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कुंभ 2025 : बीबीसी पड़ताल के अनुसार मौतें तो हुईं, पर नामों का रिकॉर्ड क्यों नहीं!

Sachchi Baten Wed, Jun 11, 2025

राजगोपाल सिंह वर्मा

29 जनवरी 2025 को मौनी अमावस्या के दिन प्रयागराज में कुंभ का सबसे बड़ा स्नान था। लाखों लोग उमड़े थे, और वहीं एक भगदड़ मच गई। उत्तर प्रदेश सरकार कहती रही — “केवल 37 मौतें हुईं।” लेकिन BBC हिंदी की ज़मीन से की गई रिपोर्टिंग कुछ और ही कहती है — “कम से कम 82 लोग मरे।” और कुछ आंकड़े 87 तक भी पहुँचते हैं।

अब सवाल ये है — इन मरे हुए लोगों के नाम कहाँ हैं?

सरकार ने कोई सूची जारी नहीं की। न कोई वेबसाइट, न कोई सार्वजनिक दस्तावेज़। BBC ने कुछ नामों का ज़िक्र किया — जैसे गोंडा के ननकन, बेलगावी के अरुण कोपारडे — लेकिन बाक़ी? 82 मौतों की पुष्टि करने वाली BBC रिपोर्ट बताती है कि इन परिवारों के पास अस्पताल की रसीदें, पोस्टमॉर्टम रिपोर्टें, फोटो-वीडियो सब मौजूद हैं। फिर भी न मुआवज़ा मिला, न सरकारी मान्यता। कुछ परिवारों को ₹25 लाख का चेक मिला, तो कुछ को सिर्फ ₹5 लाख नकद — वो भी शर्त के साथ कि मौत भगदड़ से नहीं, “बीमारी” से मानी जाएगी। और 19 परिवार तो ऐसे हैं जिन्हें कुछ भी नहीं मिला। ना मुआवज़ा, ना सूची में नाम, ना सरकार की संवेदना।

सवाल उठता है कि क्या एक लोकतंत्र में मरे हुए लोगों की पहचान तक दबा दी जाती है? क्या मौतें अब सिर्फ आंकड़ों की 'प्रेस रिलीज़' बनकर रह गई हैं? क्या कुंभ जैसे आयोजनों में प्रशासनिक उदासीनता का यही है कि जो मरे, उनका नाम तक अंकित न रहे? जबकि पूरा तंत्र सरकार के पास है।

कुंभ खत्म हो गया, लेकिन दर्जनों परिवार अब भी अपनों के नाम के साथ न्याय की प्रतीक्षा में हैं। यह सवाल है कि

नाम कहाँ हैं? इंसाफ़ कब मिलेगा? और अगली ऐसी किसी भगदड़ में क्या हम फिर सिर्फ ‘संख्या’ गिनेंगे?

बात BBC की! क्या उनकी रिपोर्ट सटीक थीं और पूर्वाग्रही नहीं थी?

BBC हिंदी ने प्रयागराज कुंभ 2025 की भगदड़ में मारे गए कम से कम 82 लोगों की पुष्टि तो की, लेकिन उन्होंने इन सभी मृतकों की पूरी नामावली (सूची) सार्वजनिक रूप से जारी नहीं की। उनकी नीति है कि किसी मृतक की पहचान तब तक सार्वजनिक न की जाए जब तक परिजन की स्पष्ट अनुमति न हो।

उन्होंने कई मामलों में पीड़ित परिवारों ने बातचीत की, पर वे सार्वजनिक रूप से नाम सामने लाने के लिए मानसिक या सामाजिक रूप से तैयार नहीं होते। खासकर तब, जब कुछ मामलों में मुआवज़ा “गोपनीय शर्तों” पर दिया गया हो।

दूसरी बात यह कि BBC एक मीडिया संस्थान है, कोई सरकारी जांच एजेंसी नहीं। वे स्वयं को “एक संपूर्ण और अंतिम सत्य” का स्रोत नहीं मानते, बल्कि उनका कार्य है प्रश्न उठाना, विसंगतियाँ उजागर करना, न कि “न्यायिक सूची” बनाना। यदि वे नाम जारी करते और उनमें कोई त्रुटि होती, तो विवाद या कानूनी चुनौतियाँ हो सकती थीं।

कुछ परिवारों ने ऑफ द रिकॉर्ड जानकारी दी होगी। यदि BBC नाम जारी करता, तो इससे उन परिवारों की सुरक्षा, सामाजिक स्थिति या सरकारी दबाव का ख़तरा होता।

खासतौर पर जब कुछ मुआवज़े “शर्तों” पर दिए गए थे, और रिपोर्ट में इसका स्पष्ट उल्लेख है।

BBC ने “कम से कम 82 मौतों” की बात कहकर सरकार के “37 मौतों” के दावे को चुनौतीपूर्ण और अस्थिर बना दिया। उनका मुख्य उद्देश्य था — मृतकों की संख्या को लेकर सरकारी झूठ उजागर करना, न कि हर एक का जीवन वृत्तांत जारी करना। यह रणनीति पत्रकारिता में “संख्यात्मक विसंगति के माध्यम से नैतिक दबाव” कहलाती है।

भारत में मृतकों की पहचान उजागर करना, खासकर तब जब सरकारी पुष्टि नहीं हो, मीडिया आचार संहिता और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की गाइडलाइनों के विरुद्ध हो सकता है। BBC को अपने संपादकीय दिशा-निर्देशों और अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता मानकों का पालन करना होता है।

सम्भवतः BBC ने पूरी सूची इसलिए नहीं जारी की क्योंकि

उन्हें हर नाम के सार्वजनिक प्रकाशन की अनुमति नहीं मिली, उनके पास केवल पत्रकारिक स्रोत थे, सरकारी पुष्टि नहीं, और ऐसा करना कई स्तरों पर संवेदनशील, जोखिमपूर्ण और नैतिक रूप से उलझनभरा हो सकता था।

फिर भी, BBC की रिपोर्ट ने जो किया — वह एक सशक्त पत्रकारिता का उदाहरण है। पूरी सूची जारी करना सरकार और आयोगों का काम है, मीडिया का नहीं। पर यक्ष प्रश्न वही है -- क्या यह काम भारतीय मीडिया नहीं कर सकता था?

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