चुनार की खूबसूरती ऐसी कि निहारते ही रह जाएंगे आज
इन्हीं किलों व कंदराओं को आधार बनाकर देवकीनंदन खत्री ने लिखा है तिलिस्मी उपन्यास चंद्रकांता
धर्मेंद्र यादव
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देश या विदेश में आप कहीं भी रहते हों, जब भी मौका मिले, चुनार घूमने जरूर आएं। यहां ऐतिहासिक स्थलों के अलावा प्रकृति की खूबसूरती आपका स्वागत करेगी। हरे-भरे पहाड़, ऐतिहासिक दुर्ग, गंगा की लहरें, धार्मिक स्थल, कल-कर करते झरने आपको आसानी से वापस जाने नहीं देंगे।
चुनार से लगभग 17 किमी दूर सक्तेसगढ़ में सिद्धनाथ की दरी है। प्राकृतिक सौंदर्य का खजाना है यह। बरसात भर यहां सैलानियों का तांता लगा रहता है। इसी के पास शक्तेशगढ दुर्ग है, जिसके बारे में आप टीवी सीरियल चंद्रकांता में जान चुके होंगे। यह दुर्ग चुनार से दक्षिण 18 किलोमीटर की दूरी पर 24.5 8उत्तरी अक्षांश एवं 40.50. पूर्वी देशांतर पर बना है।
यह किला सम्राट अकबर के समय कोलों पर नियंत्रण रखने के लिए राजा शक्ति सिंह ने अकबर से अनुमति लेकर बनवाया था। घने वन के मध्य बना यह दुर्ग चारो ओर से सुरक्षित है। इसे दो पर्वत श्रेणियों के मध्य एक संकरे मार्ग पर बनवाया गया है। इस किले के पास एक छोटा देवालय भी है। इसके सम्बन्ध में ऐसा सुना जाता है जिस जगह को गढ़ निर्माण हेतु पहली बार चुना गया था, वह एक दुर्गम गुफा के अत्यंत निकट पड़ती थी। इसमे उस समय के समर्थ साधक सिद्धनाथ रहते थे।
गढ़ निर्माण की बात सिद्धनाथ जी ने जब सुनी तो उन्होंने राजा से दो बातें कहीं। पहली यह कि उन्हें किसी भी शांतिपूर्ण स्थान पर रहने दिया जाएऔर दूसरी यह कि वह जहां कहें, वहां दुर्ग बने। सिद्धनाथ की बात मानते हुए राजा ने उनसे दुर्ग के भीतर रहने की प्रार्थना की। आगे चलकर जब दुर्ग का निर्माण हुआ, तब सिद्धनाथ जी अन्यंत्र चले गए और उन्होंने दुर्ग में रहने के लिए अपने भाई भूपतिनाथ को भेज दिया। बाद में इसी भग्न आधार भीत्ति के भीतर बने देवालय में भूपतिनाथ रहते थे।
यह दुर्ग जब कंतित नरेश के अधीन आया तो उन्होंने इसमें पहली बार प्रवेश करने पर इसके मुख्य द्वार के बाहर एक भैंसे की बलि दी थी। भैंसे की बलि की कथा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि किसी समय मोहनवादी सेनापति ने इस पर अधिकार हेतु आक्रमण किया। किन्तु वह असफल रहा। इस प्रयास में वह मार डाला गया तथा उसकी आत्मा किले के द्वार पर झूलने लगी। इस पर किले के भीतर डर के कारण लोग रहने से कतराने लगे। तब राजा ने इसके निवारण के लिए सिद्धनाथ से प्राथना की। सिद्धनाथ जी ने फिर उसी स्थान पर भैस की बलि देकर मोहनवादी की दुष्टात्मा को वहां से हटा दिया।
अकबर के पूर्व जब यह दुर्ग नहीं बना था, तब यहां कोलों का अधिकार था तथा इस क्षेत्र को इसलिए कोलना भी कहा जाता था। इसके आस पास के गांव में कोल भील और मुसहर तथा दलित जाति के लोग रहते थे। यहा के कोल इतने शक्तिशाली थे कि अंग्रेजों के पूर्व वे सरकार या राजाओं को कोई कर नहीं देते थे।
जरगो नदी के तट पर बने इस दुर्ग में बुर्ज बने हुए हैं। इसमें एक शीश महल तथा अतिथि भवन भी है। किसी समय यहां लोग कंतित नरेश की आज्ञा से लोग रहते थे। जंगली जानवरों का शिकार करते थे। यहां हिंसक पशुओं की संख्या बहुत ज्यादा थी। अंग्रेजों के समय में यहां अनेक अधिकारी शिकार के लिए आया करते थे।
इस दुर्ग के आंगन के पिछवाड़े से नदी जल तक सुरंग भी बनी हुयी थी, जिसमें से होकर रनिवास की महिलाएं स्नान करने के लिए जाती थीं। दुर्ग के चारो ओर खाइयों के बनाने से यह दुर्ग अपने समय में सबसे सुरक्षित दुर्ग माना जाता था। एक समय इस दुर्ग के पास बने पक्के घाटों पर लोग घड़ियालों का भी शिकार करते थे, लेकिन अब यह सब यहां विलुप्त हो चुका है। घने जंगलों के काटे जाने से यहां निर्जनता बढ़ी, किन्तु हरीतिमा कम हो गयी।
आजकल यहां इस दुर्ग में परमहंस आश्रम स्थित है, जहां स्वामी अड़गड़ानन्द महाराज जी रहते हैं। पहले यहां की यात्रा अत्यंत दुर्गम और कठिन थी, लेकिन चुनार से राबर्ट्सगंज चुर्क रेल लाइन का जब 14 जनवरी 1954 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उद्घाटन किया, तब ये उपेक्षित क्षेत्र भी आवागमन के योग्य हो गया।
अब यहा सड़क एवं रेल मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। सिद्धनाथ की दरी इन दोनों मार्गो के अत्यंत निकट है। इस दुर्ग से लगभग डेढ़ किलो मीटर दक्षिण दिशा में बढ़ने पर जो अंतिम शिलाखंड की चोटी है, वही एक कंदरा है। यही सन्त साधक सिद्धनाथ जी की तपस्या स्थली है।
जैसा पहले कहा गया है कि राजा शक्ति सिंह इसी के पास दुर्ग का निर्माण कराना चाहते थे, किन्तु सिद्धनाथ के आदेश पर उन्होंने वर्तमान दुर्ग का निर्माण डेढ़ किमी पीछे करवाया। पिछले वर्षों से इसके अवशेष दिखलाई पड़ते रहे। इसी कंदरा के निकट सिद्धनाथ जल प्रपात है, जो नीचे लगभग 300 फीट की घाटी में गिरता है।
वर्षाकाल में जब अच्छी वर्षा हो जाती है, तब यह जल प्रपात अपनी पूरी क्षमता से गिरने लगता है। प्रपात का दृश्य अत्यंत मनोरम और मुग्धकारी है। लोग यहां आने पर घंटों इस प्रपात को देखते हैं। इस प्रपात वाले शिलाखण्ड के ठीक बीच वाला शिलाखण्ड मुख्य शिलाखण्ड के किनारों के सहारे टिका है। मध्य वाला भाग प्रपात के मध्य किसी पुल की भांति लटक रहा है।
इसके ऊपर और नीचे बहने वाला प्रपात का जल घाटी के आधार पर बनी झील में एकत्र होता है, लेकिन प्रपात के ऊपर से देखने पर इसकी विशालता स्पष्ट प्रतीत होती है ।प्रपात का जो जल नीचे घाटी स्थित छोटी झील में एकत्र होता है, यही जरगो नदी की उद्गम स्थल है।
स्वतंत्रता के पूर्व जब यातायात के साधनों का अभाब था, तब जोखिम उठाने वाले सैलानी ही यहां आते थे। सन 1954 में रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग बन जाने से लोगों की भीड़ यहां बढ़ती जा रही है। अब तो वर्षा काल में हर रविवार को यहां हजारो गाड़ियां और सैलानी इकठ्ठे हो जाते हैं। अब इस पहाड़ी भूमि पर अन्य स्थानों से आकर लोग बस रहे हैं, खेती करा रहे हैं। इन सबके बावजूद अपनी निर्जनता तथा गुहा, कंदराओं के कारण किसी तिलिस्मी उपन्यास के भांति लगता है और इन्हीं रहस्यमयी स्थानों को अपनी कल्पना शक्ति के बल पर स्वर्गीय खत्री ने अद्भुत बनाकर अपने उपन्यासों में अमर कर दिया है। आप भी आइये इस तिलिस्म में खो जाने के लिए। प्रसिद्ध लोकगायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी सिद्दनाथ की दरी के सौंदर्य में किस तरह से खोयी हैं, आप नीचे के चित्र में देखेें।