विमर्श : डॉ. अंबेडकर और गांधी, पहले और बाद में ...

डॉ. बीएन सिंह
1931 में जब डॉ. अंबेडकर और गांधी पहली बार मिलते है तो गांधी डॉ. अंबेडकर को बोलते है। " मैं अछूतों की समस्या के बारे में तब से सोच रहा हूं जब आप पैदा नहीं हुये थे। इसके वावजूद आप मुझे उनका हितैषी नही मानते "
तब गांधी 62 साल के थे। अनुभवी और जानते थे कि भारत की ये समस्या सामाजिक है जिसे भारतीयों को ही समाधान करना होगा। लेकिन उसके लिए भारतीयों को खुद के पांव पर खड़ा होना होगा। यानी भारतीयों को स्वतंत्र होना पड़ेगा।
जीवित और शिक्षा लेने में अगर पहली प्राथमिकता आपको चुननी है तो आप जीवित रहना ही चुनेंगे। जब जीवित रहेंगे तभी आप शिक्षा की ओर ध्यान दे पाएंगे। डा. अंबेडकर ने यही चुना।
लेकिन उस वक्त अम्बेडकर जवान थे और जवानी में दुनियां बदल देने की ख्वाइश होती है। जवानी लोगों को रेडिकल भी बनाती है। तो डा.अंबेडकर का जबाब पढ़िए।।
उन्हें लगता था कि सामाजिक लड़ाई को पहले रखकर स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी जा सकती थी। नही ये कभी होता? गाँव मे भी कई टोला होते हैं और आपस मे मतभेद भी होते हैं। लेकिन जब बात दूसरे गांव से टकराव की हो तो सामाजिक बातों को एक तरफ रखकर पूरे गाँव का मसला बन जाता है । यही प्राकृतिक नियम भी है।
गांधी जानते थे। अनुभवी थे कि अंग्रेज़ो के लड़ाई में कांग्रेस को मज़बूत होना था । ऐसा नही था कि दलित कांग्रेस में नहीं थे। बहुत से दलित नेता भी तब कांग्रेस में थे। और छुआछूत जो समाज की तब क्या आज की भी एक दंश है तो अगर डा. अंबेडकर की बाते को मानकर गांधी नियम लगाते तो लड़ाई अंग्रेज़ो से नही अपनो से शुरू हो जाती। गांधी जानते थे कि मामला जीवित और शिक्षा का है। तो पहले जीवित रहने का प्रावधान चुना जाय। डा. अंबेडकर को ऊंचा दिखाने के लिए बड़े ही शातिराना तरीके से ये दिखाया गया है। गांधी अंबेडकर में मतभेद को नकारात्मक ढंग से ऐसा प्रस्तुत किया जाता है कि गांधी - अंबेडकर एक दूसरे के विरोधी थे, हां शुरू में बहुत से विंदुओं पर मतभेद रहे , यह स्वाभाविक था । दोनो की पृष्ठभूमि लालन पालन सोच मे अंतर था ,लेकिन मनभेद कभी नही रहा। गांधी अंबेडकर विचारों में मतभेद के बावजूद कभी वार्ता बंद नही किये, क्या गांधी- अंबेडकर न भी कभी गोलवलकर से इस मुद्दे पर बात की? कभी नहीं।
अब दूसरा तरफ भी देखिएगा।
ये बस समय का हर फेर हो चुका है। आज़ादी के बाद। गांधी की हत्या हो चुकी है और अम्बेडकर अब जवान नही बल्कि अधेड़ हो चुके है। और देखिये आज़ादी के बाद जिस व्यक्ति को ताकत दिया गया था कि कानून बनाये और कानून के मदद से ये सामाजिक दंश को निकाले तो वही अम्बेडकर कहते है कि ये सामाजिक समस्या है। और ये आसानी से हटाया नही जा सकता।यानि गांधीजो कल कह रहे थे आज वही बात डा. अंबेडकर अब कह रहे हैं कि यह सामाजिक समस्या है , इसे हटाने के लिए कानूनी से ज्यादा पूरे व्यवस्था को ही बदलना पड़ेगा जो असंभव है। मतलब गांधी के न रहने पर अंबेडकर वही भाषा बोलते हैं जो गांधी बोलते थे ।
सोचिए तब गांधी के पास गुलाम भारत था। उन्हें भारतीयों को एक जुट करना था। लेकिन तब अम्बेडकर अपनी जाति के एकजुट के आह्वाहन गांधी से चाहते है। और चाहते है कि गांधी अंग्रेज़ो से लड़ने का जो भी हथियार या अनुशासन के नियम बनाये उसके केंद्र में भारतीय नहीं बल्कि उनके जाति के लोग रहे। ये अम्बेडकर की अदूरदर्शिता दिखाता है। अम्बेडकर की मजबूरी थी कि समाज में पैदा हुये उसकी कुरितियां उनको जाति से बाहर सोचने से रोकती थी, गांधी बार बार कहते थे कि डा. अंबेडकर कीजगह मैं होता तो वही करता जो डा़ अंबेडकर कर रहे हैं। मैं उनके इस सोच पर कमी नही निकाल रहा लेकिन दूसरे भी वही सोचे ये ठीक नहीं था।
और जब खुद अम्बेडकर आज़ाद भारत मे एक बड़े नाम बन चुके हैं और दलित होने बाद भी एक ऐसी शख्सियत जिसे ताकत है अपने कलम से कानूनी जामा पहनाकर व्यवस्था बदलने की तो कहते है कि ये सामाजिक व्यवस्था आसानी से नही जाएगा। गांधी तो शुरू से यही कहते रहे।
याद रखिये अम्बेडकर महान है और रंहेंगे, इसमें दो राय नहीं। लेकिन जब गांधी नेहरू के सामने लाइन खिंची जाएगी तो अम्बेडकर की मानसिकता परिस्थितियों के कारण गांधी के सामने कमजोर साबित हो जायेगी ।
अम्बेडकवादी ये मान ले कि राष्ट्र का निर्माण भी खेती करने जैसा है। उन्नत बीज के अलावा। उपजाऊ खेती की जगह और किसान कि मेहनत, समय पर पानी, समय पर खर पतवार निकालना होता है। केवल उन्नत बीज से खेती नही कर सकते तो उसी प्रकार राष्ट्र निर्माण में केवल अम्बेडकर की सोच से राष्ट्र निर्माण नही हो सकता।
गांधी नेहरू की सोच को भी लाना होगा।
देखिये अम्बेडकर की अदूरदर्शिता की आज़ादी के कुछ साल बाद कि संसदीय लोकतंत्र को नकार रहे है। सोचिये अगर सावरकर की सेना को भारत मिला होता तो अम्बेडकर का नाम कहा होता। गांधी तो फिर भी होते विरोध में ही सही लेकिन अम्बेडकर तो गायब होते। आज सावरकर के सोच की सरकार है तो दलितों के साथ क्या हो रहा है? पूना पैक्ट को येन केन प्रकारेण खतम करने की बात हो रही है। आज गांधी तो नहीं हैं।
आरएसएस ने अम्बेडकर के इसी विरोध को जांचा और फिर रणनीति बनाई की अगर दलितों को कांग्रेस से अलग करना है तो जीवित अम्बेडकर नही बल्कि मृत अम्बेडकर ही काम आएंगे। और कासीराम और मायावती कैसे मदद कर रहे हैं बीजेपी का ? और संघ जो जितेजी अंबेडकर को देखना नहीं चाहते थे , आज उनकी सोने की मूर्ति बनाकर उनको अपहरण करने पर लगे हैं लेकिन अंबेडकर को पचाना इनके बस की बात नहीं , जब जब अंबेडकर को निगलने की कोशिश करेंगे उल्टी हो जायेगी। यह देश गांधी नेहरू अंबेडकर को हटाकर क्या दलितों वंचितो मजलूमों के साथ न्याय कर सकता है ? कभी नहीं ...
(लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं।)
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