विचार : "सनातन धर्म" का मिथक- एक ऐतिहासिक, दार्शनिक और विचारात्मक आलोचनात्मक अध्ययन

प्रो. (डॉ.) ओम शंकर, विभागाध्यक्ष (पूर्व), हृदय रोग विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी
आज के भारत में "सनातन धर्म" को एक दिव्य, अनादि और अपरिवर्तनीय सत्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसे ऐसा घोषित किया जाता है कि यह धर्म सृष्टि के आरंभ से चला आ रहा है और कभी समाप्त नहीं होगा। जबकि वास्तविकता यह है कि पृथ्वी अपने जन्म के समय एक आग का गोला था, जहां जीवन का कोई आधार नहीं था। आधुनिक मानव के पूर्वज लगभग 3 लाख वर्ष पहले पैदा लिए जिनके पास आज का कोई धर्म नहीं था। तथाकथित ब्राह्मण धर्म का इस देश में आगमन ईसा से लगभग 1500 ईस्वी ईसा पूर्व में आर्यों के आगमन के साथ हुआ।
"सनातन धर्म" शब्द ब्राह्मण धर्म का नव-पुनर्निर्माण है, जिसे 19वीं सदी में आर्य समाज, ब्रह्म समाज जैसे सुधार आंदोलनों के विरोध में उभारा गया।, जबकि "हिंदू धर्म" की अवधारणा तो अंग्रेजों की देना है।
जिसे धर्म को आज दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा सनातन अथवा हिन्दू धर्म के नाम से प्रचारित किया जा रहा है, उसका मूल नाम वास्तव में "ब्राह्मण धर्म" है, (क्योंकि इसकी ठेकेदारी उन्हीं वर्ग के पास है) जिसे वो समय के साथ सत्ता, शास्त्र, और संस्कृति के गठजोड़ से स्वयं लाभ के लिए सार्वभौमिक और शाश्वत (सनातन) घोषित करता रहता है।
मतलब आज का तथाकथित सनातन/हिंदू/ब्राह्मण धर्म जैसी कोई भी चीज इससे पहले इस देश/भूखण्ड पर मौजूद नहीं था, फिर इसके सनातन होने का कोई प्रश्न हीं नहीं उठता।
धार्मिक, दार्शनिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह केवल एक मानवनिर्मित धारणा है, जिसकी उत्पत्ति अंग्रेजों के शासन काल में हुई, और जिसका उद्देश्य ब्राह्मण वर्ग द्वारा अपनी धार्मिक सत्ता स्थापित कर खुद को जन्मजात श्रेष्ठ और असीमित शक्तिशाली बनाना था, जिसे आज "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" के मिथक के रूप में जानते हैं।
"सनातन धर्म" शब्द का विवेचन:
"सनातन" का शाब्दिक अर्थ है — जो सदा से हो और सदा तक रहे।
परंतु अगर कोई व्यवस्था मानव द्वारा निर्मित है, तो उसे स्थायी कैसे ठहराया जा सकता है?
जब मानव स्वयं हीं नश्वर है— तो उसकी रचना भी समय के साथ परिवर्तनशील रहेगी।
"धर्म" का स्वरूप युग, परिस्थिति, मानवीय चेतना और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार बदलता रहा है। अतः किसी भी धर्म को "सनातन" कहकर जड़ता में बंद कर देना एक सांस्कृतिक मिथक है।
ब्राह्मणिक सत्ता और "सनातन" का राजनीतिक प्रयोग:
इतिहास के पन्नों से स्पष्ट है कि जिस सामाजिक व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था, स्त्री एवं शूद्रों के प्रति भेदभाव और जातिगत श्रेष्ठता का प्रावधान है, वही ब्राह्मणवादी सत्ता से उत्पन्न हुई है।
इसे कालांतर में "सनातन धर्म" का नाम देकर ब्राह्मण वर्ग द्वारा अपरिवर्तनीय दिखाया गया है, ताकि उनको जन्मजात तौर पर, बिना किसी योग्यता के, विशेष सामाजिक और राजनीतिक अधिकार स्थाई तौर पर प्राप्त रहे और वो जन्मजात श्रेष्ठ बने रहें।
भगवान कृष्ण के उपदेश भी हमें यह संदेश देते हैं कि धर्म का वास्तविक स्वरूप कर्म, न्याय और व्यक्तिगत कर्तव्य पर आधारित है—न कि किसी स्थायी, अपरिवर्तनीय परंपरा पर।
उनका स्पष्ट संकेत है कि "परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है"।
जो चीजें स्थिर दिखाई देती हैं, वे मृत्यु के समीप होती हैं; और जो बदलती हैं, वही जीवित रहती हैं।
वे धर्म को किसी जातीय या पुरातन परंपरा के रूप में न देखकर, बल्कि व्यक्तिगत चेतना, नैतिक कर्तव्य और न्याय के आधार पर परिभाषित करते हैं।
यह विचार इस ओर भी संकेत करता है कि जब भी अन्याय की स्थिति उत्पन्न होती है, कृष्ण (उद्धारक) किसी नए रूप में प्रकट होते हैं—जो यह दर्शाता है कि धर्म समय-सापेक्ष है, नश्वर है और जो किसी भी रूप में सनातन रह हीं नहीं सकता।
गीता के संदर्भ में "सनातन धर्म" का खंडन:
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने कहीं भी "सनातन धर्म" शब्द का उपयोग किसी धार्मिक व्यवस्था के लिए नहीं किया है। वे बार-बार "स्वधर्म", "कर्तव्य" और "कर्म" की बात करते हैं।
> गीता 2.47 – "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"
(तुझे कर्म करने का ही अधिकार है, फल पर नहीं।)
यहाँ धर्म का अर्थ किसी जातीय या धार्मिक व्यवस्था से नहीं, बल्कि कर्तव्य पर आधारित नैतिकता से है।
> गीता 3.35 – "श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।"
(अपना दोषयुक्त धर्म भी दूसरे के श्रेष्ठ धर्म से बेहतर है।)
यहां भी धर्म व्यक्तिगत जिम्मेदारी है, न कि कोई शाश्वत संहिताबद्ध परंपरा।
> गीता 4.7–8 – "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत..."
(जब-जब धर्म की हानि होती है, मैं अवतार लेता हूँ।)
यदि धर्म सनातन होता, तो उसमें ग्लानि की संभावना ही नहीं होती।
इस श्लोक से भी स्पष्ट है कि धर्म समयानुकूल बदलता है, और उसकी रक्षा हेतु नये मार्गदर्शकों की आवश्यकता होती है।
गीता सार से निम्न उल्लिखित पंक्तियों को पढ़ें और समझें कि वो क्या कह रहा है—
"तुम क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया ?
तुमने क्या पैदा किया, जो नष्ट हो गया ?
तुमने जो लिया, यहीं से लिया जो दिया, यहीं पर दिया जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, कल किसी और का होगा"
ये उपदेश भी तो यही दर्शाती हैं कि संसार में किसी भी वस्तु या व्यवस्था का स्थायित्व नहीं होता, और इसी परिवर्तनशीलता का स्वीकार करना ही जीवन का सार है।
वैदिक काल में यज्ञ और देवताओं की पूजा प्रमुख थी, जो एक विशेष सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकता के अनुसार ब्राह्मणों द्वारा विकसित की गई।
बाद में मूर्तिपूजा, भक्ति परंपराएँ और अवतारवाद जैसी विविध विधाएँ उत्पन्न हुईं, वो भी समय और परिस्थितियों के साथ विकसित हुईं।
विभिन्न युगों में उत्पन्न बौद्ध, जैन, सिख, लिंगायत, ईसाई, इस्लाम जैसी उत्पन धाराएँ भी स्पष्ट रूप से इस बात का प्रमाण हैं कि कोई भी धर्म कभी स्थिर नहीं रहता, बल्कि सामाजिक चेतना के बदलते स्वरूप से प्रभावित होकर निरंतर परिवर्तनशील रहता है।
बौद्ध, जैन, सिख, लिंगायत धर्मों ने ब्राह्मण धर्म की श्रेष्ठता को चुनौती दी और नये धार्मिक मार्ग प्रदान किए। यदि "ब्राह्मण धर्म"(क्योंकि इस धर्म की ठेकेदारी उन्हीं के पास है) सनातन होता, तो दूसरे धर्म कभी अस्तित्व में हीं नहीं आते।
वैसे भी जिस व्यवस्था में स्त्रियों को शिक्षा और संपत्ति का अधिकार नहीं, शूद्रों को वेद पढ़ने से वंचित रखा जाता है, जातिगत श्रेष्ठता और जन्म आधारित श्रेणीबद्धता को मान्यता दी जाती है,
उसे किस प्रकार "सनातन" या सार्वभौमिक ठहराया जा सकता है?
यह व्यवस्था केवल सत्ता-केन्द्रित कुलीन समूहों के हितों की पूर्ति के लिए निर्मित की गई है, न कि सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए।
"सनातन धर्म" की अवधारणा न तो ऐतिहासिक रूप से सत्य है, न दार्शनिक रूप से टिकाऊ, और न नैतिक दृष्टिकोण से न्यायसंगत।
"सनातन" कहलाने का दावा ब्राह्मण धर्म को सार्वभौमिक बनाने की साजिश है, जिससे अन्य धर्मों, विचारों और जातियों को नीचा दिखाया जा सके।
यह एक राजनीतिक हथकंडा है, जिससे ब्राह्मणिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित किया जाता है।
यह केवल एक सत्ता-रक्षा की विचारधारा है, जिसका उद्देश्य समाज के बहुसंख्यक वर्गों—विशेषकर स्त्रियों, शूद्रों, पिछड़ों और आदिवासियों—के शोषण को वैधता प्रदान करना है।
भगवान कृष्ण के उपदेश हमें याद दिलाते हैं कि परिवर्तन ही जीवन का सार है। धर्म वही है जो समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुरूप अपने स्वरूप में बदलाव को अपनाए। अतः किसी भी व्यवस्था को "सनातन" कहकर जड़ता में नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे विवेक, तर्क, और न्याय के अनुसार पुनर्परिभाषित करना चाहिए।
"सनातन/हिंदू धर्म" वास्तव में "ब्राह्मण धर्म" का नया नाम है – जिसे जाति, वर्ण, लिंग भेद पर आधारित एक प्रभुत्वशाली राजनीतिक ढांचा बनाने के लिए प्रचारित किया जा रहा है।
यह लेख "सनातन धर्म" की अवधारणा के खिलाफ एक ठोस तर्क प्रस्तुत करता है, जो न केवल ऐतिहासिक और दार्शनिक आधार पर, बल्कि कृष्ण के संदेश एवं संसार की परिवर्तनशील प्रकृति के प्रमाण के आधार पर भी इसे खंडित करता है।
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