मुलायम सिंह की खांटी समाजवादी छवि से खेल रहे हैं अखिलेश?
-स्वाभिमान से समझौता करने की क्या हैं मजबूरियां?
-राजभर, अपर्णा, शिवपाल, अमरसिंह, आजम, माया सब रूठे बारी बारी
-सिद्धांत की खातिर रामभक्तों पर गोलियां चलवाने वाले का बेटा झुकने को मजबूर क्यों?
हरिमोहन विश्वकर्मा, लखनऊ। राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता, इस बात के सर्वथा उचित उदाहरण दिवंगत रामविलास पासवान और चौधरी अजित सिंह थे। आज दोनों नहीं है, लेकिन नीतीश कुमार हैं, जो 100% इसी सिद्धांत को मानते हैं।
अब समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव भी इसी नियम पर चल रहे हैं। उनका दुर्भाग्य यह है कि इस नियम पर चलने के बावजूद उन्हें वैसी सफलता नहीं मिल पा रही, जैसी पासवान, अजित या नीतिश को मिलती रही। अखिलेश बुआ मायावती से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष रहे राहुल गांधी, केजरीवाल, लालू यादव, शरद पवार की पार्टियों तक से मिलकर देख लिए, किसी की मित्रता न तो उन्हें उप्र की सत्ता में वापस करा पा रही है और न लोकसभा में सम्मानजनक सीटें दिलवा पा रही है।
अब 2024 में लोकसभा चुनाव है तो एक बार फिर अखिलेश सत्ता के लिए नए साझेदार ढूंढ़ रहे हैं, लेकिन बात बन नहीं रही। जिस इंडिया गठबंधन में वे इस आशय में गए थे कि उप्र में वे किंगमेकर सा व्यवहार करेंगे। उस गठबंधन के सबसे बड़े घटक कांग्रेस ने मप्र विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी और खुद उनकी धज्जियाँ बिखेर दीं, खुद मप्र कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने उन्हें “अखिलेश वखलेश” जैसे विशेषण दे दिए।
सत्ता न मिलने से निराश अखिलेश स्वाभिमान और सम्मान को ताक पर रखकर उसी कांग्रेस के साथ रहने को मरे जा रहे हैं। क़ल तक गठबंधन में उप्र से सीटें हम तय करेंगे, कहने वाले अखिलेश आज कह रहे हैं कि हम कांग्रेस के साथ हैं। शायद बिना शर्त।
उनके पिता कुश्ती के माहिर सपा के दिवंगत नेता मुलायम सिंह राजनीति के भी माहिर खिलाड़ी माने जाते थे। चंद्रशेखर से लेकर अटल और नरेन्द्र मोदी तक उनका अंतिम सांस तक सम्मान करते रहे। सिद्धांतों की खातिर ही जार्ज फर्नाण्डिज और लोहिया के चेले मुलायम ने सोनिया गांधी को अंत समय तक देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया।
उन्हीं के बेटे अखिलेश के राजनीतिक तरकश में वे बाण नहीं बचे हैं, जिनसे वे अपने कार्यकर्त्ताओं की कौन कहे, अपने स्वाभिमान की रक्षा न कर सकें। कल तक अखिलेश यादव कांग्रेस से नाराज थे, आज मान गए। सपा मुखिया खुद कह रहे कि कांग्रेस के सबसे बड़े नेता का फ़ोन आ गया है तो वह कोशिश करेंगे कि इंडिया गठबंधन न टूटे।
दो दिन पहले ही अखिलेश यादव ने कांग्रेस को धोखेबाज पार्टी कहा था और उसके प्रदेश अध्यक्ष को ‘चिरकुट’। देखा जाए तो पिछले डेढ़ दशक के करियर में अखिलेश यादव रूठने और मनाने की राजनीति में ही ज्यादातर उलझे रहे। 2012 के उप्र विधान सभा चुनाव में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी।
उनकी उम्र, तजुर्बा और उनके स्वभाव को देखते हुए कोई यह मानने के लिए तैयार नहीं हुआ कि उत्तर प्रदेश जैसा बड़ा राज्य वह संभाल सकते हैं। हुआ भी यही, प्रदेश में चार सुपर सीएम हो गए। मुलायम सिंह के अलावा अमर सिंह, शिवपाल यादव और आजम खान अपने अपने ढंग से फैसले करते रहे।
मुख्यमंत्री के रूप में तीन साल बीत जाने के बाद अखिलेश को होश आया कि अब न संभले तो फिर कभी नेतृत्व का अवसर नहीं मिलेगा। पहली बार अखिलेश ने अपनी हनक दिखाई और अपने मेंटर अमर सिंह को ही सपा से बाहर कर दिया।
उसके बाद पार्टी के चाणक्य चाचा शिवपाल को भी नहीं बख्शा। पहले मंत्रिमंडल से हटाया। फिर पार्टी से भी जाने पर मज़बूर कर दिया। नाराज मुलायम समर्थकों ने उन्हें “औरंगजेब” तक कह दिया। अखिलेश यादव अपनी नाराजगी इतना आगे तक ले गए कि सपा में ही दोफाड़ हो गया और किसी की भी कल्पना से परे मुलायम सिंह ने उन्हें और रामगोपाल यादव को ही पार्टी से बाहर कर दिया।
अखिलेश और रामगोपाल यादव के सपा से निष्कासन के बाद सपा दो फाड़ होने के कगार पर पहुंच गई थी। चुनाव की दहलीज पर खड़े राज्य में पार्टी की इस हालत ने न केवल विधानसभा चुनाव के घोषित प्रत्याशियों को बेचैन कर दिया, बल्कि आम सपाइयों को भी अपना सियासी भविष्य खतरे में नजर आने लगा तो अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल यादव के साथ अपनी अदावत खत्म करने का फैसला किया। पर सपा यूपी जीतने में नाकाम रही। अखिलेश यादव ने अपने छोटे भाई की बहू अपर्णा यादव को भी पार्टी से बाहर जाने पर मज़बूर कर दिया। अब कांग्रेस के साथ एक बार फिर हेट और लव का खेल जारी है।