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: कर्पूरी ठाकुर: अपमान का घूंट पीकर बदलाव की इबारत लिखने वाला नायक

  -जयंत जिज्ञासु पिछड़ों-दबे-कुचलों के मसीहा और दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर का आज 101वां जन्मदिवस है. आज़ादी की लड़ाई में वे 26 महीने जेल में रहे, फिर आपातकाल के दौरान रामविलास पासवान और रामजीवन सिंह के साथ नेपाल में रहे. 1952 में बिहार विधानसभा के सदस्य बने. शोषितों को चेतनाशील बनाने के लिए वो अक़्सर अपने भाषण में एक कविता कहते थे–
अब रैन कहां जो सोवत है.
बिहार में 1978 में हाशिये पर धकेल दिये वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने पर उन्हें क्या-क्या न कहा गया, मां-बहन-बेटी-बहू की भद्दी गालियों से नवाज़ा गया. सवर्ण प्रभुत्व वाले राजनीतिक वर्ग के लोग उन पर तंज कसते हुए कहते थे–
कर कर्पूरी, कर पूरा छोड़ गद्दी, धर उस्तुरा.
ये आरक्षण कहां से आई कर्पूरिया की माई बियाई.
MA-BA पास करेंगे कर्पूरिया को बांस करेंगे.
दिल्ली से चमड़ा भेजा संदेश कर्पूरी बार (केश) बनावे भैंस चरावे रामनरेश.
यहां उस तथ्य को जान लेना जरूरी है कि कर्पूरी जिस दौर में राजनीति कर रहे थे, उन पर मीडिया निर्मित किसी जंगलराज के संस्थापक होने का भी आरोप नहीं था, न ही उनकी किसी घोटाले में संलिप्तता का मामला आया, इसके बावजूद उनके साथ अपमानजनक बर्ताव किया गया.
इसकी समाजिक जड़ें तलाशना जरूरी है. आख़िर कहां से यह नफ़रत और वैमनस्य आती है? आज़ादी के 70 बरस बीत जाने और संविधान लागू होने के 68 बरस के बाद भी मानसिकता में अगर तब्दीली नहीं आई, तो इस पाखंड से भरे समाज वाले मुल्क को अखंड कहके गर्वोन्मत होने का न तो कोई मतलब है, न कोई अधिकार.
अपने निधन से ठीक तीन महीने पहले लोकदल के तत्कालीन ज़िला महासचिव हलधर प्रसाद के बुलावे पर एक कार्यक्रम में शिरकत करने कर्पूरी अलौली, (खगड़िया) आये थे. वहां मंच से वो बोफोर्स पर बोलते हुए राजीव गांधी के स्विस बैंक के खाते का उल्लेख कर रहे थे. कर्पूरी जी ने भाषण के दौरान ही धीरे से एक पुर्जे (रेल टिकट) पर लिखकर ‘कमल’ की अंग्रेज़ी जानना चाहा. मंच पर बैठे लोगों ने कर्पूरी की किताब- कितना सच, कितना झूठ बंटवा रहे श्री प्रसाद को ज़ल्दी से ऊपर बुलवाया. प्रसाद ने उसी स्लिप पर ‘लोटस’ लिख कर कर्पूरी की ओर बढ़ाया. और, कर्पूरी राजीव गांधी को लपेटते रहे कि राजीव मने कमल, और कमल को अंग्रेजी में लोटस बोलते हैं. इसी नाम से स्विस बैंक में खाता है राजीव गांधी का. अपना ही अनोखा अंदाज़ था कर्पूरी जी का.
कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद जब लालू प्रसाद बिहार विधानसभा में नेता, प्रतिपक्ष बने, तो उनके सामने एक बड़े जननेता के क़द की लाज रखना सबसे बड़ी चुनौती थी जिसमें वे एक हद तक क़ामयाब भी रहे हालांकि अराजकता और भ्रष्टाचार ने उनके कार्यकाल को हलकान किए रखा.
1989 का लोकसभा चुनाव जब आया, तो उन्होंने बिहार विधानसभा से इस्तीफ़ा देकर दिल्ली का रुख़ करना उचित समझा. कुछ ही महीनों बाद 90 में विधानसभा चुनाव हुए, तो देवीलाल, चंद्रशेखर और शरद यादव का भरोसा जीत कर वे उन्हें यह समझाने में कामयाब रहे कि बिहार को कोई कर्पूरी के पदचिह्नों पर चलने वाला जमीनी नेता ही चला सकता है. अजित सिंह के लाख नहीं चाहने के बावजूद लालू प्रसाद कर्पूरी की विरासत संभालने में कामयाब हो गए.
1990 में अलौली में लालू यादव का पहला कार्यक्रम था मिश्री सदा कॉलेज में. कर्पूरी ठाकुर को निराले ढंग से याद करते हुए उन्होंने कहा, “जब कर्पूरी जी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे. और, जब मैं रिज़र्वेशन की बात करता हूं, तो लोग गाली देने के पहले अगल-बगल देख लेते हैं कि कहीं कोई पिछड़ा-दलित-आदिवासी सुन तो नहीं रहा है. ये बदलाव इसलिए संभव हुआ कि कर्पूरी जी ने जो ताक़त हमको दी, उस पर आप सबने भरोसा किया है.”
किसी दलित-पिछड़े मुख्यमंत्री को बिहार में कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया जाता था. श्रीकृष्ण सिंह के बाद सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने वाले लालू प्रसाद पहले मुख्यमंत्री थे. सच तो ये है कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर के अधूरे कामों को आगे बढ़ाना शुरू ही किया था कि कुछ लोगों को यह बात अखरने लगी. लालू प्रसाद की अद्भुत संवाद-कला के लिए ग़ालिब से माज़रत के साथ कहना है:
हैं और भी दुनिया में सियासतदां बहुत अच्छे कहते हैं कि लालू का है अंदाज़े-बयां और.
70 के दशक के उत्तरार्द्ध में कर्पूरी ठाकुर सिर्फ़ सिंचाई विभाग में 17000 रिक्तियों के लिए आवेदन आमंत्रित करते हैं. और, एक सप्ताह भी नहीं बीतता है कि रामसुंदर दास को आगे करके उनकी सरकार गिरा दी गई. ऐसा अकारण नहीं होता है. पहले होता ये था कि बैक डोर से अस्थायी बहाली कर दी जाती थी, बाद में उसी को नियमित कर दिया जाता था. एक साथ इतने लोग फेयर तरीके से ओपन रिक्रूटमेंट के ज़रिये बहाल हों, इस पूरी व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठे कुछ लोग भला क्योंकर पचाने लगे. सो सरकार गिराना व कर्पूरी की फजीहत करना ही उन्हें सहल जान पड़ा. आज भी विश्वविद्यालय के किरानी, चपरासी, मेसकर्मी से लेकर समाहरणालय-सचिवालय तक के क्लर्क आपको कुछ ख़ास जातियों से ताल्लुक़ात रखने वाले आसानी से मिल जायेंगे.
कुछ समय पहले तक भागलपुर के टीएनबी कॉलेज में वहां के हॉस्टलों में दरबान से लेकर मेस प्रबंधक तक मधुबनी इलाके के ब्राह्मणों का कब्जा था. एक दिन इस लेख के लेखक ने वेस्ट ब्लॉक हॉस्टल के एक बुज़ुर्ग सज्जन, जिनकी मैं बड़ी इज़्ज़त करता था, से कहा, “बाबा, आपलोग इतनी बड़ी तादाद में एक ही इलाके से सिस्टम में घुसे कैसे?”
वे मुस्कराते हुए बोले, “सब जगन्नाथ मिश्रा जी की कृपा है. जो जिस लायक़ था, उस पर वैसी कृपा बरसी. चपरासी से लेकर ‘भाइस चांसलर’ तक वे चुटकी में बनाते थे. बस साहेब की कृपा बरसनी चाहिए.”
बहरहाल, लालू प्रसाद ने पिछले साल कहा कि वे मंडल कमीशन लागू होने की अंदरूनी कहानी एक दिन सबके सामने रखेंगे. मंडल कमीशन लागू कराने की मुहिम पर लालू यादव की किताब का लोगों को बेसब्री से इंतज़ार है. एक बार उन्होंने कर्पूरी की किताब कितना सच, कितना झूठ मांगी थी. जनता दल के तत्कालीन ज़िला उपाध्यक्ष हलधर प्रसाद बताते हैं कि उन्होंने घर में बची आख़िरी प्रति 1997 में मुख्यमंत्री आवास जाकर उन्हें भेंट कर दी. इस किताब में कर्पूरी ठाकुर ने रामविलास पासवान और रामजीवन सिंह को जमके कोसा है.
कर्पूरी ठाकुर और आपातकाल के सहयोगी
आपातकाल के दौरान नेपाल में कर्पूरी के साथ रामविलास पासवान और रामजीवन सिंह भूमिगत थे. वहां जिस अध्यापिका के यहां ये लोग ठहरे थे, उन्होंने कथित रूप से कर्पूरी ठाकुर के चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाया था, मुक़दमा भी किया था. पासवान और रामजीवन सिंह ने उस अफ़वाह को काफी तूल दिया. वो अध्यापिका बिहार भी आती रहीं. कर्पूरी इन दोनों लोगों के आचरण से इतने दु:खी थे कि एयरपोर्ट पर उतरते ही दोनों को लोकदल से निष्कासित कर दिया.
ये वही पासवान थे जिन्हें भागलपुर में हुए पार्टी सम्मेलन में कर्पूरी जी ने “भारतीय राजनीति का उदीयमान नक्षत्र” कहकर संबोधित किया था.
मतलब, रामविलास पासवान को आप कितना ही स्नेह व सम्मान दे दीजिए, शुरू से ही ये अपनी सुविधानुसार किसी भी पाले में, किसी भी हद तक जा सकते हैं, और अब तो खेमा परिवर्तन पर इनसे कोई सवाल ही बेमानी है.
जस्टिफिकेशन ढूंढने में इनका कोई सानी नहीं. कोई अचरज नहीं गर 19 से पहले ये पाला बदल लें, लालू बस द्वार खुला रखें. हां, फिर 24 में भी ये चंचलचित्त पाला न बदल कर लालू के साथ ही रहें, इसकी गारंटी कोई बेवकूफ़ ही लेगा.
कर्पूरी ठाकुर और कपटी ठाकुर
लंबे समय तक यह झूठ फैलाया जाता रहा कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर को कपटी ठाकुर कहा क्योंकि उन्होंने ग़रीब सवर्णों के लिए भी उस 26% आरक्षण में से 3% देने की व्यवस्था की. जबकि सच का इन बातों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है.
उनके करीबी बताते हैं कि शिवनंदन पासवान को कर्पूरी विधानसभा उपाध्यक्ष बनाना चाह रहे थे. और, दूसरी तरफ गजेन्द्र हिमांशु भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे. तो तय हुआ कि दोनों के नाम से लॉटरी निकाली जाए. लॉटरी के सहारे शिवनंदन पासवान विधानसभा उपाध्यक्ष बन गए.
पर बाद में यह बात सामने आई कि लॉटरी में दोनों पर्ची शिवनंदन पासवान के नाम की ही कर्पूरी ठाकुर ने लिख के डलवा दी थी. बस, तभी से हिमांशु उन्हें कपटी ठाकुर बुलाने लगे. लालू का इस प्रसंग से कोई वास्ता ही नहीं है. कर्पूरी ठाकुर ने अंतिम सांस लालू प्रसाद की गोद में ली. उनके गुज़रने के बाद ही वे अपने दल के नेता चुने गए और नेता, प्रतिपक्ष, बिहार विधानसभा बने. छोटी-मोटी बातों के अलावा दोनों में कभी कोई बड़ी तक़रार नहीं रही. हां, कर्पूरी ठाकुर रामविलास पासवान और रामजीवन सिंह को फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे.
वह आदर्शवादी राजनीति का दौर था जहां कर्पूरी ठाकुर, राम मनोहर लोहिया जैसे सच्चे समाजवादी मौजूद थे. पहली बार 1952 में कर्पूरी विधायक बने. उस समय ऑस्ट्रिया जाने वाले प्रतिनिधि मंडल में उनका चयन हुआ था. उनके पास कोट नहीं था, किसी दोस्त से मांग कर गए थे. वहां मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ़्ट किया गया.
पिछले दिनों कर्पूरी ठाकुर के छोटे बेटे बता रहे थे कि 74 में उनका मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हुआ, पर वो बीमार पड़ गए. राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती थे. हार्ट की सर्जरी होनी थी. इंदिरा गांधी को जैसे ही मालूम चला, एक राज्यसभा सांसद (जो पहले सोशलिस्ट पार्टी में ही थे, बाद में कांग्रेस से जुड़े) को भेजा और वहां से एम्स में भर्ती कराया. ख़ुद दो बार मिलने गईं.
इंदिरा ने पूछा, “इतनी कम उम्र में तुम कैसे इतना बीमार पड़ गए? तुम्हें अमेरिका भेज देती हूं, वहां अच्छे से इलाज़ हो जाएगा. सब सरकार वहन करेगी. फिर आकर पढ़ाई करना.” पर, जैसे ही ठाकुर जी को मालूम चला तो उन्होंने कहा कि हम मर जाएंगे पर बेटे का इलाज़ सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे.
बाद में जेपी ने कुछ व्यवस्था कर न्यूज़ीलैंड भेजकर उनका इलाज़ कराया. अगले साल उन्होंने मेडिकल कालेज में दाखिला लिया. आज उनके बेटे-बेटी दोनों डाक्टर हैं, दामाद फोरेस्ट सर्विस में हैं, बाहरी आडंबर से कोसों दूर.
कर्पूरी ठाकुर ने अपने बच्चों को भी सदाचरण का वही पाठ पढ़ाया जो उन्होंने खुद जीवन भर जिया था. कभी धन संचय-संग्रह की प्रवृत्ति नहीं रही. इसलिए, लोग आज भी उन्हें जननायक के नाम से जानते है.
सरकार में कर्पूरी
कर्पूरी जब मुख्यमंत्री थे तो उनके प्रधान सचिव थे यशवंत सिन्हा, जो आगे चलकर चंद्रशेखर की केंद्र सरकार में वित्त मंत्री एवं अटल बिहारी वाजपेयी की कैबिनेट में वित्त और विदेश मंत्री बने.
एक दिन दोनों अकेले में बैठे थे, तब कर्पूरी ने सिन्हा से कहा, “आर्थिक दृष्टि से आगे बढ़ जाना, सरकारी नौकरी मिल जाना, इससे क्या यशवंत बाबू आप समझते हैं कि समाज में सम्मान मिल जाता है? जो वंचित वर्ग के लोग हैं, उसको इसी से सम्मान प्राप्त हो जाता है क्या? नहीं होता है.”
उन्होंने अपना उदाहरण दिया कि मैट्रिक में फर्स्ट डिवीज़न से पास हुए. गांव के समृद्ध वर्ग के एक व्यक्ति के पास नाई का काम कर रहे उनके बाबूजी उन्हें लेकर गए और कहा कि सरकार, ये मेरा बेटा है, फर्स्ट डिवीज़न से पास किया है. उस आदमी ने अपनी टांगें टेबल के ऊपर रखते हुए कहा, “अच्छा, फर्स्ट डिवीज़न से पास किए हो? मेरा पैर दबाओ, तुम इसी क़ाबिल हो. तुम फर्स्ट डिवीज़न से पास हो या कुछ भी बन जाओ, हमारे पांव के नीचे ही रहोगे.”
यशवन्त सिन्हा पिछले दिनों एक कार्यक्रम में बोलते हुए कर्पूरी के साथ अपने पुराने अनुभव ताज़ा कर रहे थे, “ये है हमारा समाज. उस समय भी था, आज भी है. यही है समाज. हमारे समाज के मन में कूड़ा भरा हुआ है और इसीलिए यह सिर्फ़ आर्थिक प्रश्न नहीं है. हमको सरकारी नौकरी मिल जाए, हम पढ़-लिख जाएं, कुछ संपन्न हो जाएं, उससे सम्मान नहीं मिलेगा. सम्मान तभी मिलेगा जब हमारी मानसिकता में परिवर्तन होगा. जब हम वंचित वर्गों को वो इज़्ज़त देंगे जो उनका संवैधानिक-सामाजिक अधिकार है. और, इसके लिए मानसिकता में बदलाव लाना बहुत ज़रूरी है.”
आगे यशवंत सिन्हा कहते हैं कि जब बात आई आरक्षण की, तो बहुत से लोग विरोध में खड़े हुए. बहुत आसान है विरोध कर देना, लेकिन विरोध वैसे ही लोग कर रहे हैं जो चाहते हैं कि पुरानी सामाजिक व्यवस्था, रूढ़िवादी व्यवस्था को आगे भी चलाया जाए. वो परिवर्तन के पक्ष में नहीं हैं.
कर्पूरी जी अक़्सर कहते थे, “यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो आज-न-कल जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी.” बतौर सदस्य, बिहार स्टूडेंट्स फेडरेशन, हाई स्कूल, समस्तीपुर में कर्पूरी ने छात्रों की एक सभा में कहा था, “हमारे देश की आबादी इतनी अधिक है कि केवल थूक फेंक देने भर से अंग्रेज़ी राज बह जाएगा.”
67 में जब पहली बार 9 राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तो महामाया प्रसाद के मंत्रिमंडल में कर्पूरी ठाकुर शिक्षा मंत्री और उपमुख्यमंत्री बने. उन्होंने मैट्रिक में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता समाप्त कर दी और यह बाधा दूर होते ही आदिवासी-क़स्बाई-देहाती लड़के भी उच्चतर शिक्षा की ओर अग्रसर हुए, नहीं तो पहले वे मैट्रिक में ही छंट जाते थे.
1970 में 163 दिनों के कार्यकाल वाली कर्पूरी की पहली सरकार ने कई ऐतिहासिक फ़ैसले लिए. 8वीं तक की शिक्षा उन्होंने मुफ़्त कर दी. उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्ज़ा दिया. 5 एकड़ तक की ज़मीन पर मालगुज़ारी खत्म कर दी. फिर जब 77 में दोबारा मुख्यमंत्री बने तो एस-एसटी के अतिरिक्त ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला सूबा था. 11 नवंबर, 1978 को महिलाओं के लिए 3% (इसमें सभी जातियों की महिलाएं शामिल थीं), ग़रीब सवर्णों के लिए 3% और पिछडों के लिए 20% यानी कुल 26% आरक्षण की घोषणा की.
कर्पूरी को बिहार के शोषित लोगों ने इस कदर सर बिठाया कि वे कभी चुनाव नहीं हारे. अंतिम सांस लालू यादव की गोद में ली. इतने सादगी पसंद कि जब प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सर में चोट लग गई. चरण सिंह ने कहा, “कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ.”
ठाकुर का जवाब था- जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा? राष्ट्रीय राजनीति में भी इतनी पैठ कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे.
कर्पूरी ने कभी भी संसद या विधानसभा को फॉर ग्रांटेड नहीं लिया. वे जब भी सदन में अपनी बात रखते थे, पूरी तैयारी के साथ, उनकी गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति से समूचा सदन लाभान्वित होता था. उन्होंने कभी किसी से सियासी कटुता नहीं रखी. मेरा आरंभ से मानना रहा है कि बिहार में जननेता अगर कोई हुए, तो सिर्फ़ दो- एक कर्पूरी ठाकुर और दूसरे लालू यादव. दोनों के पीछे जनता गोलबंद होती थी. कर्पूरी ठाकुर सादगी के पर्याय थे, कहीं कोई आडंबर नहीं, कोई ऐश्वर्य-प्रदर्शन नहीं. वे लोकराज की स्थापना के हिमायती थे और सारा जीवन उसी में लगा दिया.
17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने से उनका देहांत हो गया. आज उन्हें एक जाति विशेष के दायरे में महदूद कर देखा जाता है. जबकि उन्होंने रुग्ण समाज की तीमारदारी को अपने जीवन का मिशन बनाया. उन्हें न केवल राजनैतिक, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक चेतना के प्रसार की भी बड़ी चिंता थी. वे समस्त मानवता की हित चिंता करने वाले भारतीय समाज के अनमोल प्रहरी थे. ऐसे कोहिनूर कभी मरा नहीं करते! कृष्ण बिहारी ने ठीक ही कहा:
अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है नूर संसार से गया ही नहीं. (न्यूज़लॉन्ड्री हिंदी से साभार)

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