बाबा साहेब जयंती : डॉ. भीमराव अंबेडकर का भारतीय समाज में योगदान और उनकी विचारधारा की वर्तमान प्रासंगिकता

डॉ. ओम शंकर
डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर (1891–1956) जिनको हम बाबा साहब के नाम से भी पुकारते हैं वो भारतीय इतिहास के ऐसे महान विचारक, विधिवेता, समाज सुधारक और राजनेता थे जिन्होंने भारत में सामाजिक न्याय, समानता और लोकतांत्रिक मूल्यों को संस्थागत स्वरूप देने में क्रांतिकारी भूमिका निभाई।
उनका जीवन संघर्ष और बौद्धिक योगदान भारतीय लोकतंत्र की आत्मा हैं। आज मैं इस लेख के माध्यम से अंबेडकर साहब के बहुआयामी योगदानों का विश्लेषणात्मक मूल्यांकन करने का प्रयास करूंगा तथा उनकी विचारधारा की वर्तमान प्रासंगिकता पर भी प्रकाश डालने की कोशिश करेंगे।
अंबेडकर साहब संविधान निर्माण की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने मौलिक अधिकार, राज्य के नीति-निर्देशक तत्व, और समानता के सिद्धांत संविधान में सम्मिलित किए। अनुच्छेद 17 के अंतर्गत अस्पृश्यता का उन्मूलन उनके सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण का सशक्त उदाहरण है।
उन्होंने जाति-प्रथा और अस्पृश्यता के विरुद्ध जीवन भर संघर्ष किया। कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन जैसे आंदोलनों के माध्यम से उन्होंने दलितों के धार्मिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा की। शोषितों और वंचितों के अधिकारों की प्रबल वकालत की।
उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की और बाद में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का गठन किया। भारत के प्रथम कानून मंत्री के रूप में उन्होंने सामाजिक और विधिक सुधारों की नींव रखी। उन्होंने भूमि सुधार, सिंचाई परियोजनाओं और औद्योगीकरण की आवश्यकता पर बल दिया।
शिक्षा को मुक्ति का माध्यम मानते हुए उन्होंने दलित छात्रों के लिए विद्यालयों, छात्रावासों और छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की।
उनका प्रसिद्ध नारा "शिक्षित बनो, आंदोलन करो, संगठित हो" आज भी हमारे देश के कई सामाजिक आंदोलनों की रीढ़ है।
यह नारा विश्वव्यापी सामाजिक न्याय आंदोलन की विरासत का हिस्सा है। इस नारे की उत्पत्ति ब्रिटेन के सोशलिस्ट संगठन 'सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन (SDF)' से जुड़ी है, जिसके सदस्य एलीनोर मार्क्स (कार्ल मार्क्स की पुत्री) और विलियम मॉरिस जैसे विचारक थे। 1883 में प्रकाशित "Socialism Made Plain" नामक पैम्फलेट में यह नारा पहली बार दर्ज हुआ था।
SDF द्वारा दिए इस नारे को भारत में अंबेडकर साहब ने 1942 के 'ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेज़ कांफ्रेंस' में अपनाया और दलितों तथा वंचितों को सामाजिक जागरूकता, आंदोलन और संगठन के माध्यम से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया।
आज यह नारा जन आंदोलनों, छात्र संघर्षों और सामाजिक न्याय के लिए प्रेरणा का प्रमुख स्रोत है।
उन्होंने स्त्रियों को संपत्ति, शिक्षा और रोजगार में समान अधिकार दिलाने के लिए हिंदू कोड बिल का प्रारूप प्रस्तुत किया, जो उनके कार्यकाल में लागू नहीं हो सका। बाद के कांग्रेसी सरकारों ने कई हिस्सों में इनको लागू किया।
यद्यपि यह संसद में पास नहीं हो सका, परंतु इसने भारत में स्त्री अधिकारों की दिशा में विमर्श प्रारंभ किया। जातिवादी हिंदू धर्म से असंतुष्ट होकर उन्होंने 1956 में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया। यह कदम सामाजिक समानता, तर्कशीलता और करुणा के सिद्धांतों पर आधारित था।
अंबेडकर साहब की विचारधारा की वर्तमान प्रासंगिकता:
आज भी भारत जातिगत भेदभाव, सामाजिक विषमता और आर्थिक अन्याय की चुनौतियों से जूझ रहा है। डॉ. अंबेडकर के विचार इन समस्याओं का मार्गदर्शन करते हैं।
शिक्षा, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय, और संवैधानिक नैतिकता उनके विचारों के मूल स्तंभ हैं।
आरक्षण नीति, धर्मांतरण की स्वतंत्रता, स्त्री अधिकार और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों पर उनका दृष्टिकोण आज भी नीतियों और जन विमर्श को प्रभावित करता है।
छात्र, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और संवैधानिक संस्थाएं डॉ. अंबेडकर की विचारधारा से प्रेरणा प्राप्त करती हैं।
डॉ. अंबेडकर केवल भारत के संविधान निर्माता नहीं बल्कि सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, जातिगत उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक, और मानवाधिकार के वैश्विक प्रवक्ता थे। उनकी विचारधारा भारत की आत्मा में समाहित है और आधुनिक लोकतंत्र के मूल्यों को दिशा प्रदान करती है। उनका जीवन और विचार आज भी समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए संघर्ष करने वालों के लिए प्रेरणास्त्रोत बना हुआ है।
(लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के हृदय रोग विभाग के अध्यक्ष (पूर्व) हैं।)
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