प्रसंगवश : और किसी की भावना आहत हो कोई बात नहीं, ब्राह्मणों की बिल्कुल नहीं होनी चाहिए

राजेश पटेल
महात्मा ज्योतिराव फुले और माता सावित्री बाई फुले के जीवन संघर्षों पर आधारित फिल्म फुले की रिलीज को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) ने रोक दिया। मुद्दा बनाया कुछ जातिसूचक शब्दों को। कहा है कि महार, मांग, पेशवाई और मनु की व्यवस्था जैसे शब्दों को फिल्म से हटा दिया जाए। सेंसर बोर्ड ने इस शब्दों को संवेदनशील कहा है। अब इस फिल्म की रिलीज 21 अप्रैल को होनी है।
जिस देश में चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई, यहां तक कि कुछ मामलों में कोर्ट को भी प्रभाव में लेने की पुरजोर कोशिशें हो रही हों, वहां सेंसर बोर्ड का यह आदेश कत्तई चौंकाने वाला नहीं है। जहां कश्मीर फाइल्स, द केरला स्टोरी जैसी फिल्मों को पूरी की पूरी सरकार ऐलान करके देखती हो, वहां तो एकदम चौंकाने वाला नहीं है।
महात्मा फुले और माता सावित्रीबाई फुले ने उस दौर में मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी, जब दलितों को पढ़ाई करने का अधिकार नहीं था। सार्वजनिक तालाबों और कुओं से पानी लेने की मनाही थी। लड़कियों को पढ़ना मना था। ब्राह्मण आधिपत्य और दमनकारी जाति व्यवस्था की आलोचना की।
न्होंने दलितों और अन्य हाशिए पर पड़ी जातियों के अधिकारों और सम्मान की वकालत करके ब्राह्मणों के श्रेष्ठता के दावे को चुनौती दी। फुले ने तर्क दिया कि जाति व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक असमानता को कायम रखती है और इसके उन्मूलन का आह्वान किया।
ज्योतिबा फुले ने अपने समय में प्रचलित विभिन्न प्रतिगामी सामाजिक प्रथाओं के खिलाफ सक्रिय रूप से अभियान चलाया। उन्होंने अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई लड़ी, सती प्रथा (विधवाओं का बलिदान) को खत्म करने के लिए काम किया और विधवा पुनर्विवाह की वकालत की। फुले ने सभी व्यक्तियों को उनकी जाति या लिंग के बावजूद शिक्षा और रोजगार के समान अवसर प्रदान करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।
पहली महिला शिक्षक सावित्री बाई फुले के ऊपर स्कूल जाते समय ब्राह्मणों द्वारा कीचड़ फेंकना, ताकि उनकी साड़ी गंदी हो जाए, इसे कौन भुला सकता है। सावित्री बाई फुले इसीलिए अतिरिक्त साड़ी लेकर स्कूल जाती थी।
जाति के नाम पर जहां अन्याय किया गया हो, वहां यदि जाति सूचक शब्दों को हटा दिया जाएगा, तो फिर फिल्म में रह ही क्या जाएगा। जो किया है उसे देखने में शर्म क्यों आ रही है? औरंगजेब की कब्र खोदने में तो बहुत मजा आ रहा है। संभल में मस्जिद खोदने में तो परमानंद है।
आश्चर्य की बात यह है कि सेंसर बोर्ड के इस निर्णय के खिलाफ ज्योतिबा फुले और माता सावित्री बाई फुले की जयंती और पुण्यतिथि के दिन उनके चित्रों पर फूल चढ़ाने वाले और अपने भाषणों की शुरुआत में इनको नमन करने वालों की ओर से खुद ही विरोध के स्वर नहीं फूटे तो अपने समर्थकों का इसके लिए आह्वान कैसे करते। एक्स (पूर्व नाम ट्विटर) पर भी कुछ नहीं लिखा।
फुले कहते थे...मंदिर का मतलब होता है मानसिक गुलामी का रास्ता...। स्कूल का मतलब होता है जीवन में प्रकाश का रास्ता...।मंदिर की जब घंटी बजती है, तब हमें संदेश देती है कि हम धर्म, अंधविश्वास, पाखंड और मूर्खता की ओर बढ़ रहे हैं...। वहीं जब स्कूल की घंटी बजती है तब ये संदेश देती है कि हम तर्कपूर्ण ज्ञान और वैज्ञानिकता की ओर बढ़ रहे हैं...। अब तय आपको करना है कि आपको कहां जाना है?
आज की सरकार स्कूलों को बंद कर रही है और मंदिर बनी रही है और बने मंदिरों की सुरक्षा कर रही है। महात्मा ज्योतिबा फुले के विचारों के बिल्कुल विपरीत। फिर सरकार को फुले पर फिल्म कैसे पचेगी? ब्राह्मणवादी विचारधारा के इन पोषकों को भांडा फूटने का डर जो सता रहा है। इसीलिए ब्राह्मण महासंघ के अध्यक्ष आनंद दवे से सेंसर बोर्ड में आपत्ति दर्ज कराई। बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी, सदस्य विद्या बालन जैसों की कहां औकात कि अपने आका की मंशा को न भांपें।
एनसीपी (शरद पवार) नेता जितेंद्र आव्हाड ने कहा, ‘इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता, उससे केवल सीख ली जा सकती है। महात्मा ज्योतिराव फुले से जुड़ी फिल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है, वह एक ऐतिहासिक सत्य है। सत्य को नकारा या बदला नहीं जा सकता। इस देश के समाज सुधारकों में महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले का नाम सबसे आगे है.. जो सच है, उसे दिखाया जाना चाहिए।’
फिल्म के निर्देशक अनंत महादेवन ने कहा कि फुले फिल्म को गहन शोध के बाद बनाया गया है, और इसकी विषयवस्तु कई पुस्तकों और ऐतिहासिक स्रोतों से ली गई है।
महात्मा फुले और माता सावित्रीबाई फुले की समतावादी विचारधारा को मानने का दावा करने वाले इस देश में करोड़ों हैं। लेकिन कुछेक की टिप्पणी ही एक्स (ट्विटर) पर है। कथित रूप से सामाजिक न्याय की विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं की ओर से कोई भी हलचल नहीं सुनाई दी। इनमें से ज्यादातर तो संघी सरकार की पालकी ही ढोने वाले हैं, इनसे तो सेंसर बोर्ड के निर्णय के विरोध की उम्मीद बिल्कुल ही नहींं है, लेकिन जो पीडीए का नारा जोर से लगाते हैं, उनकी तरफ से भी कोई टिप्पणी कहीं नजर नहीं आई।
सबसे बड़ा डर यह है कि फिल्म निर्देशक अनंत महादेवन के समर्थन में फूले दंपत्ती को पूजने वाले लोग नहीं आए तो देश ब्राह्मणों द्वारा पूर्व में किए गए अत्याचार, अनाचार की सच्चाई से रूबरू होने से वंचित हो जाएगा। कोई समर्थन नहीं करेगा तो महादेवन के मजबूरी में महार, मांग, पेशवाई और मनु की जाति व्यवस्था जैसे शब्दों को फिल्म से हटाना पड़ेगा ही। आखिर निर्माता भी पैसा लगा है। कहारों फिर बजाना हिजड़ों की तरह ताली। हालांकि अभी क्या कम बजा रहे हो। बाबा साहेब के संविधान को मानने का दावा करने वालों क्या यह बताने का साहस है कि किसी बिल का विरोध करने पर नोटिस देना किस कानून के तहत आता है। बता सको तो माना जाए कि जिंदा हो और अपने पैरों पर खड़े हो। इन लोगों का नेतृत्व कर रहे हो, जो जिंदा हैं। वरना इतिहास में लिखा जाएगा कि सामाजिक न्याय के नाम पर 21वीं सदी में कुछ राजनीतिक दलों ने संघी विचारधारा की ही सुरक्षा की।
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