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विचार : जिनके बाप-दादा जाति के नाम पर घृणा का व्यापार करते थे और अब उनके वंशज धर्म के नाम पर वही कर रहे

-दुर्गेश कुमार

धर्मनिरपेक्षता के आधार पर एक होने की दुहाई देने वाले और धर्म विशेष के नाम पर दुहाई देने वाले समूहों के एक धड़े के बीच समानता यह है कि ये कभी जाति के नाम पर विभेद को गलत नहीं ठहराते और न ही उसके विरोध में आवाज उठाते हैं।

ये कौन लोग हैं जिनके बाप-दादा जाति के नाम पर घृणा का व्यापार करते थे और अब उनके वंशज धर्म के नाम पर घृणा का कारोबार कर रहे हैं?

ये कौन लोग हैं जो धर्म विशेष के मुद्दे पर सिर आसमान पर उठा लेते हैं, लेकिन जाति विशेष के उत्पीड़न पर आह तक नहीं करते?

धर्म और जाति का कारोबार बहुत बड़ा है। जब धर्म के धंधे का रंग चटकता है, तो ये धर्म के धंधे में उतर जाते हैं। जब जाति के कारोबार के दिन बहुरते हैं, तब ये उसमें भी दखल दे देंगे।

सवाल चाहे जाति का हो या धर्म का, विमर्शकारों को सच बोलना चाहिए। शासक वर्ग सच का दामन छोड़ कर चापलूसी करते हुए हमेशा ही इन दोनों धंधों में अपनी दुकान जमाता रहा है। मुगल, ब्रिटिश और मौजूदा भारतीय शासन प्रणाली में भारत का विमर्श तय करने वाले लोगों के बाप-दादा भी इन्हीं धंधों में शामिल रहे हैं।

जब मन हुआ धर्म के नाम पर घृणा फैलाओ, जब मन हुआ जाति के नाम पर घृणा फैलाओ। इससे हासिल क्या होता है? यह आम लोगों को समझना चाहिए। सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद भले ही शूद्रों की स्थिति में काफी सुधार हुआ हो, लेकिन उनका आर्थिक मामले में किसी भी जाति का सामाजिक क्रम नहीं बदला है।

लिहाजा धर्म और जाति के विमर्श के बीच समय निकाल कर जब 'क्लास' की बात होगी, तभी सार्थक परिवर्तन संभव होगा। क्योंकि हर जाति के बीच हर युग में नया वर्ग उत्पन्न लेता है। सारे राजपूत रजवाड़े नहीं थे, सैनिक और किसान भी थे। इसी तरह सारे ब्राह्मण मठाधीश नहीं हैं, कामगार भी हैं।

सारे ओबीसी किसान पशुपालक और कामगार ही नहीं हैं, अब कुछ व्यापारी और जमींदार भी हैं। इनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है। लेकिन अब इतनी है कि ये चाहे तो अपना विमर्श तय कर सकते हैं। लेकिन ये जोखिम उठाना नहीं चाहते हैं। ये शासक वर्ग की तरह शातिर नहीं हो पाते हैं। शायद इसलिए जाति का विमर्श जरूरी हो जाता है। लेकिन जाति के नाम पर अधिकार की बात और घृणा की बात, दोनों में फर्क है।

जब हम राजपूत रजवाड़ों की बात करते हैं; बनिया वर्चस्व की बात करते हैं तो किसान राजपूत और पंसारी की दुकान चलाने वाले तेली का उससे कोई लगाव नहीं होता है। लेकिन शासक वर्ग ने गर्व करने के लिए ऐसा माहौल बना दिया है कि उसके विमर्श में ये आम लोग भी प्रभावित हो कर भावुक हो जाते हैं।

मुकेश अंबानी और मुकेश तेली में जमीन आसमान का अंतर है। ललित मोदी और रणविजय साहू में बेहिसाब फर्क है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और ज्योति कुर्मी में फर्क है। सिंधिया के खानदान का प्रिंसली स्टेट छिन लिए जाने पर किसी किसान परिवार को आहत होना मूर्खता है। ग्वालियर के सिंधिया, नेपाल के राणा और आदिवासी क्षेत्र रामगढ़ के राज परिवार की नस्लें अलग है, लेकिन सब जातियों से कट कर वर्ग के अनुसार रिश्ते किए। फिर चितौड़ के राजपूत, मध्य प्रदेश के कुर्मी या झारखंड के किसी आदिवासी को इनके लिए क्यों आहत होना चाहिए?

इस देश में मुगल या मुस्लिम शासन में अशराफ, राजपूत रजवाड़े और कायस्थ शासक वर्ग थे। कुछ किसान और पशुपालक वर्ग के भी रजवाड़े थे। उसी तरह ब्रिटिश काल में भी अशराफ, राजपूत रजवाड़े और कायस्थ ही शासक वर्ग रहे। स्वशासन में इनकी जगह ब्राह्मणों ने ली; राजपूत और कायस्थ भी रहे, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें हाशिए पर रखते हुए अगड़े बनियों ने अपना स्थान बना लिया।

दलित, आदिवासी और पिछड़े भले ही अपने सांसद, विधायक और मुख्यमंत्री बनाने में सफल रहे हों, लेकिन वे खुद को भारत के शासक वर्ग के रूप में स्थापित करने में असफल रहे हैं। इनकी चेतना किस दिशा में जाएगी, यह आज भी अगड़े बनियों और ब्राह्मणों के विमर्श से तय होता है।

कायदे से देखें तो अब ब्राह्मणों का वर्चस्व भी कम होता जा रहा है। उन्हें चुनौती अगड़े बनियों ने दी है। अधिकांश चैनलों और अखबारों के मालिक अगड़े बनिया हैं, और उनके करिंदे ब्राह्मण हैं। आप तय कर सकते हैं कि मौजूदा समय में सबसे बड़ा शासक वर्ग कौन है?

अब वही होगा जो अगड़े बनिया चाहेंगे! धर्म के नाम पर घृणा फैलाना और उसकी फसल काटना — यह सब अगड़े बनिया तय कर रहे हैं।

धर्मनिरपेक्षता के आधार पर एक होने की दुहाई देने वाले और धर्म विशेष के नाम पर दुहाई देने वाले समूहों को भी यही नियंत्रित कर रहे हैं और करेंगे। लेकिन ऐसा होने से आर्थिक ढांचे में न तो राजपूत का उत्थान होगा न दलित का और न किसान और पशुपालक का। विगत तीन दशक में सिर्फ जिस एक वर्ग का आर्थिक उत्थान बेहिसाब हुआ है, वह बनिया वर्ग है।

पिछड़ों और दलितों को जंतर-मंतर घुमा कर देश के संसाधनों की लूट के इस खेल में दोनों समूहों का साथ है। अगर आप उनके इस खेल से बाहर नहीं निकले, तो आपकी आने वाली नस्लें भी महज तमाशबीन बनकर रह जाएंगी।

(लेखक सामाजिक चिंतक हैं।)