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170वें आविर्भाव दिवस पर विशेष : श्रीयुक्तेश्वरजी के दिव्य ज्ञान की झलकियाँ

Sachchi Baten Fri, May 9, 2025

रेणु सिंह परमार

“भविष्य में सब कुछ सुधर जायेगा यदि तुम अभी से आध्यात्मिक प्रयास शुरू कर दो।” — इन अविस्मरणीय शब्दों के माध्यम से स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी ने वर्तमान में आध्यात्मिक प्रयास करने के महत्व पर बल दिया, जिसके परिणामस्वरूप कोई भी व्यक्ति अपने भविष्य जीवन में सकारात्मक परिवर्तन उत्पन्न कर सकता है। उन्होंने अपने इन सारगर्भित शब्दों में सर्वोत्तम प्रयास करने के लिए एक स्पष्ट आह्वान किया है : “ईश्वर को पाने का अर्थ होगा सभी दुःखों का अन्त।” कितना महान् वचन : ईश्वर की खोज में, दुःखों से मुक्त, परम सुख और परम आनन्द से पूर्ण जीवन!

श्रीयुक्तेश्वरजी का पारिवारिक नाम प्रियनाथ कड़ार था। उनका जन्म 10 मई 1855 को पश्चिम बंगाल में श्रीरामपुर में हुआ था जहाँ उनके पिता एक धनवान व्यापारी थे। वाराणसी के महान् सन्त श्री लाहिड़ी महाशय के शिष्यत्व में वे गिरि सम्प्रदाय में स्वामी बने और उन्होंने “ज्ञानावतार” अथवा ज्ञान के अवतार की सर्वोच्च आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त किया।

स्वयं अमर गुरु महावतार बाबाजी ने ही युवा मुकुन्दलाल घोष, जो कालान्तर में परमहंस योगानन्द के नाम से विख्यात हुए, को श्रीयुक्तेश्वरजी के पास पश्चिम बंगाल में श्रीरामपुर स्थित उनके आश्रम में आध्यात्मिक प्रशिक्षण के लिए भेजा था। वाराणसी की एक संकरी गली में जब पहली बार उनकी भेंट हुई तो योगानन्दजी ने तत्क्षण एक गहन सम्बन्ध का अनुभव किया और उन्हें लगा कि अन्ततः उन्होंने अपने गुरु को पा लिया है, जिनका दिव्य चेहरा उन्होंने हजार बार अपने दिव्य दर्शनों में देखा था।

योगानन्दजी, अपने गुरु श्रीयुक्तेश्वरजी द्वारा प्रशिक्षित होकर, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को सर्वोच्च प्राचीन भारतीय ध्यान प्रविधि क्रियायोग से परिचित कराया। योगानन्दजी के आध्यात्मिक गौरव ग्रन्थ, “योगी कथामृत” ने वैश्विक स्तर पर लाखों लोगों को प्रभावित किया है और इसका 50 से अधिक भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। उन्होंने सन् 1917 में भारत में रांची में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) और सन् 1920 में अमेरिका में लॉस एंजेलिस में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना की, ताकि उनके द्वारा अपने गुरु के चरण कमलों में ग्रहण की गयी शिक्षाओं का प्रसार किया जा सके।

श्रीयुक्तेश्वरजी अपने शिष्यों के साथ अनुशासन में दृढ़ता बरतते थे और कहते थे, “जो मुझसे शिक्षा प्राप्त करने मेरे पास आते हैं उनके साथ मैं अत्यन्त कठोर होता हूँ...यही मेरा तरीका है। चाहे तो इसे स्वीकार करो या छोड़ दो, मैं कभी समझौता नहीं करता।” परन्तु उसके साथ ही, वे उनका बहुत ध्यान रखते थे जैसे एक माँ अपने बच्चों का ध्यान रखती है। योगी कथामृत के प्रकरण 12 में, योगानन्दजी बताते हैं कि अपने दिव्य गुरु की बाज-सदृश देखरेख में किस प्रकार से उनका आध्यात्मिक विकास हुआ था, यद्यपि वे अनेक बार उनके अनुशासन रूपी हथौड़े के प्रहार से तिलमिला उठते थे : “मेरे मिथ्याभिमान को तोड़ने वाले जो प्रहार उन्होंने किये, उनके लिए मैं अपरिमित रूप से उनका कृतज्ञ हूँ। कभी-कभी मुझे लगता था कि, लाक्षणिक तौर पर, वे मेरे प्रत्येक रुग्ण दाँत को उखाड़ते जा रहे थे।”

आध्यात्मिक रूप से इतने महान् होते हुए भी श्रीयुक्तेश्वरजी अत्यंत सरल और विनम्र थे। वे किसी भी तरह का दिखावा करने या अपनी आन्तरिक निर्लिप्तता को प्रकट करने में असमर्थ थे। स्वभावतः ही श्रीयुक्तेश्वरजी का मौन रहना उनकी अनन्त ब्रह्म की गहरी अनुभूतियों के कारण था तथा उनका प्रत्येक शब्द ज्ञान से पूर्ण होता था। योगानन्दजी ने भक्तिभाव के साथ कहा, “मुझे इस बात का आभास था कि मैं भगवान् के जीवन्त विग्रह के सान्निध्य में हूँ। उनकी दिव्यता का भार अपने आप ही मेरे मस्तक को उनके सामने नत कर देता था।”

महावतार बाबाजी जानते थे कि श्रीयुक्तेश्वरजी शास्त्रों के एक अद्वितीय व्याख्याकार हैं। इसीलिए उन्होंने भगवान् कृष्ण और ईसा मसीह की शिक्षाओं के बीच समानताओं पर प्रकाश डालने वाले एक ग्रन्थ की रचना करने का अनुरोध किया। उन्होंने सन् 1894 में प्रकाशित अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक “कैवल्य दर्शनम्” में अत्यंत सुन्दर ढंग से इस व्याख्या को प्रस्तुत किया।

योगानन्दजी प्रायः कहा करते थे कि श्रीयुक्तेश्वरजी “आसानी से एक सम्राट या विश्व को थर्रा देने वाले योद्धा बन सकते थे यदि उनका मन ख्याति या सांसारिक उपलब्धियों पर केन्द्रित होता। परन्तु इसके बदले उन्होंने क्रोध और अहंकार के उन आन्तरिक दुर्गों का विध्वंस करना पसन्द किया जिनके पतन में मनुष्य की चरम उपलब्धि निहित है।”