कंचन में चमक क्यों है। मेहंदी से हाथ क्यों रंग गए। चंदन क्यों महका। सहज सा उत्तर है- मेहंदी पिसी, कंचन तपा और चंदन घिसा गया। कुछ इसी तरह से तपकर, घिसकर और पिसकर रामेश्वर पांडेय बन गए थे कुमार बिहारी पांडेय। पढ़िए होटलों में प्लेट धोने वाले रामेश्वर पांडेय कैसे बन गए अरबपति कुमार बिहारी पांडेय…
ऐसे ही बिहारी के कारण ही नाम है बिहार का
-रामेश्वर के कुमार बिहारी पांडेय बनने तक की कहानी किसी फिल्म की पटकथा सरीखी
-मुंबई में अरबों का कारोबार बेटों को सौंप गांव में आकर जगाई शिक्षा की अलख
-ग्रामीण क्षेत्र में बनवाया ऐसा स्कूल, जिसे देखकर तरसते हैं शहरी भी
-85 साल की उम्र में भी हर कक्षा में प्रतिदिन जाकर बच्चों को बड़ा सोचने की देते थे सीख
राजेश पटेल, मिर्जापुर (सच्ची बातें)। सिवान (बिहार) जिले के दोन गांव निवासी रामेश्वर पांडेय नामक 10 साल का बच्चा जब कोलकाता के होटलों में प्लेट धोना शुरू किया तो कौन जानता था कि यह एक दिन कुमार बिहारी पांडेय नाम से प्रसिद्ध होगा और मशीनों तथा ग्राइंड प्लेटों का पायनियर बनेगा।
- विद्यालय में बच्चों से बात करते कुमार बिहारी पांडेय (फाइल फोटो)
होटल ब्वॉय, रसोइया, दरबान से मुंबई ही नहीं, देश के नामी उद्योगपतियों की सूची में शुमार होने के लिए सिर का पसीना पैर तक ही नहीं आया, अपितु पैर का पसीना सिर तक गया। कर्म को पूजा माना। श्रम को ही अपना संसार। मुंबई में अरबपतियों के बीच गर्व से खड़े होने वाले कुमार बिहारी पांडेय को बिहार की माटी की सोंधी खुशबू और सरयू का कल-कल नहीं भूला।
- सुनीता कान्वेंट स्कूल में एक कार्यक्रम के दौरान सिवान के तत्कालीन जिलाधिकारी महेंद्र प्रसाद तथा यह रिपोर्टर, बीच में कुमार बिहारी पांडेय (फाइल फोटो)
जैसे ही बेटे काम संभालने लायक हो गए, उनको पूरी जिम्मेदारी सौंपकर गांव आ गए। खुद को अशिक्षित होने का दर्द उन्हें लगातार सालता रहा, लिहाजा अति पिछड़े गांव दोन में भव्य स्कूल बनवाया है। बच्चों को स्किल्ड करने के लिए आइटीआइ की स्थापना की। अंतिम समय में यहीं रहकर वे इनका भविष्य संवारने में जुटे रहे। करीब 85 साल की उम्र में भी कक्षा एलकेजी से लेकर इंटर तक की सभी कक्षाओं में प्रतिदिन जाकर बच्चों को बड़ा सोचने और बड़ा करने की सीख देते थे।
रामेश्वर पांडेय से कुमार बिहारी पांडेय बनने तक की कहानी किसी तिलस्मी उपन्यास या फिल्म की पटकथा से कम नहीं है। उनके संघर्ष, सफलता की जीजीविषा, जीवन के उतार-चढ़ाव, लगातार कई दिनों तक भूखे रहने से लेकर आज जो सोचा, हाजिर हो जाने तक के वाकये को कोई सुनता है तो सहसा विश्वास ही नहीं होता, लेकिन इन्होंने साबित किया है कि लगन एवं श्रम कभी बेकार नहीं जाता।
गरीब पिता रामसेवक पांडेय की फटकार, तुम लोग कुछ नहीं कर पाओगे, पर इन्होंने जवाब दिया कि मैं ऐसा करूंगा कि इलाके में कोई नहीं किया होगा। बचपन में सुना था कि कलकत्ते में नोट बरसते हैं, पकड़ने वाला चाहिए। पिता को दिए गए जवाब को सही साबित करने के लिए घर से बिना किसी को बताए कोलकाता पहुंच गए।
वहां काम क्या मिलता। क्षुधा की आग बुझाने के लिए होटलों में प्लेट धोना शुरू किया। मंजिल तो कुछ और थी, सो एक दिन मुंबई की ट्रेन में बैठ गए। माया नगरी में भी कई दिनों तक भटकने के बाद होटलों में ही वही काम मिला, जिसे कोलकाता में ही करते थे। कुछ प्रमोशन हुआ तो खाना बनाने लगे।
थोड़ी और जान पहचान बढ़ी तथा खाना बनाने मेें निपुणता हासिल हुई तो कई राजघरानों में भी रसोइया का काम किया। मंजिल की तरफ जाने के लिए निर्णायक मोड़ तक आया, जब भारतीय जीवन बीमा निगम की एक बिल्डिंग में चौकीदारी का काम मिला।
यहीं पर अमेरिका के जॉन इलियट भी रहते थे। इनकी इंजीनियरिंग बॉम्बे टूल्स एंड डाई नामक फैक्ट्री थी। ड्यूटी के प्रति समर्पण को देखकर उन्होंने कुमार बिहारी पांडेय को चौकीदारी करने का ऑफर दिया। इन्होंने स्वीकार तो किया लेकिन एक शर्त पर कि वे चौकीदारी के साथ-साथ इंजीनियरिंग का काम सीखेंगे।
वे तैयार हो गए। कुछ वर्षों बाद श्रमिकों के कारण फैक्ट्री बंद हो गई। इलियट ने इनको साथ अमेरिका चलने को कहा। इन्होंने मना कर दिया। इसके बाद फिर दिन गर्दिश में कटने लगे लेकिन डाई बनाने के मैकेनिकों में इनका बड़ा नाम हो गया था। उन दिनों प्रेस कास्ट प्रा. लि. अल्युमिनियम डाई कास्टिंग की सबसे बड़ी कंपनी मानी जाती थी। उसे टाटा टेक्सटाइल्स वालों का अल्युमिनियम बॉबिन बनाने का बड़ा ऑर्ड मिला था।
वे ऑर्डर की सप्लाई नहीं कर पा रहे थे। कुमार बिहारी से मदद मांगी। इन्होंने जिस फैक्ट्री के पास काम कम थे, उसमें जाकर उसका निर्माण शुरू किया। इनके द्वारा बनाई गई बॉबिन की गुणवत्ता बहुत अच्छी थी। यहीं से इनके अपने काम की शुरुआत हुई।
फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस बीच शादी हो चुकी थी। एक बेटी भी। फिर बेटी सुनीता के नाम पर सुनीता इंजीनियरिंग वर्क्स नामक फैक्ट्री खोली। 10 की उम्र में प्लेट धोने से शुरू सफर 30 साल का होने तक मर्सिडीज तक पहुंच गया। उस समय मुम्बई के करोड़पतियों में शामिल हो गए।
कारोबार काफी बढ़ाया। सैकड़ों एकड़ जमीन खरीदी। बगीचा लगवाया। खेती भी शुरू की। मुम्बई में कारोबार जम जाने के बाद गांव की याद आई कि जब तक वहां कुछ नहीं करेंगे, तो पिता को दिया गया वचन कैसे पूरा होगा। आ गए गांव। यहां सुनीता विद्या नगरी बसाई। ग्रामीण बच्चों को गुणवत्तापूर्ण और रोजगार परक शिक्षा मुहैया कराने के लिए इंटर तक का स्कूल खोला। आइटीआइ भी। जीवन के अंतिम पड़ाव में वे यहीं रहकर बच्चों को बड़ा बनने की सीख देते रहे।
कुमार बिहारी पांडेय का निधन इसी वर्ष 13 जनवरी को हो गया। जब वह जिंदा थे तो यह रिपोर्टर उनसे मिला था। उनके साथ फोटो भी खिंचवाई। वह कहते थे कि बचपन में ही गुजर चुकीं मां नारायणी देवी ही मुझसे सारा काम करवाती हैं। लगता है कि वे अभी भी सामने हैं। मैं तो निमित्त मात्र हूं। किसी काम को छोटा नहीं समझा। 10 वर्ष की उम्र से लेकर अब तक जो भी काम मिला, पूरी शिद्दत के साथ किया। सफलता का असली राज यही है। मां का आशीर्वाद तो साथ है ही। इनके एक आइपीएस दामाद इस समय उत्तर प्रदेश में पुलिस विभाग में बड़े ओहदे पर हैं।
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