दिल के डॉक्टर के दिल की बात : समाज के समग्र विकास हेतु शक्ति का न्यायसंगत वितरण क्यों आवश्यक: एक विश्लेषण

प्रो. (डॉ.) ओम शंकर
किसी भी समाज के समुचित और समावेशी विकास के लिए यह अत्यावश्यक है कि राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्तियों का वितरण समतामूलक हो।
जब शक्ति सीमित वर्गों तक सिमट जाती है, तो शोषण, असमानता और असंतोष जन्म लेता है।
शक्ति के प्रमुख स्रोत:
1. राजनीतिक शक्ति – नीति निर्माण, प्रतिनिधित्व, प्रशासनिक निर्णय।
2. आर्थिक शक्ति – संसाधनों का स्वामित्व, उद्योग, उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण।
3. शैक्षणिक शक्ति – ज्ञान, योग्यता और वैचारिक उत्पादन की शक्ति।
4. सांस्कृतिक/धार्मिक शक्ति – परंपराओं और मूल्य व्यवस्था को नियंत्रित करने की क्षमता।
5. सूचना/मीडिया शक्ति – जनमत निर्माण, सूचना नियंत्रण।
शक्ति के प्रमुख स्रोतों का विस्तृत विवरण और महत्व:
1. राजनीतिक शक्ति (Political Power):
राजनीतिक शक्ति का तात्पर्य उन प्रक्रियाओं और संस्थाओं से है जिनके माध्यम से समाज की दिशा और निर्णय तय किए जाते हैं। इसमें शामिल हैं:
नीति निर्माण: देश या राज्य के विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, श्रम आदि के क्षेत्र में बनने वाली सभी नीतियाँ।
प्रतिनिधित्व: संसद, विधानसभा, नगर निगम, ग्राम पंचायत जैसे संस्थानों में जनता का प्रतिनिधित्व किस वर्ग, जाति, धर्म या लिंग से होता है, यह सत्ता संतुलन को दर्शाता है।
प्रशासनिक निर्णय: ब्यूरोक्रेसी (IAS, IPS, IFS, आदि) और राजनीतिक नेतृत्व प्रशासनिक निर्णयों के ज़रिए यह तय करते हैं कि किस क्षेत्र में विकास होगा, किसे कितना बजट मिलेगा, किन पर कार्यवाही होगी इत्यादि।
महत्व: यदि राजनीतिक शक्ति कुछ विशेष जातियों/समुदायों तक सीमित रहे, तो लोकतंत्र केवल नाम मात्र का रह जाता है।
2. आर्थिक शक्ति (Economic Power):
आर्थिक शक्ति वह क्षमता है जो संसाधनों पर नियंत्रण, धन के संचार और उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से आती है।
संसाधनों का स्वामित्व: भूमि, जल, खनिज, जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार।
उद्योग और व्यापार: उत्पादन और वितरण के माध्यमों (उद्योग, बैंक, बाजार) पर नियंत्रण।
निवेश और पूंजी: किसी भी क्षेत्र में निवेश करने और धन प्रवाह को नियंत्रित करने की शक्ति।
महत्व: जिनके पास आर्थिक शक्ति होती है, वही शिक्षा, स्वास्थ्य, मीडिया और राजनीति पर भी अप्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं।
3. शैक्षणिक शक्ति (Educational Power):
शिक्षा केवल जानकारी देने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह वैचारिक नेतृत्व और सामाजिक परिवर्तन का आधार है।
ज्ञान का स्वामित्व: विश्वविद्यालयों, अनुसंधान संस्थानों में कौन पढ़ा रहा है, कौन पढ़ रहा है और क्या पढ़ाया जा रहा है।
वैचारिक उत्पादन: कौन-सी सोच समाज में प्रचारित की जा रही है — उदारवादी, रूढ़िवादी, ब्राह्मणवादी, या वैज्ञानिक-तथ्यपरक।
शिक्षा तक पहुँच: कौन शिक्षा प्राप्त कर पा रहा है, और किसे हाशिए पर रखा गया है।
महत्व: शिक्षा वह शक्ति है जो समाज में विचार निर्माण और नेतृत्व तय करती है। यदि यह शक्ति सीमित समुदाय के पास हो, तो शेष समाज की चेतना अवरुद्ध हो जाती है।
4. सांस्कृतिक/धार्मिक शक्ति (Cultural/Religious Power):
यह शक्ति समाज की मानसिकता और जीवनशैली को नियंत्रित करने की क्षमता से जुड़ी होती है।
परंपराओं की व्याख्या: कौन यह तय करता है कि कौन-सी प्रथा पवित्र है और कौन-सी अपवित्र?
धार्मिक अधिकार: मंदिरों, आश्रमों, तीर्थों, और धर्मशास्त्रों पर नियंत्रण।
सांस्कृतिक वर्चस्व: किसकी भाषा, भोजन, परिधान, त्योहार, साहित्य को "मुख्यधारा" माना जाता है?
महत्व: सांस्कृतिक सत्ता विचारधारा और नैतिकता तय करती है। यह सत्ता यदि कुछ जातियों तक सीमित हो, तो वह अन्य समुदायों को हीन, अशुद्ध या अवांछनीय घोषित कर सकती है।
5. सूचना/मीडिया शक्ति (Information/Media Power):
सूचना और मीडिया शक्ति समाज को किस दृष्टिकोण से सोचने के लिए प्रेरित करती है।
मीडिया हाउस का स्वामित्व: कौन समाचार प्रसारित कर रहा है? कौन विज्ञापन तय कर रहा है?
जनमत निर्माण: कौन-से मुद्दे उठाए जाते हैं और कौन से दबा दिए जाते हैं।
डिजिटल माध्यम: सोशल मीडिया, यूट्यूब, पोडकास्ट आदि पर किसका प्रभाव है?
महत्व: सूचना की शक्ति यदि कुछ हाथों में सिमट जाए, तो समाज को भ्रमित कर लोकतंत्र को कमजोर किया जा सकता है।
भारत में शक्ति के एकाधिकार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
नेशनल डेटा शेयरिंग एंड एक्सेसिबिलिटी पॉलिसी (NDSAP) के तहत सामाजिक प्रतिनिधित्व पर प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि:
भारतीय न्यायपालिका में 80% से अधिक जज ऊँची जातियों से आते हैं।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों का 90% हिस्सा ऊँची जातियों से है।
संसद में 65% ओबीसी की जनसंख्या के अनुपात के मुकाबले प्रतिनिधित्व 25% से कम है।
कॉरपोरेट सेक्टर में 99% CEO ब्राह्मण या बनिया समुदाय से आते हैं। (स्रोत: Oxfam, 2022)
संवैधानिक संरक्षण:
1. अनुच्छेद 14 – सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार।
2. अनुच्छेद 15(4) – राज्य को पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करने की शक्ति।
3. अनुच्छेद 16(4) – सेवाओं में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने हेतु आरक्षण का प्रावधान।
4. अनुच्छेद 38(2) – राज्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को बढ़ावा देगा और विभिन्न समूहों के बीच असमानताओं को घटाएगा।
5. अनुच्छेद 340 – पिछड़े वर्गों की स्थिति की जांच और सुधार हेतु आयोग गठित करने की शक्ति।
वर्तमान चुनौतियां:
शक्ति का उच्च जातीय और वर्ग आधारित केंद्रीकरण।
सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक विषमता के चलते निचले तबकों का नीति निर्धारण से बहिष्करण।
लोकतंत्र का "प्रतिनिधिकरणात्मक चरित्र" कमजोर होना।
कमजोर वर्गों का उच्च वर्गीय ऐतिहासिक शोषण और नीतिगत समाधान:
1. जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व – न्यायपालिका, शिक्षा, नौकरियों और संसद में।
2. जाति-आधारित सामाजिक ऑडिट प्रणाली – सभी संस्थानों में सामाजिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण।
3. समाज में शक्ति का हॉरिजॉन्टल (क्षैतिज) वितरण – महिला, आदिवासी, दलित, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निर्णायक मंचों पर प्रतिनिधित्व।
4. अनिवार्य सामाजिक विविधता कानून (Social Diversity Mandate) – सभी सार्वजनिक संस्थानों में न्यूनतम सामाजिक समावेश अनिवार्य।
5. सांस्कृतिक समावेशन नीति – पाठ्यक्रम, मीडिया और त्योहारों में कमजोर वर्गों की परंपराओं को स्थान।
अंत में मैं यही कहूंगा कि उच्च वर्गों द्वारा शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार ने भारत में असमानता को जन्म दिया है। संविधान के मूल मूल्य – न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व – तभी फलीभूत होंगे जब शक्ति का वितरण समतामूलक होगा। सामाजिक न्याय केवल आरक्षण तक सीमित न रहे, बल्कि निर्णय की प्रत्येक इकाई में सहभागिता तक पहुँचे।
(लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में हृदय रोग में प्रोफेसर हैं तथा विभागाध्यक्ष भी रह चुके हैं।)
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