बिरसा के बहाने झारखंडियों को करेंगे साधने की कोशिश
-15 नवंबर को भगवान बिरसा की जन्मस्थली उलिहातु जाएंगे पीएम मोदी
-झारखंड के साथ ओडिशा के जनजातीय समुदाय को देंगे संदेश
-भगवान बिरसा की जयंती पर कर सकते हैं बड़ी योजनाओं की घोषणा
-इसी दिन झारखंड राज्य की हुई थी स्थापना भी
-आनंद हेरिटेज गैलरी धनबाद के संस्थापक अमरेंद्र आनंद ने की बिरसा पर स्मारक सिक्का जारी करने की मांग
राजेश पटेल, खूंटी (सच्ची बातें)। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 15 नवंबर को झारखंड के खूंटी जिले के उलिहातु गांव जाएंगे। उलिहातु गांव में 15 नवंबर 1875 को महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भगवान बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। 15 नवंबर को ही अलग झारखंड राज्य की स्थापना भी हुई थी।
लोकसभा चुनाव सन्निकट है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस यात्रा को भी भी चुनावी नजरिए से देखा जा सकता है। वह झारखंड के भगवान बिरसा के बहाने झारखंड और पड़ोसी राज्य ओडिशा के जनजातीय समुदाय को साधने की कोशिश करेंगे। इसके लिए वह बड़ी योजनाओं की घोषणा कर सकते हैं। लेकिन एक मांग संग्राहकों की ओर से भी की जा रही है। वह यह है कि उनके संग्रह में देश-विदेश के साथ झारखंड की तमाम पुरातन चीजें हैं। डाक टिकट हैं, सिक्के हैं। मेडल हैं। लेकिन भगवान बिरसा पर स्मारक सिक्का उनके संग्रह में नहीं है।
आनंद हेरिटेज गैलरी धनबाद के संस्थापक अमरेंद्र आनंद ने कहा है कि उन्होंने पिछले दिनों भारत सरकार , झारखंड सरकार एवं भारत देश के चारों मुद्रा टकसाल से बिरसा मुंडा पर स्मारक सिक्के मुद्रित करने का आग्रह किया है। एक बार फिर बिरसा मुंडा की जयंती एवं झारखंड स्थापना दिवस पर 15 नवंबर को स्मारक सिक्के जारी करने का आग्रह करते हैं।
जानिए कौन थे बिरसा मुंडा
बिरसा मुंडा ने 25 साल की कम उम्र में ही अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। वह एक स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी नेता थे। इतना ही नहीं आदिवासी समुदाय के लोग तो उन्हें भगवान मानते थे।
बिरसा मुंडा ने न केवल आजादी में योगदान दिया था, बल्कि उन्होंने आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए भी कई कार्य किए थे। भले ही बिरसा मुंडा बहुत कम उम्र में शहीद हो गए थे, लेकिन उनके साहसिक कार्यों के कारण वह आज भी अमर हैं।
धर्मांतरण का शिकार हुए थे बिरसा मुंडाबिरसा मुंडा ने बहुत कम उम्र में अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। अंग्रेज भी उनसे खौफ खाने लगे थे। उन्होंने ये लड़ाई तब शुरू की थी, जब वो 25 साल के भी नहीं हुए थे। उनका जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था। उन्हें बांसुरी बजाने का शौक था। वह पढ़ाई में भी होशियार थे।
ईसाई धर्म को त्यागाउनकी शुरुआती पढ़ाई सलगा से हुई थी, लेकिन उन्हें जर्मन मिशन स्कूल भेज दिया गया, जहां वे ईसाई बन कर बिरसा डेविड हो गए थे। वहां पढ़ाई करने के दौरान उन्हें ब्रिटिशों द्वारा धर्मांतरण कराए जाने का पूरा खेल समझ आ गया था, जिसके चलते उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और साथ ही साथ ईसाई धर्म को भी त्याग दिया था। ईसाई धर्म का परित्याग करने के बाद उन्होंने अपना नया धर्म ‘बिरसैत’ शुरू किया था। जल्द ही मुंडा और उरांव जनजाति के लोग उनके धर्म को मानने लगे थे।
आदिवासियों के भगवान माने जाने वाले बिरसा मुंडा की संघर्ष की शुरुआत चाईबासा में हुई थी, जहां उन्होंने 1886 से 1890 तक चार वर्ष बिताए। वहीं से अंग्रेजों के खिलाफ एक आदिवासी आंदोलन की शुरुआत हुई। उन्होंने ठान लिया था कि वो अंग्रेजों को सबक सिखा कर ही रहेंगे।
‘मुंडा राज शुरू’बिरसा मुंडा के भाषणों से लोग बुहत प्रभावित हुए थे। उन्होंने अंग्रेजों को कमजोर करने के लिए उन्हें कोई टैक्स न देने की अपील की थी। उन्होंने यह भी घोषणा कि थी कि अब विक्टोरिया रानी का राज खत्म हो गया है और मुण्डा राज शुरू हो गया है। मुण्डा उन्हें धरती आबा कहने लगे थे।
अंग्रेजों की नाक में किया दमलोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ लगान माफी के लिए आंदोलन की शुरुआत कर दी। जिससे जमींदारों के घर से लेकर खेत तक भूमि का कार्य रुक गया। सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन बौखला गया।
दरअसल, अंग्रेजों ने आदिवासियों को उनकी ही जमीन के इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी थी और साहूकार उनकी जमीनों को हथिया रहे थे। अपनी जमीन को फिर से पाने के लिए मुंडा समुदाय के लोगों ने आंदोलन की शुरुआत की और इसे ही ‘उलगुलान’ का नाम दिया था।
बिरसा को पकड़ने के लिए रखा गया 500 रुपये का इनामबिरसा मुंडा ने पुलिस स्टेशनों और जमींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया था। ब्रिटिशों के झंडों को उखाड़कर सफेद झंडा लगाया जाने लगा, जो मुंडा राज का प्रतीक था। मुंडा के इतना करने भर से ही ब्रिटिशों की नाक में दम हो गया।
उन्होंने बिरसा को पकड़ने के लिए 500 रुपये का इनाम रखा था, जो उस जमाने में बड़ी रकम हुआ करती थी। पहली बार 24 अगस्त 1895 को उन्हें गिरफ्तार किया गया था। उनको दो साल की सजा हुई थी, लेकिन जेल में रहने के दौरान अंग्रेजों से बदले की भावना और तेज हो गई थी। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन करने के लिए अपने लोगों के साथ गुप्त बैठकें शुरू कर दी थीं।
डोम्बारी पहाड़ पर सैनिकों से मुठभेड़सन् 1900 आते-आते बिरसा का संघर्ष छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था। सन 1899 में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष काे और अधिक मजबूत कर लिया था। उस दौरान आदिवासी विद्रोह इतना बढ़ गया था कि रांची के जिला कलेक्टर को सेना की मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
400 आदिवासियों की गई थी जानडोम्बारी पहाड़ी पर सेना और आदिवासियों की भिड़ंत हुई थी, जिसमें 400 आदिवासी मारे गए थे लेकिन अंग्रेज पुलिस ने सिर्फ 11 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी। अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों के बढ़ते विरोध के चलते ब्रिटिशों को अपनी सरकार गिरने का डर सताने लगा था। इसी के चलते उन्होंने इसे रोकने के लिए साजिश रची थी। अंग्रेजों ने उन्हें रोकने के लिए गिरफ्तारी वारंट निकाल दिया था। जिसके चलते 3 मार्च साल 1900 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।
जेल में जाने से पहले उन्होंने अंग्रजों के खिलाफ लड़ने का बिगुल फूंक दिया था। भले ही उनकी गिरफ्तारी हो गई थी, लेकिन लोगों के लिए वह तब भी भगवान के समान थे। जेल में जाने के बाद दिन पर दिन उनकी तबीयत खराब होती चली गई थी। नौ जून 1900 को उन्होंने जेल में ही आखिरी सांस ली थी।