विमर्श : सत्ता की पत्रकारिता और सोच का संकट

जगदीश्वर चतुर्वेदी
यह नियंत्रित पत्रकारिता का युग है। हर स्तर पर पत्रकारिता को नियंत्रण और आत्म-सेंसरशिप से गुजरना पड़ रहा है। इसके विपरीत ऐसे भी पत्रकार हैं जो इस नियंत्रण और आत्म-सेंसरशिप से लड़ते हुए लिख रहे हैं,इनमें निचले स्तर पर काम करने वाले छोटे पत्रकारों और सोशलमीडिया और इंटरनेट पर सक्रिय पत्रकारों की संख्या अधिक है। यह सच है मीडिया में पीएमओ के हाथ में संपादकीय नियंत्रण है।
उल्लेखनीय है सत्ताधारी दल की नीतियों, पीएम की पक्षधरता का मीडिया में फिनोमिना नया नहीं है, नया है इसमें मोदी का चरित्र और महा-व्यक्तित्व निर्माण की कोशिशें। पीएम मोदी के सत्ता में आने के पहले से मीडिया पीएम की नव्य उदार आर्थिक नीतियों का अंधाधुंध समर्थन करता रहा है और उन नीतियों के आलोचकों को उसने हाशिए पर भी स्थान नहीं दिया। सन् 2014 में मोदी सत्ता में न आए होते तब भी मीडिया का मौजूदा अवस्था में 75फीसदी इसी तरह विकास होता। मोदी की भूमिका यह है कि उन्होंने कौशल और सुनियोजित प्रबंधन के साथ मीडिया को नियंत्रित किया है,यह चीज पीएमओ पहले से करता रहा है लेकिन मोदी के आने के बाद इस नियंत्रण में आक्रामकता आई है और दमन का तत्व शामिल हुआ है, पहले दमन नहीं था। मसलन् कोई टीवी वाला पीएम का विरोध करना चाहे तो कर सकता था लेकिन इसके कारण उसका दमन-उत्पीडन नहीं किया जाता था। दूसरी ओर मीडिया में केन्द्र सरकार की आलोचना एकसिरे से गायब है,खासकर संपादकीय नीति को केन्द्र सरकार का पिछलग्गू बना दिया है।
एक अन्य चीज है जिसे हमें ध्यान रखना चाहिए, वह यह कि पत्रकारिता में एकवर्ग हमेशा से सत्ता के साथ रहा है। स्वयं राजा राममोहन राय ब्रिटिश शासकों के भक्त थे,वे अपने अखबारों में सरकार की नीतियों की आलोचना नहीं लिखते थे ,इसके बावजूद ‘मिरातुल अखबार’ पर झूठे आरोपों के आधार पर,बिना जांच किए ब्रिटिश शासकों ने पाबंदी लगा दी , राय ने इसके खिलाफ लंदन तक लडाई लड़ी ,लेकिन पाबंदी नहीं हटी। स्वाधीनता संग्राम में एक तरफ साम्राज्यवाद विरोधी और जनतंत्र-आधुनिकता की पक्षधर पत्रकारिता थी,वहीं दूसरी ओर जाति-पांति,पुनरूत्थानवाद और पिछड़े संस्कारों की हिमायती पत्रकारिता थी, इसके पास व्यापक पाठक समुदाय था। कहने का आशय यह कि भारत में पत्रकारिता में वैचारिक बहुलतावाद आरंभ से है, इन दिनों इस वैचारिक बहुलताबाद को खत्म करने की केन्द्र की ओर से रोज नई कोशिशें सामने आ रही हैं। यह एक तरह से सत्ता और पत्रकारिता दोनों के स्तर पर पैदा हुए वैचारिक दारिद्रय और आतंक की सूचना है। वैचारिक दारिद्य और आतंक का दूसरा पहलू तब सामने आया जब विभिन्न समयों पर देश में संकट की अवस्था पैदा हुई।मसलन्,सन् 1947 में भारत-विभाजन के समय विभिन्न समाचारपत्रों की घटिया भूमिका रही, उन्होंने साम्प्रदायिकता के पक्ष में बढ़-चढ़कर कवरेज किया ,इसका जिक्र प्रथम प्रेस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में किया है। इसी तरह बाबरी मसजिद विध्वंस के समय सन् 1993 में प्रेस ने सबसे घृणित भूमिका अदा की और साम्प्रदायिक कवरेज किया,सन् 2002 के गुजरात दंगों के समय गुजराती प्रेस ने साम्प्रदायिक कवरेज किया। असम आंदोलन के समय असमिया और राष्ट्रीय प्रेस के अधिकांश अखबारों ने असम आंदोलन का अंध समर्थन किया। कहने का आशय यह है कि पत्रकारिता में जहां एक ओर सत्ता से जुडने का प्रबल भाव रहा है, वहीं दूसरी ओर , जनविरोधी आंदोलनों का समर्थन करने,पृथकतावाद का समर्थन करने, साम्प्रदायिक दंगों और आतंकियों का समर्थन करने की प्रवृत्ति रही है।
संकट की घड़ी में धर्मनिरपेक्षता ,न्याय और लोकतंत्र के बीच संतुलन कायम करके पत्रकारिता करने की जरूरत है।आज इन तीनों पहलुओं को मीडिया में विभिन्न स्तरों पर चुनौती दी जा रही है। इस क्रम में यह बात हमेशा ध्यान में रखें कि पत्रकारिता में दक्षिणपंथी विचारधारा का गहरा असर रहा है, समग्रता में देखें तो मैनस्ट्रीम मीडिया में दक्षिणपंथी विचारधारा हावी रही है।
मोदी की जीत के बाद हम सभी को काफी निराशा हुई और अनेक सवाल उठे हैं,पहला सवाल उठा है कि भारत को रौरव नरक में फेंककर भी आखिरकार वे कैसे जीत गए ॽ सामाजिक दुर्दशा का राजनीतिक चेतना में रूपान्तरण क्यों नहीं हुआ ॽ इस प्रसंग में पहली बात यह कि सामाजिक अवस्था का सीधे कभी राजनीतिक चेतना में रूपान्तरण नहीं होता।यदि सामाजिक अवस्था की राजनीतिक चेतना में सहज-स्वाभाविक अभिव्यक्ति यदि हो जाती तो फिर तो भारत में सामाजिक क्रांति ही हो जाती। कहने का आशय यह कि सामाजिक अवस्था और राजनीतिकचेतना के बीच यांत्रिक संबंध नहीं होता। बल्कि यों कहें कि बड़ा-अंतराल होता है। इसी अंतराल को कम करने के लिए सामाजिक परिवर्तन में आस्था रखने वाले संगठनों के सक्रिय हस्तक्षेप की जरूरत होती है।
दक्षिणपंथी ताकतों की एक व्याख्या है ,वह यह कि स्वाधीनता संग्राम में साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा के संगठनों की भूमिका नहीं थी बल्कि जनता बिना किसी नेता की कुर्बानी के जीत गयी। जनता स्वतंत्रता चाहती थी इसलिए वह जीत गयी, यही वह बिंदु है जहां से गांधी,नेहरू,पटेल आदि पर हमले हो रहे हैं। इतिहास का विकृतिकरण हो रहा है। इसके अलावा जिस चीज पर जोर दिया गया वह है इरेशनल सोच और तदनुसार आचरण।इस नजरिए से वे परंपरा में ही हर चीज को खोजने पर जोर दे रहे हैं। विज्ञान से लेकर ज्ञान,मानव संबंधों से लेकर शोषण आदि पर उनके रूढिबद्ध तर्क बार -बार मीडिया के जरिए प्रसारित किए जा रहे हैं। इन सबके जरिए अविवेकवादी जनसमाज का निर्माण हुआ है।इस जनसमाज की सबसे बड़ी पूंजी है ज्ञान और सत्य अभाव। इगनोरेंस को ये लोग अपनी संपदा मानते हैं।उसे छिपाने के लिए अप्रासंगिक, अर्थहीन और बेतुके सवाल उठाते हैं।मोदी की महानायक की इमेज प्रक्षेपित करते हैं। मोदी उनके लिए यूटोपिया है जिसका हिंदुत्व के यूटोपिया से गहरा संबंध है। इस क्रम में धार्मिक आधार पर व्यक्तिगत और सामाजिक नजरिए के विकास पर जोर दिया जा रहा है, हिंदू-मुसलिम आदि वर्गीकरण को आम जनता के दिलो-दिमाग में उतार दिया गया है। यह अनुत्पादक या नपुंसक नजरिया है, क्योंकि इस नजरिए में सकारात्मक नए के सृजन की शक्ति नहीं है। इस नजरिए से देखें तो मोदी और हिंदुत्व खोखली अवधारणा हैं।
मुख्य सवाल है मीडिया में सत्ता का वर्चस्व हो या सत्य का वर्चस्व हो ॽ इस बहस में मीडिया ने अपना पक्ष पेश कर दिया है,उसकी पक्षधरता सत्ता के वर्चस्व के साथ है। मीडिया बदले इसके लिए जरूरी है कि नव्य –उदार आर्थिक नीतियां भी बदलें। आर्थिक नीतियों को बदले बिना मीडिया को नहीं बदल सकते। इन दिनों सरकार और मीडिया जिस तरह के अंतस्संबंध में बंधे हैं ,उसकी आधारशिला बहुत पहले इराक-अमेरिका युद्ध के दौरान रखी गयी थी। नई पत्रकारिता को इसने ‘इंवेडेड जर्नलिज्म’ की अवधारणा के जरिए प्रभावित किया। इसमें मुख्यतः सरकारी कवरेज,प्रेस ब्रीफ्रिंग पर जोर है और उसे ही पत्रकारिता कहा गया। इसमें तथ्यों और सत्य की पडताल,घटनास्थल पर जाकर तथ्य एकत्रित करने और स्वतंत्र रूप से लिखने की पद्धति को तिलांजलि दे दी गयी। मोदी सरकार ने इसी पत्रकारिता को अपनाने के लिए मीडिया को मूल रूप से बाध्य किया है।खबरों में सत्ता के वर्चस्व का आख्यान इसी परिप्रेक्ष्य से आरंभ होता है। इसके तहत ही आत्म-सेंसरशिप,विदेश नीति का नायक केन्द्रित-अमेरिका केन्द्रित कवरेज आ रहा है, हिन्दू राष्ट्रवाद ,विदेश नीति और घरेलू नीति में अंतस्संबंध बिठाते हुए आक्रामकता और घृणा को परोसा जा रहा है, जो वर्ग और दल सरकार के साथ नहीं हैं उन पर संदेह पैदा करना,देशद्रोही घोषित करना, न्याय और भद्रता की अवहेलना करना इस कवरेज की मुख्य प्रवृत्तियां हैं।
आज जरूरत इस बात की है कि हम सब अपने को साइबर और मोबाइल कम्युनिकेशन के दबाव से मुक्त करें, आपस में मिलें, बैंठें, बहस करें। यथार्थ में मिलने,बैठने,बहस करने को हमने विदाई दे दी है। इसके कारण सामाजिक जीवन में आलोचनात्मक विवेक की विदाई हुई है, अविवेकवादी ताकतें वैचारिक तौर पर शक्तिशाली बनी हैं। आज चुनौती है कि हम अपने जीवन में आए अलगाव के विभिन्न रूपों को चुनौती दें। मानवीय संप्रेषण पर जोर दें,इससे हमें अ-विवेकवाद को पछाड़ने में मदद मिलेगी।
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