स्थापत्य कला की अद्भुत कलाकृतियां हैं चुनार दुर्ग की भैरो गुफा के अंदर
धर्मेंद्र यादव, चुनार (मिर्जापुर)। प्रसिद्ध उपन्यास लेखक देवकीनंदन खत्री द्वारा जिस चुनार गढ़ को आधार बनाकर चंद्रकांता संतति लिखा गया, उस गढ़ का इतिहास बहुत पुराना है। यहां ऐसी गुफाएं हैं, जिनके बारे में आज भी बहुत लोग नहीं जानते। इसी तरह से किला परिसर में ही एक मंदिर है बूढ़े महादेव का। जो भैरो गुफा के अंदर है। यह चुनार दुर्ग के दक्षिणी वाह्य भाग में भैरो गुफा के अंदर हैं। इस गुफा की खोज भी अपने आप में चकित करने वाली है।
जैसा कि आप सबको मालूम है चुनारगढ़ का किला एक विशाल विन्ध्यपर्वत खण्ड पर स्थित है। बाद में इस पर किला बना। उस समय चरण के आकार का होने के कारण इसे चरणाद्रिगढ़ कहा गया। कालांतर में चरणाद्रिगढ़ बिगड़ते बिगड़ते चुनारगढ़ हो गया।
इस दुर्ग के भी निर्माण की अद्भुत कथाएं लोगों द्वारा कही जातीं है। अनेक पुस्तकों एव इतिहास में भी मिलता है इसे सामान्य तौर पर पांच हजार वर्ष प्राचीन माना जाता है। अतः भैरो गुफा भी इतनी पुरानी होनी चाहिए।
सन 1989 में यह गुफा देखी गई। उस समय यह गुफा एक पहाड़ी चट्टान से ढकी हुई थी, जो सम्भवतः प्राचीन काल में नीचे लुढ़क आई थी। हुआ ऐसा कि उपरोक्त वर्ष में दुर्ग की बाहरी दीवार की मरम्मत के सिलसिले में इसके चारों ओर की मिट्टियां हटाई जा रही थीं। तभी गिरी पड़ी चट्टान के एक छिद्र से किसी राजगीर को गुफा में स्थित मन्दिर में एक मूर्ति की झलक मिल गई।
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इसकी सूचना तुरन्त उस राजगीर ने किले में उपस्थित अधिकारी को दी। उसने मौके पर आकर निरीक्षण किया। तत्पश्चात इसके ऐतिहासिक महत्त्व को देखते हुए चट्टानों को हटवाकर मन्दिर को साफ करवाया गया। इस गुफा-मंदिर की सुरक्षा हेतु अगल-बगल मजबूत दीवारे बनवाई गईं और लोहे का फाटक भी लगवा दिया गया।
मन्दिर में यह मुर्तिया कब की हैं। यह निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु, बड़े-बड़े चट्टानों पर महादेव, गणेश, पार्वती, भैरो आदि हिन्दू देवी देवताओं की इन मूर्तियों को देखते हुए इसे कुछ लोगो ने गुप्त कालीन मानने का आग्रह किया।
महादेव -पार्वती की मूर्तियों के नीचे शिलालेखों की दो पक्तियां पाली भाषा में हैं। उस समय इसी भाषा का प्रचलन था। चुनार की मूर्तिकला बौद्धकाल से भी अधिक प्राचीन मानी जाती है। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। बौद्धकाल में यह कला अपने चरोमत्कर्ष पर थी। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित कराए गए चारो दिशाओ में गरजते सिंहोंं वाले लाटों की रचना चुनार में ही हुई थी। यहां से इन्हें अन्य स्थान पर भी भेजा गया था।
इसी प्रकार अन्य मूर्तियो के अलावा कुशीनगर (देवरिया) के बौद्ध चैत्य में महा परिनिर्वाण में लेटे हुए 6.10 मीटर लम्बी एक अन्य मूर्ति है। इसे चुनार में लाल बलुआ पत्थर से निर्मित कराया गया था।
इसका एक बौद्ध हरिवल ने कुमार गुप्त के शासन काल मे निर्माण कराया था। इससे यह सिद्ध होता है कि इस गुफा और मन्दिर की मूर्तियों का निर्माण चुनार के कलाकारों द्वारा किया गया था। इस गुफा में उकेरी गई महादेव की मूर्ति क्रोध एव आश्चर्य मुद्रा में है। ठीक ऐसा रूप जैसा सती के अंगों को गिराए जाने पर शिव का हुआ था।
महादेव की इस मूर्ति में कानों में छत्र एव कुंडल लटक रहे हैं। दोनों कंधो पर फन काढ़े हुए नागराज विराजमान हैं। गले मे रुद्राक्ष की माला तथा दोनों हाथों में सती के अंग जैसे अंकित किए गए हैं। इस मूर्ति की बाईं ओर देवी दुर्गा की सिंहवाहिनी चतर्भुज छवि उकेरी गई है। इनकी दोनों दाहिनी भुजाओं में कोई नरबाल आकृति बनाई गई है। यह महिषासुर भी हो सकता है।
जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह भैरो गुफा, जिसे बूढ़े महादेव का मंदिर कहते हैं काफी पुरानी है। शिव के जिस रूप को यहां उकेरा गया है। यदि उसकी संगति सती के साथ बैठ जाती है तो निःसन्देह यह सिद्ध स्थान है। समय-समय पर यहां अनेक साधक साधना करते रहे हैं। इन साधकों की अनेक कथाएं अब भी सुनी जाती हैं।
ऐसे ही एक साधक थे मस्तराम। जो हाथी की दुम पकड़कर उस हाथी पर सवार हो जाया करते थे। यह किस्सा मुगलकाल का है। एक बार मस्तराम चुनार कोतवाली के रास्ते से गुजर रहे थे तो मान खां नामक एक पठान ने अपनी कुछ बेबसी जाहिर की। तब इस मस्तराम जी ने उसे पकड़कर जबरदस्ती मान खान को कोतवाल की कुर्सी पर बैठा दिया और उसे तीन डंडे लगाते हुए कहा कि तेरी तीन पुश्त इस कुर्सी पर बैठेगी। इसके बाद परिस्थिति ऐसी बदली कि मान खान चुनार का कोतवाल हो गया तथा इसकी आने वाली दो पुश्तें भी यहां कोतवाल के पद पर बनी रहीं ।
-फेसबुक पेज ऐतिहासिक नगर चुनार-chunar mirzapur tuorism से साभार।