाथ सरकार के पैरों पर हैं।जिनके हाथ पैरों पर हैं वे ही राष्ट्रवादी मुहिम में अग्रणी हैं।वे उन्माद पैदा करके समाज निर्माण करना चाहते हैं लेकिन समाज निर्माण का काम उन्माद के जरिए कभी नहीं हो सकता।उन्माद में जलाकर खाक कर देने की क्षमता होती है। उन्माद से कभी सृष्टि नहीं होती।सन् 1983 की घटना और उसके एकदम बाद मैंने उपरोक्त शौर्य दीवार का जिक्र इसलिए किया ,कि उस समय दमन सबसे अधिक हुआ और अब मोदी सरकार आने के बाद भयानक दमनचक्र चल रहा है।
जेएनयू पर बहस कर रहे हैं तो हमें यह सवाल उठाना चाहिए कि हमारे विश्वविद्यालयों की आंखें कैसी हैं ॽ विश्वविद्यालयों की आंखें कैसी हैं यह इस बात तय होगा कि विश्वविद्यालय ,सरकार को कैसे देखता हैं ॽ सरकार की उसके पास किस तरह की अवधारणा है ॽसरकार की अवधारणा चांस से पैदा नहीं होती ,वह क्लासरूम में पैदा होती है। विश्वविद्यालय सरकार को कैसे देखते हैं यह इस बात से तय होगा शिक्षक कक्षा में पढ़ाते कैसे हैं ॽ विश्वविद्यालय को संगठित कैसे करते हैं ॽ संचालित कैसे करते हैं ॽ किस तरह के शिक्षकों की नियुक्ति करते हैं ॽ
इसी तरह शिक्षक और छात्र पढ़ते हुए तटस्थ नहीं हो सकते।उनको यह कहने का हक नहीं है कि सरकार के बारे में हम कुछ नहीं बोलेंगे।आमतौर पर भारत के सभी विश्वविद्यालयों में सरकार के प्रति यही रूख है या फिर सरकार का अनुकरण करने की प्रवृत्ति है। विश्वविद्यालय के अंदर का समाज हमारे समाज का प्रतिबिम्बन है। उसमें छात्र जहाँ समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं दूसरी ओर शिक्षक समाज के दूसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।ये असल कारीगर हैं,ट्रस्टी हैं, जो अपने शिक्षण से छात्रों को तराशने का काम करते हैं।उनका काम है छात्रों को अंतर्विरोधों के लिए तैयार करना। शिक्षक वस्तुतः लक्ष्य है जिसको पाना छात्रों की इच्छा होती है।किसी भी विश्वविद्यालय की आँखें कैसी होंगी यह निर्भर करता है कि शिक्षक कैसे हैं ॽ शिक्षक वि.वि. के ट्रस्टी होने के नाते सामुदायिक तौर पर वि.वि. के मर्म का निर्माण करते हैं।वे इस क्रम में अपनी स्वायत्तता भी निर्मित करते हैं।
शिक्षक महज शिक्षक नहीं होता वह स्कॉलर या विद्वान होता है ।विद्वान की परख विद्वान ही कर सकता है,अन्य नहीं।मोदी सरकार आने के बाद यह मुश्किल बढ़ी है कि विद्वान की परख विद्वान नहीं कर रहे, लफंगे और जाहिल किस्म के लोग कर रहे हैं।इसके कारण सारे देश में विद्वानगण अपने को लज्जित और अपमानित महसूस कर रहे हैं।जेएनयू के वीसी जगदीश कुमार ने ठीक वही काम किया जो आरएसएस चाहता है।उसने विद्वान की भूमिका नहीं निभायी। हमारे अधिकांश विश्वविद्यालयों में शिक्षक तो ढ़ेर सारे हैं लेकिन विद्वान या स्कॉलर बहुत कम हैं।
विश्वविद्यालय की आँखें विद्वान होते हैं,शिक्षक नहीं।हमने शिक्षक बनाने पर खूब जोर दिया और सारे देश को शिक्षकों से भर दिया है,इससे शिक्षा का स्तर गिरा है,शिक्षा को हमने रूपये – कौडी के धंधे में तब्दील कर दिया है।शिक्षा को बाजारू बना दिया है, और शिक्षक को बिकाऊ मजदूर ! दुखद है कि हम लेकिन वि.वि. को वि.वि. न बना पाए।जेएनयू इसलिए सारे देश के विश्वविद्यालयों से अलग है क्योंकि यहां विद्वान या स्कॉलरों की परंपरा है। यहां शिक्षक कम और विद्वान ज्यादा पाए जाते हैं।वे अपने छात्रों को पढ़ाते नहीं हैं,ज्ञान में साझीदार बनाते हैं,ज्ञान का भोक्ता नहीं सर्जक बनाते हैं। इस अर्थ में जेएनयू सारे देश के विश्वविद्यालयों से भिन्न है।
यहां छात्र-शिक्षक निडर होकर सरकार के खिलाफ,वि.वि.प्रशासन के खिलाफ बोल सकते हैं।यहां छोटे-बड़े का भेद एकदम नहीं है।यहां हर छात्र को अपनी हाइपोथीसिस पर काम करने का हक है।किसी भी वि .वि . में ज्ञान के विकास की यह बुनियादी शर्त है।कोई भी छात्र जब हाइपोथीसिस बनाकर काम करता है तो ज्ञान का सृजन करता है।जनता के बीच में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करता है।ज्ञान के संदर्भ में शक्ति अर्जित करता है। वह जो ज्ञान निर्मित करता है उसका आम जनता पर असर भी होता है।इस अर्थ में वह अपनी स्वायत्तता को निर्मित करता है,स्वायत्त संसार बनाता है।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से जेएनयू अपने को सरकार के नाभिनाल से काटता है।
जेएनयू के स्कॉलरों की आँखें हैं उनके ज्ञान की वैज्ञानिकक्षमता।जो सरकार और उसके तंत्र से पूरी तरह स्वतंत्र है। देश में कहने को अनेक वि.वि. हैं जो कागज पर स्वायत्त हैं,जेएनयू भी स्वायत्त है, लेकिन जेएनयू स्वायत्तता से भी एकदम आगे जाकर काम करता रहा है,स्वायत्तता के आधार वि.वि.सिर्फ अपने अंदर के कामकाज को लेकर स्वायत्त रह सकते हैं।यह स्वायत्तता की सीमा है।स्वायत्तता के तहत वि.वि. वही काम कर सकते हैं जो उनको सौंपे गए हैं।लेकिन जेएनयू उससे भिन्न भूमिका अदा करता रहा है,वह उनके प्रति भी जिम्मेदारी निभाता रहा है जो स्वायत्तता देनेवाली एजेंसी नहीं हैं। यानी गैर-सत्ताकेन्द्रों या विश्वसमाज के बृहत्तर तबकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाता रहा है।यही वजह है कि जेएनयू के छात्रों में सरकारीचेतना की बजाय विश्वचेतना,सामाजिकचेतना प्रबल होती है।इस अर्थ में वे देश के अन्य संस्थानों से भिन्न होते हैं।
जेएनयू का 9फरवरी2016 का मुद्दा राजनीतिक-डिजिटल है।राजनीतिक आयाम समझ में आ रहे हैं उन पर बहस भी हो रही है।लेकिन डिजिटल दुरूपयोग के आयाम खुलने बाकी हैं। जिस समय 9फरवरी की घटना घटी उसी दिन मौके पर पुलिस मौजूद थी,कोई वीडियोग्राफर भी था,लेकिन तत्काल किसी ने पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं की।पुलिस ने मौके पर रहते हुए किसी की गिरफ्तारी नहीं की,यहां तक कि बाद में भी पुलिस ने किसी के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं करायी।चूंकि घटना कैम्पस में हुई थी अतःइस घटना पर विश्वविद्यालय की एफआईआर दर्ज कराने की जिम्मेदारी बनती है लेकिन वि.वि. ने भी इस घटना पर पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं करायी,यही वह बिंदु है जहां से जेएनयू की 9फरवरी की घटना एक नियोजित सत्ता षडयंत्र प्रतीत होती है।जो भी शिकायतें या एफआईआर पुलिस में हुई हैं वे भाजपा के सांसद और एबीबीपी के जेएनयू नेताओं ने करायी हैं।जबकि तकनीकी तौर पर वे इसके लिए अधिकारी नहीं हैं। असल में ,डिजिटल मेनीपुलेशन के जरिए जेएनयू के छात्रों,वि.वि.समुदाय और शिक्षकों के साथ समूचे वि.वि. को बदनाम करने की कोशिश की गयी।जेएनयू के 5 छात्रनेताओं ,जिनमें छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार शामिल है,को राष्ट्रद्रोह के झूठे मुकदमे में फंसाया गया और कन्हैया को जेएनयू से गिरफ्तार किया गया,सारे कैम्पस में पुलिस ने छापे मारे,तलाशी ली।सबसे खतरनाक बात हुई कि 9फरवरी2016 की घटना के एक वीडियो का कई टीवी चैनलों ने जमकर दुरूपयोग किया और जबकि यह वीडियो मेनीपुलेशन से तैयार किया गया था।फेक वीडियो था।
इस समूचे प्रसंग ने राजनीतिक शत्रुता के लिए डिजिटल दुरूपयोग की नई मिसाल कायम की,इस तरह के डिजिटल मेनीपुलेशन की हरकतें मुजफ्फरनगर के दंगों के समय भी हुई हैं। राजनीतिक शत्रुता के लिए डिजिटल को औजार की तरह इस्तेमाल करने की इस तरह की हरकतों ने डिजिटल सचेतनता के सवालों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है।इस तरह की घटनाओं ने यह भी साफ कर दिया है कि आरएसएस डिजिटल मेनीपुलेशन में बादशाह है।
डिजिटल मेनीपुलेशन नए किस्म का खतरा है जो जमीनीस्तर पर कलह पैदा करता है। आजकल घटनाएं घट रही हैं लेकिन हम नहीं जानते कि क्या हो रहा है ॽक्यों हो रहा है ॽकौन लोग कर रहे हैं ॽघटना हो रही हैं लेकिन हम उसके ´तथ्य´और ´सत्य´को नहीं जानते।असलमें, हम सब राजनीति से दूरी बनाकर रखते हैं।राजनीतिक लक्ष्यों से भी दूरी बनाकर रखते हैं इसलिए नहीं जानते कि यह सब क्यों हो रहा है। साम्प्रदायिक- विभाजनकारी-आतंकी संगठनों से लेकर समर्थ भाजपा जैसा दल भी डिजिटल मेनीपुलेशन का जमकर इस्तेमाल कर रहा है। इसे ´´तकनीकी विभ्रमवाद´´कहे तो बेहतर होगा।इसका दायरा इराक,बोस्निया,अफगानिस्तान से लेकर जेएनयू तक के घटनाक्रम तक फैला हुआ है। इस दौर में जो हमले हो रहे हैं उनमें एक ओर से सत्ता हमलावर है तो दूसरी ओर हमलावर मीडिया है। लोकतांत्रिक हकों पर हमले को ´राष्ट्रसेवा´ या ´राष्ट्रवाद´कहा जा रहा है।अंधविश्वास के खिलाफ बोलने वालों पर बर्बर हमले किए जा रहे हैं।इन हमलों को वैचारिक ´श्रेष्ठत्व´कहा जा रहा है।जिन घटनाओं पर माफी मांगनी चाहिए उन पर नेतागण हेकड़ी और अहंकार से उनकी हिमायत में बोल रहे हैं।
आयरनी यह है सत्ता के हमलों को लोकतंत्र कहा जा रहा है,कानून के दुरूपयोग को न्यायपालन कहा जा रहा है।मीडिया और साइबर हमलों के जरिए सभी किस्म के कानूनों को मुक्ति दे दी गयी है।सभ्यता के मानकों को त्यागकर अधिकांश मीडिया ने आतंक का मार्ग ग्रहण कर लिया है। इसे साइबर डी-रेगूलेशन कह सकते हैं।जिसके आधार पर इराक से लेकर सीरिया तक स्वचालित मिसाइलों के हमले हो रहे हैं ,और कानूनभंग हो रहा है,´हमलावर´ को क्षमादान दे दिया गया है। ´हवाई ट्रांसपोर्ट ´और ´साइबर संचार´का पूरी तरह ´डी-रेगूलेशन´करके ग्लोबल पूंजीवाद ने नई परिस्थितियों को पैदा किया है। शांति स्थापना के नाम पर सेना और हथियारों के जरिए घेराबंदी और हमले,देश में शांति के नाम पर हिन्दुत्ववादियों के हमले,कुल मिलाकर त्रासद समय की सृष्टि कर रहे हैं।
पहले ´मतभेद´ होते थे तो उनको सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करते थे,लोग सुनते थे,लेकिन नयी संस्कृति है ´हमला करो´, ´हिंसा के जरिए´ ´कानूनी आतंक´के जरिए मुँह बंद करो। पहले राजनैतिक विवाद को जमीनी स्तर पर हल करने या जीत हासिल करने की कोशिश की जाती थी लेकिन इन दिनों विवाद को सत्ता के तंत्र के जरिए,बाहुबल के जरिए हल करने की कोशिशें हो रही हैं।पहले प्रतिवाद करने वाले का सम्मान करते थे,इन दिनों उसके खिलाफ घृणा प्रचार हो रहा है।जेएनयू की घटना इस फिनोमिना का आदर्श उदाहरण है। पहले प्रतिवाद का सम्मान करते थे, इन दिनों प्रतिवाद का अपमान करते हुए प्रतिवाद का प्रतिवाद करते हैं।इस बहाने प्रतिवाद से ही वंचित करने की कोशिशें हो रही हैं।इस हठकंडे का आरएसएस जमकर इस्तेमाल कर रहा है।अब खबरों को भी मैन्युफेक्चर किया जा रहा है,इनके आधार पर हिन्दूभारत के निर्माण की कोशिशें हो रही हैं।
इन दिनों ´विवादों´में राजसत्ता का हस्तक्षेप सबसे बड़ी चुनौती है।जेएनयू के मसले पर यह तत्व सबसे उग्र रूप में सामने आया है, राजनेताओं,केन्द्रीय मंत्रियों और पुलिसतंत्र के जरिए जिस तरह स्थानीय छोटी समस्या में मोदी सरकार ने हस्तक्षेप किया है वह अपने आपमें लक्षण है कि संघ किस तरह की राजनीति कर रहा है।संघ सीधे सत्ता के जरिए नाकेबंदी करके हस्तक्षेप कर रहा है,तथाकथित आम सहमति के नाम पर आतंक पैदा कर रहा है,अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित कर रहा है। इसके अलावा संघ के दबाव में लेखकों के कॉलम बंद कराए जा रहे हैं,किताबों की खरीद-फरोख्त में विचारधारा के आधार पर फैसले लिए जा रहे हैं।ये सब चुप कराने के तरीके हैं।
दिक्कत यह है कि अब हर चीज तेजगति से आ रही है। तेजगति से ही संघ के हमले हो रहे हैं। जो तेजगति के मंत्र जानता है वह तो इन हमलों से बच सकता है जो नहीं जानता वह इन हमलों में मर सकता है। विश्व परिप्रेक्ष्य में देखें तो मानवाधिकार बचाने के नाम पर युद्ध हो रहे हैं।लेखक,संस्थान और राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले हो रहे हैं।क्षेत्र,राष्ट्र-राज्य और मनुष्य की संप्रभुता खतरे में है।धर्मनिरपेक्षता और संविधान पर संविधान का नाम लेकर हमले किए जा रहे हैं।´हस्तक्षेप´को परम पुनीत कर्त्तव्य के रूप में पेश किया जा रहा है।जो लोग आरएसएस के खिलाफ हैं उनके खिलाफ सूचना युद्ध की घोषणा हो चुकी है।इस काम में कारपोरेट मीडिया और इंटरनेट का सुनियोजित ढ़ंग से इस्तेमाल हो रहा है।
हमें नए युग की प्रक्रियाओं को बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।खासकर ´कम्प्यूटर विवेकवाद´ के नजरिए से देखना चाहिए। ´कम्प्यूटर विवेकवाद´ के बहाने नए किस्म के विवेकवाद को आरोपित किया जा रहा है।यह वह विवेकवाद है जिसे कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग के जरिए थोपा जा रहा है।इसका आरंभ युद्ध में स्वचालित मिसाइलों के प्रयोग से हुआ।आज यह साइबर सत्ता का सबसे प्रभावशाली औजार है।इसका जनक है कम्प्यूटर इंजीनियरिंग,और भोक्ता है शासकवर्ग।इसके जरिए सुनियोजित ढ़ंग से कम्यूजनटर विवेकवाद को ´स्पेस´से लेकर दैनंदिन जीवन तक आरोपित किया जा रहा है।इसे ´साइबर हमलावर´ कहें तो अत्युक्ति न होगी।
´साइबर हमलावर´वे हैं जिनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं है।संविधान,कानून,संसद,समाज आदि किसी के प्रति ये लोग जबावदेह नहीं हैं।पॉल विरिलिओ के अनुसार यह ऐतिहासिक ´शिफ्ट´ है. पहले जो लोग हस्तक्षेप करते थे उनको आप जानते थे,उनकी भूमिका थी,दायित्व तय थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है,आज सारा कार्य-व्यापार ´वर्चुअल स्पेस ´ से संचालित है।वहीं से चीजें देखी जा रही हैं और वहीं से ´एक्शन´ तय हो रहे हैं। इस तरह के हस्तक्षेप के बारे में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है।आज सत्ता को परिभाषित करने के रूप बदल गए हैं।इनमें वर्चुअल स्पेस की बड़ी भूमिका है। ´वर्चुअल स्पेस´ के जरिए व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक सबकी संप्रभुता पर हमले किए जा रहे हैं।पहले राष्ट्र संरक्षक था ,लेकिन इन दिनों राष्ट्र हमलावर है।आजकल वर्चुअल स्पेस बहुत महत्वपूर्ण है ,इसे भौगोलिक क्षेत्रफल के पूरक के रूप में देखना चाहिए ।इसी तरह साइबर अभिव्यक्ति को अभिव्यक्ति के पूरक के रूप में देखना चाहिए।पहले हस्तक्षेप के जरिए बहस या संवाद करने में मदद मिलती थी, लेकिन अब हस्तक्षेप का मतलब है ´तर्कहीनता´ और ´अन्य´के स्पेस का खात्मा।अब ऐसा माहौल बना है जिसमें ´अन्य´ अप्रासंगिक है। हस्तक्षेप के नाम पर आवाज बंद की जा रही है।इससे समूचा समाज टेंशन में है।यही वो परिप्रेक्ष्य है जिसमें जेएनयू और रोहित वेमुला के आंदोलन को देखने की जरूरत है।
एक तरफ मीडिया नियंत्रण बढ़ा है,वहीं दूसरी ओर साइबर संसार के विकास के साथ ´साइबर लॉजिक बम´से हमले किए जा रहे हैं।इससे अराजकता बढ़ी है। असल में सारी चीजें ´ग्लोबल सूचना वर्चस्व´ के परिप्रेक्ष्य में विकसित हो रही हैं।इस सिस्टम की विशेषता है हर चीज को रीयल टाइम में खोजना,निशाना बनाना और वर्चुअल हमले करना। ´ग्लोबल सूचना वर्चस्व´ के तीन प्रमुख तत्व हैं,1.देश के ऊपर स्थायी उपग्रह प्रणाली की स्थापना,2.सूचना का रीयल टाइम में स्थानांतरण और प्रसारण,3.डाटा का तेजी के साथ विश्लेषण,खासकर विभिन्न चैनलों,माध्यमों आदि के जरिए आ रहे डाटा का तुरंत विश्लेषण ।
विरिलिओ कहते हैं यह असल में ´बिना दीवारों के किले´ का युग है।यह अंतरिक्ष श्रेष्ठता का युग है।जहां भी ’टकराव´ हो वहां अबाध हमले किए जाएं।साइबर स्मगलिंग पर जोर दिया जाए।पुराने संस्कारों, जिनमें धर्म भी आता है,उस पर कुछ न कहो।मसलन्, कोसोवो में बड़े पैमाने पर कब्रें खोज निकाली गयीं,उनकी सैटेलाइट इमेजों की वर्षा की गयी,लेकिन एबीसी टीवी चैनल ने एक भी कब्र नहीं दिखाई। पेंटागन से सैटेलाइट के जरिए यह दिखाया गया कि कोसोवो में पहाड़ों पर रहने वाले लोग पलायन कर रहे ये लोग ´जनसंहार´के डर से भाग रहे थे।जबकि बताया गया कि वे ´उत्पीडन´के कारण भाग रहे हैं। यह भी कहा गया कि अमेरिका का काम है ´अपराधी´खोजना। ठीक यही पद्धति जेएनयू के 9फरवरी के घटनाक्रम पर लागू की गयी।अचानक एक वीडियो ,फिर दूसरा और फिर तीसरा,चौथा.पांचवां वीडियो साइबर स्पेस में अवतरित होता है और जेएनयू पर हमले शुरू हो जाते हैं।किसी भी मीडिया घराने ने घटनास्थल पर जाकर सत्य जानने की कोशिश नहीं की,नारे लगाने वालों को कभी टीवी पर दिखाया नहीं, पुलिस घटनास्थल पर मौजूद थी लेकिन किसी भी नारे लगाने वाले को पकड़ा नहीं,यहां तक कि संघ के लोगों ने भी नहीं पकड़ा।साइबर से लेकर मीडिया तक जेएनयू पर जिस तरह का मीडिया हमला हुआ है वह टिपिकल ´मीडिया संहार´है,इसका लक्ष्य है जेएनयू को कलंकित करना,बदनाम करना,राष्ट्रविरोधी संस्थान बताना।संभवतःआजाद भारत में किसी वि.वि. पर इतना व्यापक हमला पहले कभी नहीं हुआ।यह हमला परंपरागत जासूसी,हमले,अफवाह आदि के हथकंडों से परे है। कम्प्यूटर की भाषा में यह ´ऑप्टिकल हमला´ है ,यह ऐसा हमला है जिसमें जेएनयू पर तो कड़ी निगरानी है ही,जेएनयू आंदोलन का समर्थन करने वालों पर भी निगरानी जारी है।इसके लिए ´पब्लिक ओपिनियन´पर भी निगरानी रखी जा रही है,उसको भी नियंत्रित किया जा रहा है। इसमें साइबर जासूसी से लेकर मीडिया जासूसी तक के हठकंडों का प्रयोग हुआ है। यह समूचा मॉडल ’टेली-सर्विलेंश´के नजरिए से संचालित है।इसके जरिए ही जेएनयू के बारे में आम जनता के नजरिए को प्रभावित किया जा रहा है,सामाजिक व्यवहार और आचरण को प्रभावित किया जा रहा है।
जेएनयू का 9फरवरी का आंदोलन मूलतः इमेजों के मानकों से लड़ा गया है।इमेज युद्ध में सूचनाओं के प्रवाह पर नजर रहती है,मोदी सरकार और संघ ने संगठित ढ़ंग से मीडिया से लेकर इंटरनेट तक फेक सूचनाओं के ´ फ्लो´ को बनाए रखा,उसे नियंत्रित किया।इससे बड़े पैमाने पर मीडिया प्रभावित भी हुआ। अधिकांश मीडिया घराने संघ के ´फ्लो´ में संप्रेषित सूचनाओं को ही परोस रहे हैं।इसे मीडिया का सर्वसत्तावादी हस्तक्षेप भी कह सकते हैं।इसके बहाने तर्क,प्रत्युत्तर सभी को अपदस्थ करने की कोशिश की गयी। इस हमले की विशेषता है- ´तुम सिद्ध करो कि तुमने नारे नहीं लगाए,तुम सिद्ध करो कि तुम झूठ नहीं बोल रहे,´ यानी निराधार आरोप लगाएंगे आरएसएस-पुलिस-मोदी सरकार के मंत्री ,वे आरोप के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं देंगे ,वे सिर्फ आरोप लगाएंगे ,आरोपों की अंधाधुंध वर्षा करेंगे,अब तुम जेएनयूवालो सिद्ध करो कि आरोप झूठे हैं,तुम प्रमाण दो।यह ´आरोप´ लगाने की अमेरिकी पद्धति है,इस पद्धति के आधार पर अफगानिस्तान,इराक,सीरिया आदि को तबाह किया जा चुका है।
फरवरी की घटना के बाद जेएनयू की जो इमेज वर्षा हुई है उसमें बार-बार एंकर से लेकर भाजपा-पुलिस-संघ के प्रवक्ता तक यही कह रहे थे कि ´जेएनयू में देशद्रोही नारे लगे हैं,जिन्होंने नारे लगाएं वे देशद्रोही हैं,´यही मूल आधारभूत वाक्य है जिसका करोड़ों बार प्रक्षेपण किया गया।इस पंक्ति के आधार पर समूचे मीडिया में हंगामा खड़ा किया गया।भ्रम पैदा किया गया। अंत में ,जेएनयू के छात्रनेताओं,जिनमें छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार सहित पांच नेताओं को ´राष्ट्रद्रोह´में भाजपा सांसद महेश गिरि की एफआईआर के आधार पर निशाने पर रखा गया,इन छात्रनेताओं की गिरफ्तारी वैध ठहराने के लिए ´जेएनयू में देशद्रोही नारे लगे हैं,जिन्होंने नारे लगाएं वे देशद्रोही हैं,´इस पंक्ति को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया गया।इसके इर्द-गिर्द मीडिया-साइबर प्रौपेगैण्डा निर्मित किया गया। यह विशुद्ध असत्य प्रचार अभियान था।इस प्रचार अभियान के जरिए जेएनयू के छात्रों से पूछा गया तुम नाम बताओ,उनको खोजकर लाओ, बताओ वे कौन थे,कहां रहते हैं,यदि नहीं बताओगे तो तुम जिम्मेदार हो।इसके पक्ष में माहौल बनाने के लिए आरएसएस ने वोटक्लव से लेकर राजघाट तक भगवा ब्रिगेड को सड़कों पर उतार दिया,इनमें असामाजिक तत्वों से लेकर कुछ सौ पूर्व सैनिक भी थे।इस तरह के जुलूसों के जरिए यह माहौल बनाने की कोशिश की गयी कि जेएनयू देशद्रोहियों की शरणस्थली है।यह टिपिकल फासिस्ट तरीकों से जेएनयू की घेराबंदी है। जिसका लक्ष्य है आम जनता को जेएनयू के छात्रों के खिलाफ खड़ा करना,इसमें संघ कुछ हद तक सफल रहा,लेकिन शिक्षित समुदाय के बड़े तबके को जेएनयू के छात्र अपने साथ लाने,मीडिया के अंश को अपने सत्य के करीब लाने में सफल रहे,यह लड़ाई अभी बंद नहीं हुई है इसलिए और भी चौकन्ने रहने की जरूरत है।
(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय कोलकाता में हिंदी के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रह चुके हैं।)