Jawahar Lal Nehru University : लोकतंत्र, विवेक और आनंद का सौंदर्यलोक जेएनयू-5
Sachchi Baten Tue, May 13, 2025

जगदीश्वर चतुर्वेदी
जेएनयू में नामवर फिनोमिना का बुनियादी लक्षण था सत्ता की हां में हां मिलाकर जीना। इसके अलावा वे कठमुल्ले मार्क्सवादियों से भिन्न थे जो ‘विचारधारा’ के किताबी फार्मूले जीवन में लागू करते थे। ये लोग विचारधारा को ‘अधिरचना’ के अर्थ में यांत्रिक तौर पर नामवरजी पर लागू करते थे। विचारधारा को अधिरचना मानना विचारधारा का सरलीकरण है। वस्तुओं के प्रति जड़पूजाभाव असल में विचारधारा है। नामवरजी मार्क्सिवादी के नाते देवपूजावाद का साहित्य में हमेशा निषेध करते रहे । उनके प्रत्येक व्याख्यान की धुरी है देवपूजावाद का खंडन। देवत्व बनाने वाली साहित्य दृष्टिा का निषेध। इस क्रम में हर बार नामवर के हाथों कोई न कोई मूर्ति टूटी। जो लोग मार्क्सवाद पढ़ना चाहते हैं वे गौर से ‘पूंजी’ नामक ग्रंथ में विवेचित वस्तु जड़पूजावाद की आलोचना को पढें। उनके यहां असहमति का स्वर प्रमुख है। वे सहमत कम और असहमत ज्यादा होते थे। हमेशा ‘साहित्यपूजा’ भाव को खंडित करते।हमेशा भिन्न बातें करते। नामवरजी की इस भिन्नता का स्रोत था ‘विचारधारा’ के खिलाफ अहर्निश जंग।विचारधारा के प्रभाववश अनेक लोग अनेक किस्म की साहित्यिथक मूर्खताएं भी करते हैं, साहित्यिवक मूर्खताओं को ध्वस्त करने में नामवरजी बेजोड़ थे। हमारे अधिकांश साहित्यिहक आयोजन साहित्यिमक मूर्खता के जीते जागते नमूने होते हैं और हम उनमें नामवरजी को बुलाते,वे जाते और मूर्खताओं को नंगा करते ,इसके बाद हम पश्चाताप करते कि अरे उन्हें क्यों बुलाया। नामवर के भाषणों के निशाने पर साहित्यि क एटीट्यूट, अनैतिहासिक रूझान और संकीर्णताएं रहीं। एक समस्या भी थी कि वे जब भी बोलते थे अनेक बार गहरी चोट करते। विचारधारा को निशाना बनाते । वे विचारधारा के बड़े शिकारी थे और स्वयं अंत में उसके शिकार बने।
उनके पूरे नजरिए में ‘सामंजस्य’ की धारणा नजर नहीं आती। वे हमेशा ‘भिन्न’ नजरिए पर जोर देते और तर्क को खुला रखते । हिन्दी में ‘सामंजस्य’ की धारणा का वैभव चरमोत्कर्ष पर है। वे हमेशा ‘सामंजस्य’ की कोटि में शामिल होने इंकार करते रहे । व्यावहारिक जीवन में वे सामंजस्यसवादी’ थे लेकिन आलोचना में उसके मुखर विरोधी। ‘सामंजस्य’ को उन्होंने व्यवहारवाद में तब्दील करने में महारत हासिल कर ली थी। साहित्य में ‘सामंजस्य’ की धारणा का निषेघ करने के कारण ही वे विचारधारात्मक मुठभेड़ों में सबसे ज्यांदा असहिष्णुभाव से पेश आते। मूर्त्ति भंजक नजर आते। यहीं पर उनके वैदुष्य का चरमोत्कर्ष नजर आता था।
विचारणीय बात यह है कि नामवरी फिनोमिना ऐसे समय में अप्रासंगिक नहीं बना जब सारी दुनिया में मार्क्स्वाद पर हमले हो रहे थे,मार्क्सवाद को अप्रासंगिक घोषित किया जा रहा था। हिन्दी में मार्क्सवाद की जनप्रियता का ग्राफ बनाए और बचाए रखने में नामवरजी को समाजवाद के पतन के दौर में भी सफलता मिली। मार्क्सवाद के संकट के दौर में लाखों प्रगतिशीलों के कंठहार बने, मार्क्सवादी भावों और विचारों को उन्होंने जनप्रियता के नए मानक दिए।मार्क्सवाद की कठिन परीक्षा की घड़ी में भी राष्ट्रवाद का पल्लू नहीं पकडा। संभवत: वे आजादी के बाद के ऐसे एकमात्र आलोचक हैं जिनके यहां राष्ट्र वाद एकदम नजर नहीं आता। हिन्दी: का लेखक सबसे पहले राष्ट्र वादी होता है बाद में कुछ और होता है। हिन्दी में राष्ट्रतवादरहित आलोचक की पहचान के वे आदर्श पुरूष हैं। उल्लेखनीय है उनके गुरूवर हजारीप्रसाद द्विवेदी और मार्क्सवादी रामविलास शर्मा में भी राष्ट्र वाद है। नामवरजी ने राष्ट्रवाद को अपने नजरिए से कैसे निकाल दिया यह स्वयं में अध्ययन का रोचक विषय है।दूसरी महत्व्पूर्ण बात है साहित्यि क आलोचना और व्याख्यानों में पूंजीवादी तर्कों का एकसिरे से अस्वीकार। पूंजीवादी तर्कशास्त्र के बिना हिन्दी की आलोचना नहीं चलती,प्रत्येेक समीक्षक पूंजीवादी तर्कशास्त्र के किसी न किसी पहलू का अपने आलोचनात्मक दृष्टिकोण में इस्तेमाल करता रहा है। मुक्तिबोध के बाद नामवरजी दूसरे बडे आलोचक हैं जो पूंजीवाद के तर्कशास्त्र के बाहर जाकर अपने तर्कशास्र का विकास करने में सफल रहे।मजेदार बात यह है कि उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना न्यूनतम भी नहीं लिखी है,जबकि मुक्ति बोध ने पूंजीवाद की आलोचना के बाद उसके तर्कशास्त्र को आलोचना और कविता में अस्वीकार किया।गैर पूंजीवादी पैराडाइम में तर्कशास्त्र विकसित करते समय कई बार उनसे गलतियां भी हुईं हैं, लेकिन पूंजीवादी तर्कशास्त्र के परे प्रगतिवादी पैराडाइम में रहने के कारण उनकी आंखों से कुछ ही दिनों के बाद ओझल हो जाती हैं।
उनके व्यक्तित्व का असली तनाव ‘व्यक्ति नामवर’ और ‘सार्वजनिक नामवर’ के बीच में था। इस तनाव से मुक्ति का कोई रास्ता
नहीं था। ‘व्यक्ति नामवर’ का जीवन बेहद चुनौतीपूर्ण और भावात्म क कष्टों से भरा था। आप ज्योंंही ‘व्यक्ति नामवर’ को देखेंगे इनके ‘सार्वजनिक नामवर’ का जादू गायब हो जाएगा। नामवर के जीवन की सबसे बडी त्रासदी थी कि किसीकी उनके निजी और पारिवारिक कष्टों में दिलचस्पी नहीं थी। इस अर्थ में वे ग्रीक त्रासदी के महानायकों की तरह थे जिनके निजी कष्टों में दर्शकों की दिलचस्पी कम होती थी। ऐसा नहीं है कि नामवरजी के जीवन में कोई तकलीफ नहीं रही । अनेक तकलीफें थीं। नामवरजी हमेशा अपनी इन दो इमेजों के बीच में संघर्ष करते रहे। उनकी सार्वजनिक इमेज एक प्रतिवादी नायक आलोचक की थी। जो पावर के बिना रह नहीं सकता। बाहर उसकी इमेज का जादू चलता ,पर घर में वह जादू गायब था। इस प्रतिवादी नायक के अनेक रूप लोगों ने देखे हैं ,इनमें जो भी रूप स्थिघर होने की कोशिश करता वे तुरंत दूसरा रूप धारण कर लेते । फलत: लोगों को वे हमेशा बदले हुए नजर आते ।
आजादी के बाद साहित्य और दर्शन के बीच संवाद,संपर्क और विनिमय बंद हो गया है। इस दौर में साहित्य का राजनीतिक आंदोलनों से आदान प्रदान,संपर्क और संवाद ज्यादा हुआ है। राजनीतिक तात्कालिकता और साहित्यिक विमर्शों के बीच गहरा अन्तस्संबंध है। शीतयुध्द, नेहरूयुग,अंग्रेजी हटाओ-हिन्दी लाओ,आपात्काल, लोकतंत्र, स्त्री आंदोलन,दलित आंदोलन के साथ अन्तस्संबंधों को रेखांकित करते हुए आलोचना विकसित हुई । इस क्रम में साहित्य की आलोचना कम और राजनीतिक संवृत्तियों और आंदोलनों की व्याख्या ज्यादा हुई । आलोचना की इस पद्धति से नामवर सिंह अपने को अलगाते थे। उल्लेनखनीय है उपरोक्त सभी विवाद साहित्येतर विवाद हैं और वहीं पर पैदा हुए हैं। इस क्रम में साहित्य और आंदोलन के अन्तस्संबंध का सरलीकृत फार्मूला बना लिया गया। नामवरजी ने इस सरलीकृत फार्मूले को हमेशा अस्वीकार किया। वे तात्कालिक राजनीतिक कार्यभारों को साहित्य के कार्यभार नहीं मानते। व्यवहार में तात्कालिक राजनीतिक कार्यभारों के आधार पर ही साहित्य की व्याख्या और पुनर्व्याख्या होती रही है। साहित्य में ‘खोज’ और ‘मूल्यांकन’ के काम की जगह ‘प्रयोजनमूलक साहित्य’ ‘प्रयोजनमूलक हिन्दी’ और ‘प्रयोजनमूलक आलोचना’ का पठन-पाठन और लेखन होता रहा।इसमें वे शामिल हो गए ।
अब साहित्य की शिक्षा का लक्ष्य है प्रतियोगिता परीक्षाओं में पास होने या फैलोशिप प्राप्त करने में मदद करना।इससे साहित्य शिक्षण प्रभावित हुआ।अब साहित्य के अध्ययन -अध्यापन का लक्ष्य आलोचनात्मक विवेक अथवा आलोचनात्मक मूल्यांकन का नजरिया पैदा करना नहीं है। फलत: हमारे विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से पास हो जाते हैं,स्कॉलरशिप पा जाते हैं, नौकरी पा जाते हैं किंतु साहित्यिक विचारों और अवधारणाओं से अनभिज्ञ होते हैं।साहित्य की आलोचनात्मक जांच-पड़ताल तकरीबन बंद है। फलत: पाठ के प्रासंगिक अर्थ की व्याख्या का लोप हो गया। अब विद्यार्थी को रेडीमेड उत्तर और व्याख्याओं को पढ़ाने पर ज्यादा जोर है। रेडीमेड उत्तर इस युग का साहित्यिक अधिनायकवाद है। इसने साहित्य के विकास और आलोचनात्मक प्रसार को बाधित किया। इसने पाठ के अर्थ को सीमित किया है। फलत: पाठ के साथ जुड़े सामयिक राजनीतिक एटीट्यूट और अर्थभेदों के अध्ययन और मूल्यांकन को पढ़ने-पढ़ाने की पध्दति का लोप हो गया। अब अच्छा शिक्षक वही है जो पाठ के स्थिर अर्थ को पढ़ा दे। इसने साहित्य की व्याख्या में आने वाले भेदों को खत्म कर दिया । आलोचना के विकास की विवरणात्मक व्याख्याएं ज्यादा होने लगीं । इन सबका नामवरजी हमेशा प्रतिवाद करते थे।
हिन्दी आलोचना में नामवर सिंह की आलोचना मूलत: मौलिक और खुली आलोचना है। इसमें मनवाने अथवा फुसलाने का भाव नहीं है और न यह अंतिम व्याख्या है। यह आलोचना का आरंभ है समापन नहीं है। यह आलोचना बहस के लिए मजबूर करती है। असहमति के लिए मजबूर करती है। इसमें सबको संतुष्ट करने का भाव नहीं है, यह आलोचना का खुला पाठ है आप जहां से भी चाहें दाखिल हो सकते हैं। नामवरसिंह अपनी आलोचनात्मक पध्दति को खुला रखते हैं। उनकी आलोचना में ‘पाठ के अधिकार’ और ‘व्याख्याकार के अधिकार’ का समावेश है। इस पध्दति का उन्होंने व्यापक प्रचार किया है और इस क्रम में ‘पाठ का अधिकार’ गायब हो गया और ‘व्याख्याकार का अधिकार’ प्रतिष्ठित हो गया। व्याख्याकार के अधिकार की महत्ता स्थापित होने का परिणाम यह निकला कि बगैर किसी क्राइटेरिया के व्याख्या होने लगी । प्रत्येक व्याख्या का सुखद अंत होता है। व्याख्या के सुखद अंत का अर्थ है प्रशंसा, गुणचर्चा, हल्की आलोचना आदि।जीवन के अंतिम बीस वर्षों में यह काम उन्होंने बहुत किया।उन पर लिखना बेहद असुविधाएं पैदा करता है। मन करता है उनकी खूब प्रशंसा करूँ , विवेक कहता है आलोचना करूँ। आलोचना को विवेक संचालित करता है। लेकिन नामवरसिंह के लेखन में विवेक के साथ भावुकता का भी विशेष योगदान रहा है। वे जब भी बोलते हैं ,मन से बोलते हैं।भावुक होकर बोलते हैं। कक्षा में पढ़ाते समय भी भावुकता और व्यक्तिगत भावबोध काम करता था। वहां पर भी वे अपनी निजी इमोशनल प्राथमिकताओं के आधार पर आलोचक विशेष के बारे में पढ़ाते थे।भावुक लगाव के आधार पर ही छात्र के प्रति अपना रूख तय करते । वक्तृता और अध्यापन में शास्त्र के अलावा भावनाओं का भी योग होता है। यह चीज मैंने पहलीबार उनको देखकर महसूस की।
मैं मथुरा से माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में बेहतरीन विद्वानों से पढ़कर आया था।दर्शन मैंने आचार्य सवलकिशोर पाठक से पढ़ा,सिद्धांत ज्योतिष संकटाप्रसाद उपाध्याय, वेद और धर्मशास्त्र लालनकृष्ण पंड्या,संस्कृत व्याकरण आचार्य बलदेव शास्त्री और संस्कृत साहित्य आचार्य वनमाली शास्त्री,केशवचन्द्र पांडेय,आचार्य कृष्णचन्द्र चतुर्वेदी ने पढ़ाया था। ये सभी अपने विषय के ज्ञाता विद्वान थे । इन सभी ने 13 साल की लंबी अवधि तक यानी प्रथमा से लेकर सिद्धांत ज्यौतिषाचार्य पर्यन्त तक मुझे पढ़ाया था। इन विद्वानों से पढ़ते समय कभी महसूस नहीं हुआ कि शिक्षक के सहृदय मन का शिक्षण से कोई संबंध भी होता है। एकदम वस्तुगत शिक्षण की परंपरा से निकलकर जब मैं जेएनयू में दाखिला हुआ तो शास्त्र, माहौल, मित्र,मिजाज और शिक्षक सभी बदले हुए थे।मथुरा में मैं आपातकाल में ही एसएफआई से जुड़ गया था।जेएनयू आने के पहले माकपा का पार्टी मेम्बर था और एसएफआई का जिला सचिव भी था।
मेरे मन में कहीं न कहीं इस बात का असर था कि कक्षा में पढ़ाते समय शास्त्र ही प्रमुख है,शिक्षक की भावनाएं और प्राथमिकताएं प्रमुख नहीं हैं।लेकिन जेएनयू में 1979 में जब दाखिला लिया और पहलीबार क्लास करने गया तो नामवर सिंह की पढ़ाने की शैली देखकर बड़ा मजा आया। पहलीबार शिक्षक की संवेदनाओं और शास्त्र के बीच चल रही प्रक्रियाओं को देखा,सुना और महसूस किया।
नामवर सिंह की पढ़ाने की शैली में हर दिन एक नयी तैयारी दिखती थी और उसका सामयिक चीजों और घटनाओं के साथ भी गहरा संबंध हुआ करता था। उनके पढ़ाने की शैली में युवामन के प्रति सम्मान का भाव होता था। युवामन को वे अपने प्रति भक्ति,राजनीतिक लगाव और प्रतिबद्धता के आधार पर परखते थे।उनके सबसे प्रिय छात्र वे ही होते थे जो उनके अनन्यभक्त थे। ये लोग साहित्य ज्यादा हांकते थे और राजनीति कम करते थे। वे उन छात्रों से कम प्रेम करते थे जो उनके भक्त नहीं थे,राजनीति और साहित्य ज्यादा करते थे। भारतीय भाषा केन्द्र में अधिसंख्य छात्र ऐसे थे जो नामवरसिंह के अनन्य भक्त नहीं थे। यह एक विलक्षण बात थी कि वे मार्क्सवाद का व्यवहार में इस्तेमाल करने वाले छात्रों को कम पसंद करते थे। उन्हें वे छात्र ज्यादा अच्छे लगते थे, जिनका मार्क्सवाद से प्रयोजनमूलक संबंध होता था।
मेरे लिए यह बात हमेशा रहस्य रही कि नामवर सिंह जैसा मार्क्सवाद का बेहतरीन विद्वान व्यवहार में, खासकर छात्रों में, प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों को पसंद क्यों करता है ? प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी वे थे जिनका मार्क्सवाद से सिर्फ पाठ्यक्रम तक संबंध था। पाठ्यक्रम में जो मार्क्सवाद था उसे वे तोते की तरह पढ़ते थे ,कभी गुनने और उसे जीवन में लागू करके अपने को मार्क्सवादी के रूप में ढ़ालने का किसी ने प्रयास नहीं किया। यही वजह है कि नामवर सिंह का वरदहस्त उन पर होता था जो प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी थे। इनमें से किसी ने भी कालांतर में मार्क्सवाद पर कभी भी न तो कुछ लिखा और न मार्क्सवाद की अकादमिक परंपरा में उनकी गणना की जाती है। इन प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों की तुलना हिन्दी के प्रयोजनमूलक कार्य व्यापार से जुड़े मेधावियों से की जा सकती है। इन प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों को ही नामवरजी की सभी किस्म की मदद अनायास मिलती रही । मार्क्सवादी छात्रों की मदद उन्होंने बहुत कम की ।
सवाल उठता है नामवरसिंह के भक्त प्रतिभाशाली छात्रों में कोई भी मार्क्सवादी आलोचक पैदा क्यों नहीं हुआ ? नामवरजी ने सैंकड़ो नियुक्तियां कीं।लेकिन देश में एक भी हिन्दी विभाग ऐसा निर्मित नहीं कर पाए जो अकादमिक गुणवत्ता का मानक हो। यहां तक कि इनदिनों जेएनयू के हिन्दी विभाग की स्थिति सामान्य स्तर की रह गयी है। यह प्रयोजनमूलक मार्क्सवाद का क्लाइमैक्स है।यह भक्ति का दुष्परिणाम है।
यह सच है कि नामवर सिंह बहुत बड़े विद्वान थे। खूब पढ़ते थे। खूब सुंदर पढ़ाते थे। लेकिन सुंदर मेधावी छात्र तैयार करने की कला एकदम नहीं जानते थे। विद्यार्थी को तरासना और शिक्षित-दीक्षित करना एकदम नहीं जानते। जेएनयू में हर विभाग में ऐसे शिक्षक रहे हैं जिन्होंने अपने शास्त्र के श्रेष्ठतम प्रयोगकर्ताओं को पैदा किया है। लेकिन नामवरसिंह की यह बड़ी कमजोरी रही है कि वे अपने जैसा परिश्रमी एक भी छात्र तैयार नहीं कर पाए।
एक अन्य चीज जो बार बार खटकती है कि वे सार्वजनिक तौर पर कुछ भी कहें लेकिन निजीतौर पर वे कभी जेएनयू कैंपस में हिन्दी में मार्क्सवादीचेतना और विचारधारा से लैस छात्र-छात्राओं को निर्मित नहीं कर पाए। एक मार्क्सवादी की सफलता तब मानी जाती है जब वह नई मार्क्सवादी पीढ़ी तैयार करे। नामवर सिंह का यह सबसे कमजोर पक्ष है।वे जाने जाते हैं मार्क्सवादी के रूप में लेकिन अध्यापन के दौरान वे एक भी अच्छा मार्क्सवादी तैयार नहीं कर पाए। नामवर सिंह के सबसे प्रिय और कृपापात्र वे छात्र रहे हैं ,और आज भी हैं,जो मार्क्सवादी नहीं हैं, या प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी हैं।फलतः आज जेएनयू के हिन्दी विभाग की कोई विशिष्ट पहचान नहीं है।नामवर सिंह के रहते हुए एक भी बेहतरीन अनुसंधान कार्य विभाग की ओर से सामने नहीं आया। जबकि जेएनयू के अनेक विभाग हैं जहां शिक्षक लगातार अनुसंधान करते रहते हैं और उनके नए शोध कार्य प्रकाशित होते रहते हैं। इसके बावजूद नामवर सिंह सारे देश में मार्क्सवाद के प्रतीक पुरूष के रूप में जाने जाते थे।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह कि उनके जेएनयू कार्यकाल के दौरान उनकी कोई आलोचना कृति सामने नहीं आई। सवाल यह है कि इतने बड़े ओहदे पर लंबे समय तक काम करने के बाद भी नामवरजी को मार्क्सवाद का कोई भी विषय लिखने के लायक महसूस क्यों नहीं हुआ ?जिस पर वे विस्तार से कभी लिखते।उन्होंने कभी किसी मार्क्सवादी परकिताब नहीं लिखी। किसी मार्क्सवादी सिद्धांत पर किताब नहीं लिखी।जबकि सारी दुनिया में मार्क्सवादियों ने मार्क्सवादियों और मार्क्सवादी सिद्धांत पर किताबें जरूर लिखी हैं। भारत में राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, रामविलास शर्मा आदि उदाहरण हैं। नामवरसिंह मार्क्सवाद पर किताब लिखने से क्यों भागते रहे , इसका कोई संतोषजनक उत्तर आज तक नहीं मिला है। असल में वे मनसा-वाचा मार्क्सवादी थे,कर्मणा व्यवहारवादी थे।
नामवर सिंह की चाह और सच्चाई में विशाल अंतराल है। वे जो चाहते थे वह उनको मिला। उन्हें नाम,यश,साख,विद्वत्ता,धन,पद आदि सब कुछ मिला। उनका अकादमिक दर्जा हमेशा से बहुत ऊँचा रहा। लेकिन उस दर्जे के अनुकूल उन्होंने कम लिखा। एक अकादमीशियन सिर्फ कक्षा और वक्तृता से नहीं पहचाना जाता बल्कि लेखन और शोध से पहचाना जाता है। बिडम्वना है कि नामवर सिंह ने आलोचना के रूप में बहुत लिखा,आलोचक के रूप में हजारों भाषण दिए, लेकिन एक भी नयी आलोचना की अवधारणा का निर्माण नहीं किया। आलोचना के नए मानक भी निर्मित नहीं कर पाए।
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