October 22, 2024 |

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झारखंडः खूबी-खराबियों में तो सभी दल बराबर, लेकिन…

Sachchi Baten

झारखंडः महासमर में भाजपा चल रही आगे-आगे

-श्याम किशोर चौबे

झारखंड के चुनावी इतिहास में 19 अक्टूबर 2024 एक तारीखी मुकाम साबित होगा. राज्य की छठी विधानसभा के गठन के लिए घोषित 13 नवंबर और 20 नवंबर की तारीखों के लिहाज से 19 अक्टूबर को जहां एनडीए के मुख्य पार्टनर भाजपा ने 81 में से अपनी 66 सीटों के प्रत्याशियों की सूची जारी कर दी, वहीं इंडिया ब्लाॅक बस इतने पर रहा कि झामुमो और कांग्रेस मिलकर 70 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. शेष 11 सीटें दूसरे दो पार्टनर राजद और माले के हिस्से में जाएंगी. राजद ने इस पर एतराज जताते हुए कुछ ऐसा कहा, मानो वह स्वतंत्र रूप से चुनाव में उतरेगा और कई सीटों पर प्रत्याशी देगा. उसने इंडिया ब्लाॅक में रहते हुए अपने लिए 12 सीटों की मांग की थी. उस दिन कांग्रेस के नीति निर्धारक नेताओं में से एक राहुल गांधी सहित कई केेंद्रीय नेता रांची में थे और राजद के तेजस्वी यादव, मनोज झा आदि भी यहीं थे, झामुमो के तो तमाम नेता रांची में ही रहते हैं. इसके बावजूद कोई फाइनल बात नहीं कही जा सकी.

आगे की बात के पहले गौर करें 2019 के विधानसभा चुनाव परिणाम पर

आगे की बात करने के पहले 2019 के चुनाव परिणाम पर गौर कर लेना चाहिए. उस चुनाव में इंडिया ब्लाॅक, तब महागठबंधन कहा जाता था, के हिस्से में 47 सीटें आई थीं. इनमें झामुमो ने 30, कांग्रेस ने 16 और राजद ने एक सीट फतह की थी. माले उस समय हालांकि महागठबंधन का पार्टनर नहीं थी लेकिन उसने एक सीट हासिल की थी. दूसरी ओर उस चुनाव में एनडीए का कुनबा बिखरा हुआ था. भाजपा ने अकेले दम 25 सीटों पर विजय पाई थी, जबकि आजसू को स्वतंत्र अस्तित्व में रहते हुए महज दो सीटों पर संतोष करना पड़ा था. आजसू उस चुनाव में 69 सीटों पर चुनाव में उतरी थी, जबकि भाजपा 79 सीटों पर. उस समय जेवीएम नामक भी एक दल चुनाव मेें डटा था, जिसने सभी 81 सीटों पर प्रत्याशी देकर तीन सीटें पाई थी. चुनाव के तत्काल बाद यह दल विलोपित हो गया क्योंकि इसके दो एमएलए कांग्रेस में चले गये और अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी इसका अस्तित्व मिटाकर 14 साल बाद भाजपा के दरवाजे पर वापस जा खड़े हुए. इसके पहले उनका एक जुमला बहुत चर्चित हुआ था कि भाजपा में वापस होने से बेहतर होगा कि मैं कुतुबमीनार से कूद जाऊं. लेकिन साबित किया कि राजनीति में ऐसे जुमले कोई मायने नहीं रखते. बहरहाल, भाजपा में वापसी के साथ वे पहले नेता प्रतिपक्ष बनाये गये, उस पर सदन में लफड़ा लगा तो कुछ काल बाद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बना दिये गये. अब वे ही बाबूलाल झारखंड में भाजपा के तारणहार बन गये हैं.

बाबूलाल ने राजनीति भाजपा से ही प्रारंभ की थी और जब 15 नवंबर 2000 को बिहार से काटकर झारखंड राज्य बनाया गया था तो इसके वे पहले मुख्यमंत्री बनाये गये थे. 2019 के चुनावी इतिहास में एनसीपी की चर्चा आवश्यक प्रतीत होती है, हालांकि उस समय इस दल के एकमात्र विधायक चुने गये थे कमलेश कुमार सिंह. ये महानुभाव इंडिया ब्लाॅक के समर्थन में थे लेकिन जैसे ही एनसीपी अपने गढ़ महाराष्ट्र में दो फाड़ हुई, ये अजित पवार के समर्थन में आ गये और एनडीए फोल्डर में जा मिले. इस बार चुनाव की घोषणा के बाद उन्होंने बाकायदा कमल थाम लिया. उधर एनसीपी के दोनों गुटों ने झारखंड चुनाव में हिस्सेदारी निभाते हुए कुछ-कुछ सीटों पर प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया है.

एक पुरानी बात को भी याद करना जरूरी है कि इसी साल लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस की एकमात्र सांसद गीता कोड़ा भाजपा में जा मिलीं थीं. उनके पति मधु कोड़ा निर्दलीय रहते हुए तत्कालीन यूपीए के सक्रिय सहयोग-समर्थन से राज्य के पांचवें मुख्यमंत्री बने थे. मूल रूप से वे भाजपा के ही सदस्य थे लेकिन आपसी खींचतान और महात्वाकांक्षाओं ने उनको कांग्रेस में ला मिलाया था. और फिर वे इस साल सपत्नीक पुराने जहाज पर लौट गये, हालांकि लोकसभा चुनाव में उनकी पत्नी गीता काफी मतों के अंतर से कांग्रेस प्रत्याशी से पराजित हो गई थीं. ऐसे ही भाजपा के एक नामवर नेता चंपाई सोरेन कुछ काल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद पिछली जुलाई में कुर्सी खिसकाई जाते ही भाजपा में जा मिले. दरअसल, झामुमो नेता और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ईडी ने जनवरी के अंतिम दिन कथित जमीन घोटाले में बंदी बना लिया था. उसके बाद चंपाई को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई. हेमंत जब 28 जून को जमानत पर जेल से बाहर आये तो चंपाई को पद त्यागना पड़ा था. ऐसे ही कुछ-कुछ मसलों पर बागी चल रहे झामुमो के एक नेता सह विधायक लोबिन हेम्ब्रम चंपाई के बाद भाजपा में जा मिले. उसके कई दिनों पहले लोकसभा चुनाव के दौरान हेमंत सोरेन की भाभी विधायक सीता सोरेन ने मंत्री/मुख्यमंत्री नहीं बनाये जाने पर नाराजगी प्रकट करते हुए भाजपा की राह पकड़ ली थी. उनको भाजपा ने दुमका से लोकसभा चुनाव में अवसर भी दिया लेकिन पराजय हाथ लगी.

झारखंड का राजनीतिक इतिहास ‘आयाराम, गयाराम’ की कहानियों से भरा पड़ा

झारखंड का राजनीतिक इतिहास ‘आयाराम, गयाराम’ की कहानियों से भरा पड़ा है. इसी सिलसिले में कम से कम दो अन्य लोगों को भी याद कर लेना चाहिए. झामुमो के एक कद्दावर नेता हुआ करते थे टेकलाल महतो. विधायक रहते उनका देहांत हुआ तो उनके पुत्र जेपी पटेल उपचुनाव जीतकर मंत्री बन गये. बाद में वे भाजपा में चले गये और एमएलए चुने गये. इसी लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस के पाले में आ गये लेकिन उनके हाथ हार लगी. ऐसे ही जदयू के एक बड़े नेता हुआ करते थे रमेश सिंह मुंडा. नक्सलियों ने उनकी सरेबाजार हत्या कर दी तो उनके पुत्र विकास मुंडा पहले जदयू, फिर भाजपा में आ गये. चुनाव भी जीते. अब झामुमो में हैं और पिछले चुनाव में विधायक चुने गये थे. सबसे अजीब कहानी है राजा पीटर के नाम से मशहूर गोपाल कृष्ण पातर की. उन्होंने 2009 के आरंभिक दिनों में तत्कालीन मुख्यमंत्री और झामुमो के सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन को उपचुनाव में हराकर ख्याति अर्जित की थी. तब वे किसी अनाम से दल का सदस्य हुआ करते थे. फिर झारखंड पार्टी में आये और फिर जदयू में. उन पर जदयू नेता रमेश सिंह मुंडा की हत्या में साजिश रचने का आरोप है.

काफी दिनों तक जेलबंद रहे. अब जमानत पर हैं और एक बार फिर से जदयू में शामिल कराये गये हैं. उनको प्रत्याशी बनाये जाने की गारंटी मानी जा रही है. सरयू राय की चर्चा के बिना कहानी अधूरी ही रहेगी. वे एक तरह से जन्मजात जनसंघी/भाजपाई थे. 2014 में बनी तत्कालीन एनडीए सरकार में मंत्री थे. उस समय के मुख्यमंत्री और वर्तमान में ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास से जमी नहीं और 2019 के चुनाव में टिकट मिलने की उम्मीद नहीं दिखी तो निर्दल प्रत्याशी के बतौर मैदान में उतर कर रघुवर दास को उनके ही गढ़ में पराजित कर दिया. इसी दौरान उनकी महागठबंधन से निकटता बढ़ी. फिर आलोचना भी करने लगे. अब इस चुनाव में सरयू राय जदयू में जा मिले. उनके भी टिकट की गारंटी मानी जा रही है.

चुनावी मैजिक का सबसे बड़ा सस्पेंस 28 जनजातीय सीटें और कुड़मी (कुर्मी) प्रभावक्षेत्र वाली 8-9 सीटें

झारखंड के चुनावी मैजिक का सबसे बड़ा सस्पेंस 28 जनजातीय सीटें और कुड़मी (कुर्मी) प्रभावक्षेत्र वाली 8-9 सीटें होती हैं. पिछली बार भाजपा इसी में पिछड़ गई थी. उसको महज दो जनजातीय सीटें हासिल हो पाई थीं. सो, पिछले पांच वर्षों से वह इन सीटों पर खास फोकस कर रही है. यह बात समझते हुए विशेषकर झामुमो और उसके नेतृत्ववाली सरकार भी अपना ध्यान उधर ही लगाये रही. लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य की सभी पांच जनजातीय सीटें हार गई, हालांकि बाकी नौ में से आठ उसके और एक उसकी पार्टनर आजसू के हाथ लगीं. इस पर उसने तत्काल संज्ञान लेते हुए अपकमिंग विधानसभा चुनाव के मद्देनजर केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चैहान और असम के मुख्यमंत्री कांग्रेस पलट भाजपा नेता हिमंता बिस्वा सरमा के हाथों में कमान सौंप दी. ये दोनों नेता एक तरह से झारखंड में कैम्प करते हुए इंडिया ब्लाॅक सरकार के विरूद्ध आक्रामक रणनीति पर काम करने लगे. इसी का प्रतिफल था चम्पाई सोरेन और लोबिन हेम्ब्रम को भाजपा में ला मिलाना. उन्होंने यहां के लिए एक खास मुद्दा बनाया, बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठ और इसी बहाने संताल परगना में आदिवासियों के डेमोग्राफी में बदलाव. अलग बात है कि खुद असम इस प्रकार की घुसपैठ से कतई मुक्त नहीं है.

भाजपा चल रही आगे-आगे

इन्हीं परिस्थितियों में भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी द्वारा 2014-15 में कही गई बातों पर अमल करते हुए चुनावी राजनीति में आगे-आगे चलने की रणनीति अपनाई. लोकसभा चुनाव के बाद ही उसने रांची से लेकर दिल्ली तक अपने पार्टनरों संग भेंट-मुलाकातों के अलावा बैठकों का सिलसिला चलाया. अपने दल की आंतरिक बैठकें भी उसने तेज कर दी. परिणाम हुआ कि 15 अक्टूबर को चुनाव की घोषणा के पहले ही उसने सीट शेयरिंग और अपने प्रत्याशियों पर काफी काम कर लिया. लोकसभा चुनाव में भाजपा के बहुमत से दूर रहने का परिणाम यह हुआ कि खासकर जदयू थोड़ा दबाव बनाने की स्थिति में आ गया. पिछले विधानसभा चुनाव में बिखरे एनडीए ने भाजपा का बेड़ा जिस प्रकार गर्क किया था, उससे सीख लेते हुए उसने आजसू को महत्व देना प्रारंभ कर दिया था. आजसू, जिसका गठन झारखंड आंदोलन के समय झामुमो की छात्र इकाई के तौर पर किया गया था, उसने अपना स्वरूप बदलते-बदलते स्वतंत्र राजनीतिक इकाई का आकार ले लिया. यह अलग बात है कि वह कुर्मी राजनीति पर ही केंद्रित हो गई. अब भाजपा उसका भरपूर फायदा उठाने की जुगत में है. शायद इसी कारण उसने इस बार आजसू के लिए दस सीटें छोड़ दी है, जबकि 12 की जिद किये जदयू को दो सीटें और मुंह फाड़े चिराग पासवान के नेतृत्वाली लोजपा को केवल एक सीट दी. यानी भाजपा ने अपने पास 68 सीटें रखी है, जिनमें से 66 प्रत्याशियों की उसने 19 अक्टूबर को घोषणा कर दी. उसने हेमंत सोरेन की सीट बरहेट और कुर्मी प्रभाव वाली टुंडी को होल्ड पर रखा है.

राजनीतिक गलियारों की चर्चा के अनुसार कभी भाजपा की मंत्री रहीं और 2014 की एनडीए सरकार में कल्याण मंत्री रहीं लोइस मरांडी को वह बरहेट से लड़ाना चाह रही थी, जबकि उनका प्रभाव क्षेत्र दुमका है. कहा यही जा रहा है कि लोइस ने यह कहकर टका सा जवाब दे दिया कि बरहेट से चुनाव लड़ने से बेहतर होगा घर बैठूं, वहां हार निश्चित है. टुंडी के लिए छनकर यह बात आ रही है कि इस बार आजसू प्रमुख सुदेश महतो अपनी परंपरागत सिल्ली सीट छोड़कर या इसके समेत टुंडी से भी दांव आजमाना चाहते हैं. सिल्ली में वे 2014 में और उसके बाद उपचुनाव में झामुमो के अमित महतो और उनकी पत्नी से पराजित हो चुके थे. इस बार तो लड़ाई तितरफी हो जाएगी क्योंकि कुर्मियों के संगठन के रूप में स्थापित हो रहे झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा ने वहां से अपना प्रत्याशी जिस देवेंद्र महतो को घोषित कर रखा है, उन्होंने लोकसभा चुनाव में खासा वोट अर्जित किया था.

भाजपा प्रत्याशियों की सूची की खास बातें

भाजपा प्रत्याशियों की इस बार की सूची में कुछ खास बातें हैं. इन बातों पर जाने से पहले यह गौर कर लेना जरूरी होगा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा के दो और झामुमो के भी दो विधायक चुन लिए गये थे. इसके बावजूद ये चारों सीटें दोनों दलों की सीटिंग मान लेने में फिलहाल कोई हर्ज नहीं है. भाजपा ने इस बार अपने 26 सीटिंग विधायकों में से तीन को बेटिकट कर दिया है. इनमें सिमरिया के किशुन दास, कांके के समरी लाल और जमुआ के केदार हाजरा का नाम शामिल है. उसने दर्जन भर महिला प्रत्याशियों को मौका दिया है, जबकि कई नवागत नाम भी हैं. मसलन, बड़कागांव से जिस रौशन लाल चैधरी को टिकट दिया है, वे पहले आजसू में थे और सुदेश महतो के मौसा सांसद चंद्रप्रकाश चैधरी के भाई हैं. उन्होंने 19 अक्टूबर को ही भाजपा की सदस्यता ग्रहण की और फौरन उनको प्रत्याशी बना दिया गया. यूं, झामुमो, कांग्रेस और राजद पर भाजपा परिवारवादी होने का पानी पी-पीकर आरोप लगाती है, लेकिन इस बार के उसके प्रत्याशियों में चंपाई सोरेन तो हैं ही, एक अन्य सीट से उनका बेटा बाबूलाल सोरेन भी प्रत्याशी बनाया गया है. ऐसे ही ओडिशा के गवर्नर रघुवर दास की पुत्रवधू पूर्णिमा दास साहू को रघुवर की परंपरागत सीट जमशेदपुर पूर्वी से प्रत्याशी बनाया गया है. यही हाल बाघमारा सीट का है, जहां के विधायक ढुल्लू महतो लोकसभा चुनाव में सफल रहे तो उनके भाई शत्रुघ्न महतो को विधानसभा चुनाव में टिकट दे दिया गया. झरिया से पूर्व विधायक संजीव कुमार सिंह की पत्नी रागिनी सिंह और सिंदरी से निवर्तमान बीमार विधायक इंद्रजीत महतो की पत्नी तारा देवी को प्रत्याशी बनाया गया है. खास बात यह है कि तीन बार मुख्यमंत्री रहे और मोदी सरकार-2 में जनजातीय कार्य तथा कृषि मंत्री रहे अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा को पोटका से उम्मीदवार बनाया गया है. अर्जुन मुंडा इस बार खूंटी से लोकसभा चुनाव हार गये थे. बतौर विधायक खरसावां उनकी परंपरागत सीट थी लेकिन मीरा मुंडा को पोटका से मौका देने का मकसद शायद कुर्मी वोटरों की नाराजगी से जुड़ी हुई है. पोटका से प्रत्याशी की घोषणा के साथ वहां की पूर्व विधायक मेनका सरदार ने भाजपा छोड़ दी है. भाजपा प्रत्याशियों की घोषणा में खास बात यह भी है कि सीता सोरेन की परंपरागत जामा सीट बदलकर उनको जामताड़ा से मौका दिया गया है. उधर पांच बार के सांसद रविंद्र कुमार पांडेय को 2019 में बेटिकट कर घर बैठा दिया गया था लेकिन इस बार उनके आवासीय क्षेत्र बेरमो से प्रत्याशी बनाया गया है. उम्मीद तो रविंद्र राय को भी थी, जिनको रविंद्र पांडेय के साथ ही गृहवास सुख दिया गया था लेकिन प्रत्याशी सूची में उनका नाम नहीं है. राय महोदय न केवल राज्य में मंत्री और सांसद रह चुके हैं, अपितु उनके खाते में भाजपा की प्रदेश अध्यक्षी भी दर्ज है. जमुआ से जिन मंजू देवी को भाजपा ने प्रत्याशी बनाया है, वे कुछ ही घंटे पहले कांग्रेस त्याग पार्टी में शामिल हुई थीं. यह कहने-बताने की अब बात ही नहीं रही कि पार्टी विद डिफरेंस का नारा देनेवाली भाजपा में भी संगठन से लेकर प्रत्याशियों तक में दलबदलुओं की बहार है. उसने इस बार जिन दो पूर्व मुख्यमंत्रियों बाबूलाल मरांडी और चम्पाई सोरेन को प्रत्याशी बनाया है, वे दोनों ही दूसरे दलों से आये हैं. सवाल चुनाव जीतने का है तो मौका उसको ही मिलेगा, जो जीत सके, भले ही वह अल्पकालिक सजायाफ्ता ही क्यों न हो. सांसद ढुल्लू महतो इसके जीते-जागते उदाहरण हैं.

सभी राजनीतिक दलों की खूबियों-खराबियों में बहुत हद तक समानता

देखा जाय तो ऊपरी तौर पर सभी राजनीतिक दलों की खूबियों-खराबियों में बहुत हद तक समानता है. ऐसे में मौके का, खासकर चुनावी मौके का फायदा उठाने और चुनाव प्रबंधन में कौन आगे रहता है तो बेशक भाजपा का नाम से पहले लेना पड़ता है. वह चुनावी तैयारियों में हमेशा मशगूल रहती है, झामुमो-कांग्रेस की तरह मधुरी चाल नहीं चलती, न ही अपने लोगों को अधिक उछल-कूद मचाने देती है. झारखंड में पहले चरण के मतदानवाले 43 विधानसभा क्षेत्रों के लिए नामांकन की अंतिम तिथि 25 अक्टूबर है लेकिन 20 अक्टूबर के अपराह्न तक इंडिया ब्लाॅक में व्याप्त असमंजस से इस तथ्य को समझा जा सकता है.

(लेखक दैनिक जागरण के झारकंड स्टेट ब्यूरो चीफ रह चुके हैं। रांची में रहते हैं।)


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