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राजनीति : ...तो क्या पीएम के रूप में नरेंद्र मोदी के दिन पूरे होने वाले हैं?

Sachchi Baten Sun, Apr 27, 2025

So are Narendra Modi's days as PM coming to an end?

राजेश पटेल

बात बहुत घुमा-फिरा कर मुझे करनी आती नहीं। सीधे-सीधे शब्दों में कहने-लिखने में अच्छा लगता है। तो बात यह है कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के दिन पूरे होने वाले हैं। हालांकि इसकी फुसफुसाहट काफी पहले से चल रही थी। कान के पीछे हाथ सटाकर सुनने से सुनाई भी देती थी। अब, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इशारों इशारों में ही इस पर पुख्ता मुहर लगा दी।

देश में अल्पमत की सरकारों का जो हश्र हुआ है, किसी से छिपा नहीं है। चाहे चौधरी चरण सिंह रहे हों, विश्वनाथ प्रताप सिंह, एचडी देवेगौड़ा, या चंद्रशेखर। दो बार अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार भी अल्पमत के कारण गिरी। अटल जी ने तीसरी बार गठबंधन सरकार को पूरे पांच साल चलाने में कामयाबी हासिल की। नरसिंहा राव तथा डॉ. मनमोहन सिंह इसमें अपवाद हैं। नरसिम्हा राव ने तो कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत न मिलने के बावजूद पूरे पांच साल अपनी सरकार चलाई। इस दौरान नरसिम्हा राव सरकार पर सांसदों को खरीदने के आरोप लगा। झामुमो के सांसद रहे शिबू सोरेन, शैलेंद्र महतो को इसी मामले में जेल भी जाना पड़ा था।

डॉ. मनमोहन सिंह ने तो अपनी सरकार का पहला कार्यकाल ठीक से निभा लिया, लेकिन दूसरे में इनको भी फजीहत झेलनी पड़ी थी। मुलायम सिंह यादव इनकी सरकार के लिए संकटमोचक बनकर आये। वामपंथियों ने जब समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सिंह यादव ने समर्थन देकर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार बचा ली।

इस देश में पहली बार इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में तब आई थी, जब साल 1967 में दोबारा प्रधानमंत्री बनीं, लेकिन कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं के सिंडिकेट से दबाव से मुक्त होना चाहती थीं। दोनों के बीच तालमेल बिगड़ चुका था। राष्ट्रपति चुनाव में यह साफ दिख चुका था। इंदिरा के विरोध के बाद भी कांग्रेस ने संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार बनाया, लेकिन इंदिरा ने निर्दलीय वीवी गिरि को समर्थन दिया। गिरी चुनाव जीत भी गए। फिर हालात इतने बिगड़े कि इंदिरा गांधी को उनकी ही पार्टी से निकाल दिया गया। इसी के साथ कांग्रेस पार्टी का औपचारिक बंटवारा हो गया। लेकिन इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रहीं।

वह सरकार गिराने की कोशिश करने वालों को धमकाती रहती थीं कि लोकसभा को भंग करने की सिफारिश कर देंगी। उनको अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार चाहिए थी, संयोग से 1971 में पाकिस्तान से युद्ध हो गया। इसी युद्ध में पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना था। इस जीत के लिए चारो तरफ इंदिरा की जय-जयकार हो रही थी। लोग उनको आयरन लेडी तक कहने लगे थे। उन्होंने इसे ही चुनाव का उचित मौका समझा और एक साल पहले ही चुनाव की सिफारिश कर दी। जो चुनाव 1972 में होना था, 1971 में ही हो गया। इतना कहने का मतलब यह रहा कि इंदिरा की भी अल्पमत की सरकार पांच साल तक नहीं चली।

आते हैं मुद्दे पर। मोदी-शाह की जोड़ी किसी कीमत पर कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं है। मोदी को यदि भाजपा का दूसरा प्रधानमंत्री चुनने के लिए कहा जाएगा तो जो स्थिति दिखाई दे रही है, उसके अनुसार वह लोकसभा को भंग करने की सिफारिश को ही प्राथमिकता देंगे। अपने अग्रेसिव स्वभाव के मुताबिक वह मध्यावधि चुनाव ही कराना उचित समझेंगे। किसी दूसरे बीजेपी नेता के लिए अपनी कुर्सी आसानी से नहीं छोड़ने वाले हैं।

इसमें बीजेपी अध्यक्ष का चुनाव बड़ा कारण बन रहा है। संघ किसी कीमत पर मोदी-शाह की पसंद का बीजेपी अध्यक्ष नहीं चाह रहा है। मोदी-शाह की जोड़ी बीजेपी अध्यक्ष के लिए संघ द्वारा सुझाए गए नामों पर सहमत नहीं है। टकराव जारी है। संघ की पहली पसंद संजय जोशी, दूसरी पसंद वसुंधरा, दोनों मे अगर नहीं तो गडकरी अध्यक्ष और जोशी महासचिव का फार्मूला संघ ने दिया। लेकिन मोदी-शाह इसे मानने को तैयार नहीं हैं।

संघ कभी नहीं चाहेगा कि मोदी-शाह की पसंद का ही व्यक्ति भाजपा का फिर अध्यक्ष बने और संघ का नियंत्रण ही समाप्त हो जाए। इसका लेकर रस्साकसी काफी दिनों से चल रही है। अध्यक्ष के चुनाव में देर का कारण भी यही है। लेकिन, शनिवार 26 अप्रैल को मोहन भागवत ने दिल्ली में अपने मन की बात मोदी-शाह को सुना ही दी। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले को लेकर भागवत ने दिल्ली में एक किताब विमोचन के अवसर पर कहा कि राजा का काम प्रजा की रक्षा करना है। प्रधानमंत्री बनने के पहले गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में गोधरा कांड हुआ था तो उस समय क प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी मोदी को राजधर्म की याद दिलाई थी।

पहलगाम नरसंहार ने कोढ़ में खाज़ का काम किया। मोदी- शाह की स्थिति बहुत दयनीय हो गयी है। लेकिन मोदी किसी भी कीमत पर कुर्सी छोड़ना नहीं चाहते हैं। बस मध्यावधि चुनाव ही विकल्प रह गया है... बहुत जल्दी ही स्थिति साफ होगी...संघ और पार्टी दोनों ने साथ छोड़ दिया है।

मोदी सरकार अल्पमत में है ही। नीतीश और नायडू जिस दिन सहारा खींच लें, गिरना तय है। ऐसी स्थिति देखना है कि संघ का दबाव ज्यादा बढ़ने पर मोदी-शाह की जोड़ी क्या कदम उठाती है। दूसरे पीएम को मजबूरी में स्वीकार करती है या देश पर मध्यावधि चुनाव का बोझ डालती है। वैसे दूसरा वाला ऑप्शन अपनाने की ज्यादा संभावना है, क्योंकि 2019 के चुनाव वाला माहौल पूरे देश में बनाने की कोशिश की जा रही है। उस समय पुलवामा हमला की सीढ़ी बनाया गया सत्ता तक पहुंचने के लिए, इस बार पहलगाम हो गया। इसी को बहाना बनाकर पूर्ण बहुमत की सरकार बन जाए तो सारी झंझट खत्म। इसकी झलक भी दिखाई दी। घटना के बाद जिस फुर्ती से नरेंद्र मोदी सऊदी अरब की यात्रा बीच में छोड़कर आए, और न कश्मीर जाना, मृतकों के घर और न घायलों से मिलना। और तो और इसके लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक को दरकिनार कर बिहार में जनसभा को संबोधित करने के लिए चले जाने का संकेत क्या है? समझ सकें तो समझें।